सरकार को चाहिए कि आहत भावनाओं का एक आयोग बनाए- नाकोहस यानी नेशनल कमीशन फॉर हर्ट सेंटिमेंट्स! : पुरुषोत्तम अग्रवाल

Purushottam-Agrawal

आपके उपन्यास नाकोहस (नेशनल कमीशन फॉर हर्ट सेंटिमेंट्स) की खूब चर्चा हुई. मौजूदा परिवेश में बात कहते ही आहत होती भावनाओं से व्याप्त डर और अराजक माहौल के चलते उपन्यास शायद ज्यादा प्रासंगिक हो गया है. आपका क्या अनुभव रहा?

यह सही है कि मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य के चलते उपन्यास को उसी संदर्भ में पढ़ा गया, लेकिन उसमें और भी बहुत चीजें थीं जिस पर लोगों का ध्यान कम गया. उपन्यास में प्रेम है, जीवन है, अंतर्विरोध है तो दुख और भय भी है.

उपन्यास बुद्धिजीवी समाज की विसंगतियों और विडंबनाओं पर भी चुटकियां लेता है. बुद्धिजीवी वर्ग का अंतर्विरोध बार-बार उसमें सामने आया है. उसमें एक प्रसंग है कि आजकल प्रगतिशील लोगों की थाली में भी दो-चार राष्ट्रवादी आइटम जरूर पाए जाते हैं. ऐसा नहीं है कि यह बुद्धिजीवियों के अधिकार और आत्माभिमान का ही घोषणा पत्र है. उपन्यास में बुद्धिजीवी का मतलब वो है जो किसी न किसी रूप में धरातल पर जाकर समाज से जुड़े. उपन्यास जहां से शुरू होता है, एक पात्र सुकेत की यादें जहां से शुरू होती हैं, वह सब आपको नेल्ली (असम) तक ले जाता है कि उत्तर-पूर्व आपकी सोच में भी कहीं नहीं है. किसी को पता तक नहीं है कि 1983 में नेल्ली में क्या हुआ था. नेल्ली के बाद 1984 का सिख विरोधी दंगा, हाशिमपुरा और मलियाना का संदर्भ है.

यह उपन्यास किसी समाज में बुद्धिजीवी वर्ग की भूमिका को रेखांकित करता है, समाज में टेक्नोलॉजी और मैनेजमेंट का जो आतंक है और पढ़ने-लिखने का मतलब वही समझ लिया जाता है, ये उस पर बात करता है. मैं मानता हूं कि यह उपन्यास आपको याद दिलाता है कि अगर आप साहित्य, संस्कृति, इतिहास आदि की उपेक्षा करेंगे और इन पर स्पष्ट बोलने वालों को लगभग गाली की तरह बुद्धिजीवी कहने लगेंगे तो अंतत: आप अपना ही नुकसान करेंगे. क्योंकि ऐसा समाज अनिवार्य रूप से नाकोहस की तरह है. जैसा कि नाकोहस का प्रवक्ता गिरगिट कहता है बुद्धिजीवियों के सम्मान का नाटक बहुत हो चुका. ये नहीं कि आप कुछ भी बकते रहें और हमारी भावनाएं आहत हों. उपन्यास तीनों चरित्रों की मानवीयता को भी रेखांकित करने की कोशिश करता है. उपन्यास तीन बुद्धिजीवियों का एक रात का अनुभव मात्र नहीं है.

आपकी पहचान मुख्य रूप से आलोचक की रही है फिर आपको उपन्यास लिखने की जरूरत क्यों महसूस हुई?

