‘जीडीपी और आर्थिक विकास, दुनिया के सबसे झूठे शब्द हैं, इनके कारण ही दुनिया का विनाश होगा’

Felex Padel (6)तकरीबन चार दशक से आप भारत को नजदीक से देख रहे हैं. आप जब यहां आए तब और अब के भारत में आपको क्या फर्क नजर आता है?

इसका जवाब देना मुश्किल है. कितने बदलावों की बात करूं. जब भारत आया था तो यहां की नदियां, नदी की तरह ही थीं, लेकिन अब जगह-जगह नदियों के बहने में रुकावट हैं, तमाम नाले में बदल गई हैं. पहले यहां पहाड़ों और जंगलों का महत्व था. प्रकृति और सृष्टि से मानव का मार्मिक रिश्ता था. धर्म जीवन की एक प्रक्रिया थी, उसमें जीवन मूल्य समाहित थे. अब सब कुछ तेजी से बदल चुका है, अब तो निवेश यहां का मूल मंत्र है. ये विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के जाल में फंसा हुआ एक मुल्क बन चुका है. विश्व बैंक के लिए दुनिया के तमाम देश सिर्फ तीन खांचों में फिट होते हैं, पहला- विकसित (डेवलप्ड), दूसरा- विकासशील (डेवलपिंग) और तीसरा- अल्प विकसित (अंडरडेवलप्ड). विकसित बनने की होड़ में शामिल होकर भारत अपना सब कुछ बदल चुका है. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और आर्थिक विकास इसके मूलमंत्र बन चुके हैं.

जीडीपी और आर्थिक विकास मूलमंत्र बन चुके हैं, मतलब?

हां, निश्चित रूप से यही दो ऐसे शब्द हैं, जो दुनिया के सबसे शक्तिशाली झूठे शब्द हैं. ये दोनों पूरी सृष्टि को रसातल में ले जा रहे हैं. इनके लक्ष्यों को पाने के लिए सबसे पहले मानवीय और सांस्कृतिक मूल्यों को ध्वस्त करना पड़ता है, सुंदर और पहचान से जुड़ी परंपराओं का नाश करना पड़ता है. जब तरक्की की दौड़ नहीं थी, तब क्या विकास नहीं था? था, तब भी था, लेकिन उस विकास में मानव समुदाय के बीच आपसी रिश्ते की भी कद्र थी. अब तो तेजी से दूरियां बढ़ती जा रही हैं. आर्थिक विकास और जीडीपी ने सत्ता, राजनीति, कॉरपोरेट और माओवादियों के बीच गठजोड़ बनाया है. इन चारों का गठजोड़ क्या कर रहा है, कैसे आपसी सहमति से सामंजस्य बैठाकर भारत जैसे देश को बर्बाद किया जा रहा है, इसे लोगों को बताने की जरूरत नहीं.

जिस गठजोड़ की बात आप कर रहे हैं तो इसका मतलब क्या माओवादी सीधे-सीधे सामंजस्य बैठाकर, आपसी सहमति से काम कर रहे हैं?

हां, बिलकुल. इन सबकी फंडिंग कौन करता है, यह देखना होगा. सबको कॉरपोरेट विशेषकर माइनिंग कंपनियां फंड करती हैं. इन माइनिंग कंपनियों को फंड कहां से मिलता है. विश्व बैंक व आईएमएफ से. इसके लिए सरकार देश के विकास का हवाला देते हुए अधिक से अधिक माइनिंग की जरूरत पर बल देती है. इसके लिए चारों आपस में गठजोड़ कर एक-दूसरे की मदद करते हैं. जहां भी माइनिंग कंपनियां आती हैं, सबसे पहले वहां की संस्कृति का बलात्कार करती हैं, फिर औरतों का, फिर धर्म का नाश करती हैं, लोगों को झांसा देती हैं. सब आपस में मिलकर काम करते-हैं. मैं तो कहता हूं कि माओवादियों को अपने नाम से ‘माओ’ शब्द हटा देना चाहिए.

आप ओडिशा में रहकर वर्षों से काम कर रहे हैं. नियमगिरी वाला मामला बहुत चर्चित रहा है और वेदांता का विरोध वहीं हुआ. आपका इस पर क्या कहना है?