मैं आलोचना लिखता रहा हूं लेकिन नियमित रूप से कविता भी लिखता हूं. ये बात और है कि उसे प्रकाशित नहीं कराता. यहां तक कि सुमन जी (अपनी पत्नी) को भी नहीं पढ़ाता. कभी मन हुआ तो ठीक-ठाक करके कहीं भेजा, वरना लिखकर रख लेता हूं. फिक्शन में मेरी रुचि शुरू से थी. कॉलेज के दिनों में दो-तीन कहानियां लिखी थीं, पुरस्कृत भी हुईं. बाद में आलोचना लिखने लगा. लोगों को लगने लगा कि ये आलोचना अच्छी लिखते हैं. चर्चा होने लगी. तत्काल की जो स्थितियां बन जाती हैं, वही पहचान बन जाती है. लेकिन परिवार और निजी मित्रों को मालूम है कि मैं 25 साल से ये धमकी देता रहा हूं कि मैं उपन्यास लिखूंगा. इसका कारण मैं ये मानता हूं कि कविता और तमाम दूसरी विधाओं के प्रति सम्मान के साथ, जीवन को उसकी समग्रता में अगर साहित्य की कोई विधा व्यक्त कर सकती है तो वह उपन्यास है.

मैं ये नहीं कह रहा कि सिर्फ उपन्यास ऐसा करता है. लेकिन उसी तरह जैसे भाषा का सबसे सघन और सर्जनात्मक उपयोग कविता में हो सकता है- ऐसा कहकर मैं दूसरी विधा का अपमान नहीं कर रहा, सिर्फ कविता की विशेषता बता रहा हूं- उसी तरह चाहे समाज हो, आपका अंतर्मन, आपकी अस्तित्वगत वेदना या चाहे आपकी ऐतिहासिक चिंता, उसका जिस समग्रता में अनुसंधान उपन्यास करता है, कोई दूसरी विधा नहीं कर सकती. उपन्यास में कई आवाजें होती हैं. गोदान में केवल होरी की आवाज नहीं है. गोदान में राय साहब, बदमाश अफसरों, थानेदार, झिगुरी, पंडित यानी होरी के शोषकों की भी आवाजें हैं. वह उपन्यास जो अपने पसंदीदा चरित्र के अलावा किसी और चरित्र को बोलने ही न दे या लेखक सिर्फ अपनी मर्जी की बात कहलवाए, वह काफी घटिया उपन्यास होगा. अच्छा उपन्यास वह होता है जिसमें ऐसे भी चरित्र हों जिन्हें आप लेखक के साथ जोड़कर देख सकते हैं. इसे देखते हुए मैं पिछले 25 साल से उपन्यास लिखने की बात सोच रहा था. एक वृहद उपन्यास पर काम करना बाकी है.

जब मैंने नाकोहस कहानी लिखी, जो 2014 में छपी, उस पर जिस तरह का विवाद या बहस हुई, वह बहुत रोचक था. जिन लोगों से मैं अपेक्षा करता था कि उसकी निंदा करेंगे, उन्होंने तो की ही, लेकिन बहुत सारे लोगों ने आलोचना की. यह ठीक भी है. लेकिन कुछ लोगों ने कहा कि रघु नाम का पात्र ईसाई है, तो आप हिंदू नायकत्व का पीछा कर रहे हैं. या उसको हिंदू परंपरा की जानकारी है तो आप खुद हिंदू सांप्रदायिकता को शह दे रहे हैं. इस पर काउंटर भी किया गया. कहानी पर चर्चा दिलचस्प रही. इस पर मित्रों-परिजनों ने सलाह दी कि इसको उपन्यास में बदलिए. फिर मैंने इस पर सोचना शुरू किया उपन्यास के रूप में और लिखा.

जब कहानी छपी थी तो सवाल उठाए गए थे कि इसमें कहानीपन नहीं है. क्या कहेंगे आप?

मुझे कहानीपन की बात बिल्कुल समझ में नहीं आती. ठीक है कहानीपन एक बात है, लेकिन कहानीपन का कोई एक बुनियादी रूप नहीं है जिसके आधार पर आप एक कहानी को खारिज कर दें और एक को कहानी मान लें. अब मुझे नहीं पता कि कहानीपन या कथातत्व पर बात करते हुए ‘कुरु कुरु स्वाहा’ को उपन्यास माना जाएगा या नहीं. या ‘नौकर की कमीज’ को उपन्यास मानेंगे या नहीं. लेकिन ठीक है यह सवाल उठाने वालों की राय है.

मेरी समझ के मुताबिक एक बुनियादी घटनाक्रम है, एक वैचारिक संघर्ष है, कोई कहानी इस वजह से कहानी नहीं रहती, ऐसा मैं नहीं मानता. जब उपन्यास के तौर पर मैंने इसको सोचा तब तक चीजें काफी साफ होने लगी थीं और समाज की जिस परेशानी से मैं गुजर रहा था, जिसे गोविंद निहलानी ने उपन्यास पर चर्चा करते हुए ‘डिस्टर्बिंग डिस्टोपिया’ कहा था, शायद उसकी कल्पना कर रहा था. डिस्टर्बिंग यानी जो बुरी तरह आपको परेशान करे या डरा दे, ये डर कम से कम मेरा निजी है. इस डर को एक फैंटेसी के रूप में रचा गया है. उपन्यास का पात्र टेलीविजन बंद करना चाह रहा है लेकिन वह बंद नहीं हो रहा है. वह रिमोट का बटन दबा रहा है, पीछे से पावर ऑफ कर रहा तब भी वह बंद नहीं हो रहा है. उसके कमरे की हर दीवार टेलीविजन स्क्रीन में बदल गई है. एक टेलीविजन तुम फोड़ भी दो तो भी फर्क नहीं पड़ेगा.

NakohasWeb2

पिछले 10-15 साल में एक तरह के अनवरत गुस्से से भरे, सतत रूप से क्रुद्ध समाज की रचना हुई है. इस दौरान समाज में क्रोध का विस्तार होता चला गया, समझदारी की कमी होती गई, भाषा में सपाटपन आता चला गया

जेएनयू प्रसंग या अन्य हालिया प्रसंगों में भी कुछ टेलीविजन चैनल जिस तरह का माहौल बनाते हैं, उसमें जिन लोगों का नाम लेकर इंगित किया जाता है, आपको नहीं पता कि उनके साथ कब, कैसी अनहोनी घटित हो सकती है. क्या देश की राजधानी में यह एक अनोखी घटना नहीं है कि कोर्ट परिसर में एक लड़के पर जानलेवा हमला हो और पुलिस कुछ न कर पाए? बाद में भी कुछ नहीं हुआ. यह ‘लिंच मेंटालिटी’ है. आप लिंच मेंटालिटी (मारपीट या हत्या करने की मानसिकता) का निर्माण कर रहे हैं और यह उपन्यास यही याद दिलाता है.

उपन्यास में एक वाक्य आता है, ‘जिससे भय होता है उस पर करुणा नहीं होती.’ लोगों के मन में भय बैठाया जा रहा है कि यह आदमी देश के लिए खतरनाक है, समाज के लिए खतरनाक है, आपके परिवार, बहन, बेटी के लिए खतरनाक है. भले ही वह आदमी अपने आप में कितना निर्दोष हो. उसकी जान लेने में न आपको संकोच होगा, न कोई अपराधबोध. अगर आप सचमुच ऐसा समाज बनाना चाह रहे हैं, जिसमें किसी निर्दोष को भी मार देने में उसे संकोच न हो तो वह समाज कैसा होगा?

उपन्यास में जिस तकनीकी अतिक्रमण का जिक्र है कि टीवी चैनल बंद नहीं हो पा रहा, मोबाइल स्क्रीन मन की बात जान ले रहा है, यह लिखते समय आपके दिमाग में क्या था? व्यवस्था द्वारा किया जा रहा अतिक्रमण या संचार माध्यमों का पूंजीपन जो लोगों के जीवन में निर्बाध प्रवेश कर रहा है?