नियमगिरी का मामला अलग है. जब भी वहां काेई माइनिंग कंपनी गई तो सबसे पहले उन्होंने लोगों को यह बताने की कोशिश की कि वह वहां नियमगिरी राजा का विशाल मंदिर बनवा देगी. तब वहां के आदिवासियों ने जवाब दिया कि हमारा भगवान, नियमगिरी राजा मंदिरों में नहीं रहता, वो रह ही नहीं सकता. वह कंक्रीट के जंगल में नहीं, असली जंगल में रहता है, पहाड़ पर खुले आसमान के नीचे. लोग जब कंपनी के झांसे में नहीं फंसे. तब दूसरे रास्ते अपनाए गए. वहां के लोग साफ कहते हैं कि पहाड़ को हमारी जरूरत है और हमें पहाड़ की. ऐसा नहीं है कि आदिवासी नहीं जानते कि इस पहाड़ में सैकड़ों तरह के अयस्क हैं, लेकिन उनके लिए धरती, जंगल, पहाड़ कभी लालच पूरा करने के स्रोत की तरह नहीं रहे. आदिवासी जैव पारिस्थितिकी आधारित अर्थव्यस्था पर चलते हैं, इसलिए कंपनियां उन्हें आसानी से दूसरे समुदाय की तरह झांसा नहीं दे पाती.

दूसरे समुदाय, मसलन?

दूसरे समुदाय को एक उदाहरण से समझिए. मैं जब भारत आया था तो हिंदू धर्म मुझे आकर्षित करता था, अब भी करता है. मैंने हिंदू धर्म का नदियों से, उसके पानी से, सृष्टि से, पहाड़ से लगाव देखा था. अब भी मैं हिंदू धर्म के अनुसार पूजा करता हूं, मंदिर जाता हूं लेकिन जब भी किसी बड़े मंदिर जाता हूं, जहां सिर्फ संगमरमर ही संगमरमर लगे होते हैं, तो सोचता हूं कि इस विशाल मंदिर में क्या भगवान रहता होगा? और रहता होगा तो कैसे? क्या भगवान को नहीं मालूम कि उसका वास बनाने में इस्तेमाल संगमरमर निकालने में बड़े लोगों ने मजदूरों पर कितने तरह के जुल्म किए थे? निश्चित रूप से भगवान यह जानता होगा. जिस तरह का झांसा देकर बड़े लोगों ने मंदिर बनवाए ठीक वैसे ही माइनिंग कंपनियों ने अपने बचाव के लिए बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण शुरू करवा दिया है ताकि लोग उसमें उलझे रहें और उनका कोई विरोध न हो.

आप मूल रूप से मानव विज्ञानी हैं, आदिवासियों को करीब से देखा है. आदिवासी अलग किस्म के संकट के दौर में हैं. किसी कंपनी के आने पर उनके विस्थापन की बात-भर कहकर बात खत्म कर दी जाती है, जबकि कोई भी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विस्थापन पर गंभीरता से बात नहीं करता?

मानव विज्ञानी अब सिर्फ औपनिवेशिक तरीके से मामलों का ऊपरी तौर पर ही अध्ययन करते हैं. ऐसा नहीं होना चाहिए. वे बहुत पारंपरिक तौर पर गांवों का अध्ययन वगैरह करते हैं जबकि किसी भी समुदाय को समझने के लिए उसकी जड़ों में जाना होता है. आदिवासियों को लेकर एक बात मुझे याद आती है. जब मैं पहली बार झारखंड के संथाल परगना गया था तब उस गांव में आम की नई फसल तैयार थी. मैं जिस घर में गया, वहां आम रखे हुए थे. मैंने खाने की इच्छा जताई तो उन्होंने कहा कि अभी नहीं खिलाएंगे, अभी इनकी पूजा नहीं की गई है. मालूम हुआ कि पूजा के तौर पर आम को वे पहले सृष्टि को चढ़ाएंगे, फिर खाएंगे. ऐसा ही होता है आदिवासी जीवन. वे प्रकृति से सिर्फ लेते नहीं, जो लेते हैं, उसे देते भी हैं. आदिवासियों को समझने की जरूरत होगी. आज विस्थापन के खिलाफ उनकी लड़ाई को ऊपरी तौर पर ही देखा जाता है. जल-जंगल-जमीन की लड़ाई के रूप में देखा जाता है. अपने समुदाय को बचाने की लड़ाई के तौर पर देखा जाता है जबकि सच्चाई ये है कि आज आदिवासी भारत जैसे देश के भविष्य, दुनिया और पूरी सृष्टि बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. वे जीवन मूल्यों को बचाए और बनाए रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं. अगले 20-30 सालों बाद क्या होने वाला है, साफ दिख रहा है. कंपनियों को किसी भी तरह सारे संसाधन चाहिए. उन्हें नदी-पहाड़-सृष्टि से मतलब नहीं. क्या होगा 20 साल बाद जब सारे संसाधन खत्म हो जाएंगे? अभी बिजली मिल जाएगी, आगे क्या होगा? नदियों का पानी खत्म हो जाएगा, सारे जलस्रोत खत्म हो जाएंगे, तब क्या होगा? जमीन खत्म हो जाएगी, जंगल खत्म हो जाएंगे तब क्या होगा? आदिवासी उसी को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. उनकी लड़ाई को मानवता की लड़ाई के तौर पर देखा जाना चाहिए, उसी नजरिये से अध्ययन होना चाहिए.