मैं सीधे कहूंगा कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था में ये दोनों चीजें लागू होती हैं. खुद में यह व्यवस्था भी और पूंजीवाद भी. लेकिन मैं यह मानता हूं कि अगर आपके जीवन में एकांत का कोई पल न बचे तो यह आपकी मनुष्यता के समाप्त होने की हालत है. जब आपके पास अपने भी साथ होने का थोड़ा-सा समय नहीं है, जब आप किसी से बात न कर रहे हों, फेसबुक पर किसी से दंगल न कर रहे हों, कुछ देर आप चुपचाप बैठें, संगीत सुन रहे हों, या कुछ भी करें. अपने साथ रहें. एकांत में दो चीजें होती हैं. एक तो शांत चित्त से सोचने का वक्त मिलता है. दूसरा, एकांत में आप अपनी कल्पनाओं और स्मृतियों को थोड़ा-सा व्यवस्थित होते देखते हैं. इन दोनों स्थितियों से आपको लगातार वंचित रखा जा रहा है. मनुष्य के एकांत का अतिक्रमण राजसत्ता तो कर ही रही है, लेकिन ये इस पूंजीवादी व्यवस्था या कहिए खास तरह के पूंजीवाद की बड़ी स्वाभाविक विशेषता है. उसकी हर जगह दखलंदाजी है. आपका कोई क्षण ऐसा नहीं है जो आपका अपना हो. वह एडवर्टाइजिंग कल्चर का हिस्सा है, जब आपके बेडरूम से लेकर आपका कमोड तक विज्ञापन और उत्पाद की जद में है. इसलिए जरूरी है कि वह आपकी हर चीज तक पहुंचे. इस क्रम में आपका जो भी एकांत है, जिससे आपका व्यक्तित्व परिभाषित होता है, वो

खत्म हो जाता है. ये मुझे बहुत भयावह स्थिति लगती है. मैं ऐसे परिवारों को जानता हूं जहां घर में चार कमरे हैं तो चार टीवी हैं. वेे साथ खाना नहीं खाते. सब अपने-अपने कमरे में टीवी देखते हुए खाना खाते हैं.

 नाकोहस की कल्पना कैसे की?

2003 या 2004 में आपको याद हो तो एक किताब छपी थी, ‘शिवाजी हिंदू किंग इन इस्लामिक इंडिया’. उसके लेखक थे अमेरिकी विद्वान जेम्स लेन. वे पुणे में भंडारकर इंस्टिट्यूट में रिसर्च के लिए आए थे. इस दौरान महाराष्ट्र में घूमते हुए उन्हें शिवाजी के बारे में कुछ बातें मालूम हुईं, जिन पर उन्होंने किताब लिख दी. किताब में सहयोग के लिए संस्थान का आभार प्रकट किया गया था. इस पर ‘संभाजी ब्रिगेड’ नामक एक संगठन ने संस्थान में घुसकर तोड़-फोड़ की. उस समय गोपीनाथ मुंडे जी ने बयान दिया कि हमारी भावनाएं तो जवाहरलाल नेहरू की किताब से भी आहत होती हैं.

तब मैंने एक लेख लिखा कि भावनाएं बहुत आहत हो रही हैं. भावनाएं आहत होकर कूदकर सड़क पर आ जाती हैं. इससे राष्ट्रीय संपदा का नुकसान होता है तो सरकार को चाहिए कि आहत भावनाओं और आक्रांत अस्मिताओं का एक आयोग बनाए, नेशनल कमीशन आॅफ हर्ट सेंटिमेंट्स (नाकोहस). तो ये विचार दस-बारह साल पुराना है. इसका पिछले आम चुनाव के परिणाम से कोई संबंध नहीं है. पिछले पांच-छह साल में जैसा माहौल देश में बनता चला गया है, उसमें सुधारवाद और प्रतिक्रियावाद में कोई भेद नहीं है. पुणे में जब यह वाकया हुआ तब वहां कांग्रेस की सरकार थी. जब सलमान रुश्दी को भारत नहीं आने दिया तब कांग्रेस की सरकार थी. एक गांव की पंचायत आदेश दे देती है कि अब गांव की लड़कियां मोबाइल फोन नहीं रखेंगी, किसी लड़की के पास मोबाइल पाया जाता है तो मार-मारकर उसकी हालत खराब कर दी जाती है. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कह देते हैं कि समाज के मामले में सरकार क्या कर सकती है. इन लोगों ने सरकार की धारणा ही तब्दील कर दी है. इन लोगों को आधुनिक राजसत्ता का बोध ही नहीं है. आधुनिक राजसत्ता समाज को केवल व्यवस्थित ही नहीं करती, बल्कि समाज को बदलने की कोशिश करती है. कोई आधुनिक राजसत्ता यह नहीं कह सकती कि स्त्रियों या दलितों की क्या हालत है, इससे हमें कोई लेना-देना नहीं है, यह तो सामाजिक मसला है.

उदाहरण से समझिए कि समस्या कहां होती है. एक सज्जन ने घोषणा की कि वे कन्हैया को मार देंगे तो उनको माला पहनाई गई. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक नेता जी ने घोषणा की कि वे सलमान रुश्दी को मारने वाले 51 लाख रुपये देंगे. बाद में वो बड़े-बड़े सेक्युलर नेताओं के साथ मंच पर दिखे. पिछले दस-बारह साल में जिस तरह की स्थितियां पैदा हुई हैं कि आहत भावनाओं का मामला एक तरह से किसी भी विमर्श की सर्वस्वीकार्य शर्त बन गया है. यानी विमर्श तब ही होगा अगर आपकी भावनाएं आहत हुई हैं.

आहत भावनाओं की राजनीति और 24 घंटे का मीडिया, इसने बहुत बुरी स्थिति पैदा की है. मैं इसे असहिष्णुता नहीं कहता, यह पर्याप्त शब्द नहीं है. पिछले 10-15 साल में एक तरह के अनवरत गुस्से से भरे, सतत रूप से क्रुद्ध समाज की रचना हुई है. इस दौरान समाज में क्रोध का विस्तार होता चला गया, समझदारी की कमी होती गई, भाषा में सपाटपन आता चला गया. मैंने जनवरी में फेसबुक पर शरारत के तौर पर लिखा, विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि इस बार गणतंत्र दिवस पर प्रधानमंत्री जी मुख्य अतिथि होंगे. (ठहाका लगाते हुए) कुछ लोगों को पसंद नहीं आया तो उन्होंने निंदा की, कुछ ने गालियां दीं. लेकिन एक सज्जन ने बाकायदा मुझे कोसा कि आप बड़े भारी प्रोफेसर बनते हैं, बुद्धिजीवी बनते हैं, इतना भी नहीं मालूम कि प्रधानमंत्री तो हर साल गणतंत्र दिवस पर होते ही हैं.

[symple_box color=”red” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

उपन्यास के अंश

NakohasforWebएक लेखक उसकी लिखी किताबों के साथ जिंदा जलाया जा रहा है. यह सैकड़ों साल पहले के यूरोप की बात है. एक कवि पर हाथी दौड़ाया जा रहा है, यह सैकड़ों साल पहले के भारत में हो रहा है. एक प्रोफेसर का दायां हाथ काट दिया गया है, उसके काॅलेज ने उसी को बर्खास्त कर दिया है. एक बुजुर्ग लेखक अपनी अप्रकाशित पांडुलिपि खुद ही जला रहा है; क्योंकि आहत भावनाओं के रणबांकुरे उसके साथी लेखक की देह को क्षत-विक्षत करके जा चुके हैं… यह कुछ ही बरस पहले, सुकेत के अपने देश-काल में हुआ है. चर्च धर्मद्रोही विद्वान की किताबें जला रहा है, वह विद्वान आत्महत्या कर रहा है. उसका दोस्त कह रहा है, मुझे भी फूंक डालो साथ में क्योंकि मुझे अपने दोस्त की सारी किताबें जबानी याद हैं… यह हजारों साल पहले की बात है. एक लेखक फेसबुक पर अपनी मौत की घोषणा कर रहा है, वह अपने बीवी-बच्चों के साथ आम आदमी की तरह जीना चाहता है, सो उसे लेखक के तौर पर मरना ही होगा… यह बस कल-परसों की बात है.

* * *

‘वेल’ गिरगिट इस बार, बिना जीभ लपलपाए, बिना आंख मारे, बिना रंग बदले बोल रहा था, ‘उम्मीद तो है कि आप तीनों अब सुधर जाएंगे… नहीं तो… आप जानें… वैसे, यू मस्ट एप्रिशिएट द फैक्ट कि आपके साथ नाकोहस ने कमाल की नरमी बरती है… बस जरा से दस्तखत, दस्तखत भी क्या, इनिशियल्स ही तो किए गए हैं, आप लोगों की बॉडीज पर… डू यू रियलाइज सर… कि जितना वक्त आपने नाकोहस के फ्रेंडली इंटरएक्शन में बिताया, जितना आपको वहां ले जाने, वापस पहुंचाने में लगा, यानी कुल मिलाकर आप तीनों जितनी देर इस किस्सा-ए-नाकोहस में रहे, बस उतने ही अरसे में एक जाने-माने बुजुर्ग इंटेलेक्चुअल भारत में भगवान को प्यारे हो गए, और एक अरब में अल्लाह मियां से मिलने भेज दिए गए…’[/symple_box] 

ये जो सतत रूप से क्रुद्ध समाज तैयार हुआ है, ये कैसे संभव हुआ?