आदिवासी करीब आठ प्रतिशत की आबादी में बचे हैं. अगर ये कहा जाए कि आने वाले दिनों में आदिवासी समुदाय खत्म हो जाएंगे, तो ऐसे में देश का स्वरूप कैसा होगा?

नहीं, कतई नहीं! मेरा दृढ़ विश्वास है कि यह समुदाय कभी खत्म नहीं होगा. ऐसा हो ही नहीं सकता. यह सृष्टि से प्रेम करने वाला समुदाय है. उसका स्वरूप बदलेगा. आज माइनिंग कंपनियों ने कुछ आदिवासियों को अपने यहां रखकर उनके स्वरूप को बदल दिया है. कुछ माओवादियों ने अपने यहां उन्हें शामिल कर उनके स्वरूप को बदल दिया है. पुलिसवालों ने एसपीओ बनाकर उनका स्वरूप बदल दिया है. ये तीनों आदिवासियों के स्वरूप को बदलने में लगे हुए हैं लेकिन आदिवासियों के मूल में ऐसा है कि वे ज्यादा दिन अपने मूल्यों और संस्कृति से कटे रह ही नहीं सकते. कर्म और धर्म में उनकी गहरी समझ होती है. अभी संकट है लेकिन वे फिर वापस लौटेंगे और वे कभी खत्म नहीं होंगे. भले ही उन्हें मुख्यधारा की संस्कृति बनाने की लाख कोशिश की जाए, आदिवासी लौटेंगे अपने ही मूल में.

भारत में जो शासन व्यवस्था है, उसमें सभी राजनीतिक खेमों को देख लिया गया. मध्यमार्गियों, वामपंथी, दक्षिणपंथी और समाजवादियों को भी देखा जा चुका है. क्या आपको ये उम्मीद दिखती है कि इन स्थितियों में बदलाव आ सकेगा?

आप किसी भी राजनीतिक खेमे काे ले आओ, कोई फर्क नहीं पड़ता. सब  अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के हिसाब से काम करते हैं. सबके लिए आर्थिक विकास मूल मंत्र है. ऐसे में सिर्फ नाम बदलेंगे, काम नहीं. आज ग्रीस जिस संकट से गुजर रहा है, उसे मैं कई सालों से देख रहा हूं. 40 साल पहले वहां गया था. खूबसूरत देश है. फिर दस सालों के बाद गया तो देखा वहां निवेश आने लगा है, विकास होने लगा है. विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का हस्तक्षेप बढ़ गया है. आज ग्रीस कहां पहुंच गया है, आप देख ही रहे हैं.

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आप चार्ल्स डार्विन के परिवार से आते हैं. उनकी  ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’  वाले सिद्धांत की व्याख्या अब ताकतवर और वर्चस्ववादी लोग अपने तरीके से करते हैं. क्या आपको इस बात का दुख है?

‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ वाले सिद्धांत में डार्विन ने अपनी ओर से कोई बात नहीं कही थी, यह तो सृष्टि की बात थी. सृष्टि से रिश्ता बनाने की बात थी. इसकी व्याख्या बदल देने से सृष्टि के प्राणियों की प्रक्रिया नहीं बदल जाएगी. सृष्टि में इतने तरीके के जीव रहते हैं, सभी में लगभग 90 प्रतिशत समानता है. मनुष्य उनमें सबसे ज्यादा बुद्धिमान है. अपने तरीके से व्याख्या करता है. छोड़िए इस बात को, क्या कहूं इस पर. इंसान समझता नहीं कि इस सृष्टि के सभी जीवों से रिश्ता बनाकर रखना होगा. इंसानों ने बंदर और चांद को मामा और बिल्ली को मौसी कहा है तो इसकी कुछ तो वजह रही होगी.