इसका सबसे बड़ा कारक है निर्बाध उपभोक्तावाद. मैं यह नहीं मानता कि आप प्रकृति की ओर लौट जाएं, लेकिन एक अर्थशास्त्री मित्र कहते हैं कि ओपन इकोनॉमी एक सीमा तो है ही और वह है धरती पर उपलब्ध संसाधन. उससे ज्यादा ओपन तो नहीं हो सकती.

अर्थशास्त्री ब्रह्मदेव जी एक बात कहा करते थे कि अगर आपको अमेरिका और यूरोप के वर्तमान जीवन स्तर पर पूरी दुनिया को ले जाना है तो यह एक ही तरीके से संभव है कि आपके पास आठ पृथ्वियां हों और उन आठों का वैसा ही दोहन हो जैसा पिछले 400 साल में हुआ. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा संभव नहीं है. तो निर्बाध उपभोक्तावाद नहीं चल सकता. आप किसी एक सेक्टर के लिए बाकी को छोटा करेंगे. दिल्ली में आॅड इवेन करेंगे लेकिन आॅटोमोबाइल इंडस्ट्री पर लगाम नहीं लगाएंगे. एक परिवार में चार सदस्य हैं और बारह गाड़ियां हैं. आप निर्बाध उपभोग की स्थिति पैदा करेंगे तो जाहिर है कि समाज में अंतर्विरोध पैदा होगा.

तो एक तो इस अबाध, बेरोकटोक उपभोग की स्थिति ने समस्या पैदा की है. दूसरे, पूंजीवाद का सहज स्वभाव है कि यह मनुष्य को उपभोक्ता में बदलता है. यह उसके जिंदा रहने के लिए जरूरी है, इसलिए वह मनुष्य की मनुष्यता को कमतर करेगा. प्रतियोगिता को इस स्तर तक बढ़ाएगा कि वह गलाकाट प्रतिस्पर्धा में बदल जाएगी.

आपसे बात करते समय मेरे मन में हल्की-सी चिंता यह है कि मेरे मुंह से कुछ ऐसा तो नहीं निकल रहा कि जिसकी वजह से कल मुझे पकड़कर ठोक दिया जाए कि हमारी भावनाएं आहत हुई हैं. असहमति व्यक्त करने में डर लग रहा है 

दूसरी समस्या है हमारे अपने समाज के संदर्भ में. हमारे लोकतंत्र का एक बुनियादी अंतर्विरोध दिनोंदिन बढ़ता चला जा रहा है कि एक स्तर पर हम लोकतंत्र हैं, चुनाव से सरकार चुनी जाती है, जनता का शासन है. लेकिन रोजमर्रा की प्रैक्टिस में सामाजिक न्याय और कानून के राज का क्या हाल है? आप निजी तौर पर हत्या करें तो आपको सजा हो जाएगी, लेकिन किसी समुदाय के प्रतिनिधि बनकर हत्या कर दें तो आपको कुछ नहीं होगा, बल्कि आपका अभिनंदन होगा. आप मुख्यमंत्री बन सकते हैं. ये हमारे अपने देश की समस्या है. एक तरह से कानून के राज की समाप्ति हो रही है. न्याय का बोध खत्म हो रहा है. तीसरी बात, पिछले 20 साल में नवउदारवादी व्यवस्था के आने के बाद आप महसूस करते हैं कि पहले एक मध्यवर्गीय आदमी यह मानकर चलता था कि व्यापक समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारी है, जो कुछ उसे मिलता है वह एक व्यापक वितरण हिस्सा है. आजकल एक बड़ा मजबूत बोध विकसित हुआ है कि हम टैक्सपेयर हैं. टैक्सपेयर मनी, ये मुहावरा बहुत झल्लाहट पैदा करता है कि सब कुछ टैक्सपेयर मनी से हो रहा है.

हमारे समाज में नई तरह की समस्या यह पैदा हुई है कि सरकार मैनेजर की भूमिका में है, संसाधनों का केंद्रीकरण हो रहा है. अमेरिका में जो बात बार-बार कही जाती है कि 99 फीसदी संसाधनों पर एक फीसदी लोगों का कब्जा है, ऐसा अमेरिका नहीं चल सकता. ऐसे समाज में गुस्सा बढ़ता है जो हिंसा या सांप्रदायिकता या दूसरे खतरनाक रूप में सामने आता है.

जिन वजहों से ऐसा समाज बनता है, जाहिर है कि वह आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था है. क्या कोई वैकल्पिक व्यवस्था है जिससे ऐसी स्थिति से बचा जा सके?

हां, बिल्कुल है. अार्थिक व्यवस्था से अगर आपका आशय है अर्थतंत्र तो उद्योग अनिवार्य है. अब लोग केवल प्रकृति के नहीं, बल्कि संस्कृति और प्रौद्योगिकी के नजदीक हैं. तो उद्योग होंगे, छोटे भी और बड़े भी. लोगों को वाकई अगर जीवन का एक स्तर चाहिए और विकास चाहिए तो उसके लिए एक जटिल समाज और अर्थतंत्र की जरूरत होगी. सवाल यह है कि उस अर्थतंत्र में संवेदनशीलता संभव है या नहीं. इसीलिए इस उपन्यास में बार-बार कहा गया है कि किसी भी तरह का अथॉरिटेरियन समाज, उसकी रंगत कुछ भी हो, उसका अस्तित्व नहीं हो सकता.

मोटे तौर पर आप कह सकते हैं सोशल डेमोक्रेसी या डेमोक्रेटिक सोशलिज्म. मैं निजी तौर पर मानता हूं कि नए तरह का नेहरू मॉडल हो सकता है जो अपने समय के अनुकूल हो, जो गलतियों से सीखा गया हो. मुझे अपने आपको नेहरूवादी कहने में कोई हिचक नहीं है. एक नवनिर्मित नेहरू मॉडल, एक मिश्रित अर्थव्यवस्था ही सबसे अनुकूल हो सकती है जिसका डेमोक्रेटिक इंस्टीट्यूशन का सपना हो, डेमोक्रेटिक प्रैक्टिसेज का सपना हो. देश आजाद हुआ तो लोगों ने नेहरू से कहा कि तरह-तरह की समस्याएं हैं, ये प्रेस फ्रीडम संपन्न और फैंसी देशों की लक्जरी है, इसको फ्री मत छोड़ो वरना गैरजिम्मेदार हो जाएगा और आपको परेशान करेगा. इस पर नेहरू ने कहा, मैं प्रतिबंधित प्रेस की जगह गैरजिम्मेदार मगर फ्री प्रेस को तवज्जो दूंगा. नेहरू ने गलतियां भी कीं, लेकिन उन्होंने देश की नींव रखी. विज्ञान, कला, साहित्य, सिनेमा, उद्योग हर चीज की नींव रखी.

आपने लिखा है-  ‘आज के दौर का लेखक भी उन बातों को दर्ज करने से दूर है जो सच तो है लेकिन कही नहीं जा रही है’, यह अपने समय और समाज पर गंभीर सवाल है. 

इसके पीछे एक वाक्य है एक इतिहासकार का, नाम याद नहीं, जो दिखता है उसे लिखना तो जरूरी है ही, लेकिन ज्यादा जरूरी है उसे लिखना जो दिखता नहीं है लेकिन जिसे लिखा जाना चाहिए. मुझे लगता है कि इतिहासकार हों, साहित्यकार, या समाजशास्त्री, सभी की मूल प्रतिक्रिया यही है कि चीजों को समग्र रूप में देख सकें और जो चीजें कही जानी चाहिए उसे कहा जाए. जैसे मिसाल के तौर पर, नाकोहस को लीजिए. असल में नाकोहस नाम की कोई संस्था तो है नहीं. लेकिन जो पूरा माहौल आपने बना दिया है कि आपसे बात करते समय मेरे मन में हल्की-सी चिंता यह है कि मेरे मुंह से कुछ ऐसा तो नहीं निकल रहा कि जिसकी वजह से कल मुझे पकड़कर ठोक दिया जाए कि हमारी भावनाएं आहत हुई हैं. क्या आज यह डर हमारे मन में नहीं है? यह बात मैं औपचारिक-अनौपचारिक, हर रूप में कहना चाहता हूं कि क्या ये सच नहीं है कि किसी भी चीज पर बात करते समय आज स्थिति ये हो गई है कि आप आसपास देख लेना चाहते हैं कि कोई ऐसा व्यक्ति तो नहीं सुन रहा जिससे खतरा हो. असहमति व्यक्त करने में डर लग रहा है. यह स्वस्थ समाज का लक्षण नहीं है, जहां आपको अपनी आवाज से डर लगे. चैनलों की इसमें अहम भूमिका है. बुद्धिजीवियों को आप अपराधी घोषित करके, उन्हें राक्षस बताकर आप जो कर रहे हैं, वो कितना खतरनाक है यह बात कोई नहीं कहता. इसीलिए दुख है कि जो कहा जाना चाहिए वो बिल्कुल नहीं कहा जा रहा है. इसीलिए मैंने यह उपन्यास लिखा है. मुझे नहीं पता कि यह उपन्यास, उपन्यास की दृष्टि से कैसा है, लेकिन एक लेखक के तौर पर अनुभव करता हूं कि कहीं न कहीं लोगों ने उसे खुद से जुड़ा पाया है और वे सिर्फ इसलिए नहीं जुड़े रहे हैं कि वह डर का एक सपाट चित्र प्रस्तुत करता है, बल्कि इसलिए जुड़ाव महसूस करते हैं कि उपन्यास के उन तीन बुद्धिजीवी चरित्रों की मानवीयता, संवेदनशीलता, मन, उनके अंतर्विरोध ये सारी चीजें कहीं न कहीं लोगों से जुड़ती हैं. यह इसलिए भी कि जिस डर को उपन्यास फैंटेसी या कल्पना के रूप में रच रहा है, वह डर लोगों के मन में कहीं न कहीं मौजूद है.

इसी से जुड़ी एक और बात लेखकों की भूमिका को लेकर है कि पहले तीन बुद्धिजीवियों की हत्या, फिर कई को धमकी और हमले, जेएनयू व अन्य विश्वविद्यालयों की घटनाएं हुईं. ऐसे में क्या मानते हैं कि लेखक उस भूमिका में नहीं हैं जिसमें उन्हें होना चाहिए?

नहीं, ऐसा मैं नहीं मानता. लेखक की भूमिका यह नहीं है कि वह हर जगह सीधा हस्तक्षेप करेगा. कुल मिलाकर मुझे लगता है कि सभी भाषाओं के लेखकों ने अपनी बात कही. विरोधस्वरूप पुरस्कार भी लौटाए. जिन लेखकों ने पुरस्कार नहीं लौटाए, उनकी प्रतिबद्धता पर भी मैं संदेह नहीं करता. मिसाल के तौर पर राजेश जोशी और अरुण कमल ने नहीं लौटाया. काशीनाथ सिंह ने लौटाया, नामवर सिंह ने नहीं लौटाया, इससे नामवर सिंह और अरुण कमल कम लोकतांत्रिक नहीं हैं. न उनकी चिंताएं कम प्रामाणिक हैं. पिछले दो-तीन साल में बुद्धिजीवियों और लेखकों ने जैसी भूमिका निभाई है, वह उम्मीद की बड़ी किरण है. आप लेखक से ये उम्मीद मत कीजिए कि वह जाकर किसी पुलिस बंदोबस्त से टकराए, लाठी खाए और जेल जाए. लेखक का बतौर लेखक वह सब कहना मायने रखता है जो कहा जाना चाहिए.