लोढ़ा समिति की सिफारिशें लागू होतीं तो अनुराग ठाकुर कभी बीसीसीआई के अध्यक्ष नहीं बन पाते : आदित्य वर्मा

Adiy

आदित्य वर्मा के बारे में शायद कम ही लोग जानते हों लेकिन यही वे शख्स हैं जो पिछले लगभग दो साल से भारतीय क्रिकेट में मची हलचल का कारण रहे. सुप्रीम कोर्ट में लगाई इनकी ही याचिका के बाद भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) से एन. श्रीनिवासन की छुट्टी हुई जिनके सामने बोर्ड में मौजूद हर व्यक्ति का कद बौना नजर आता था. जस्टिस आरएम लोढ़ा समिति की वह रिपोर्ट जिसने बीसीसीआई को जड़ों तक हिला डाला है, आदित्य वर्मा द्वारा सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई एक याचिका का ही परिणाम है. बीसीसीआई के साथ आदित्य वर्मा की अदावत पुरानी है, वे 2007 से ही बिहार में क्रिकेट को बेहतर दर्जा दिलाने के लिए बोर्ड के साथ मुकदमे लड़ रहे हैं. अपनी इस लड़ाई को वे उस मुकाम तक ले गए जिसने सिर्फ बोर्ड की अंदरूनी राजनीति का ही नजारा नहीं बदला बल्कि भारतीय क्रिकेट में एक नए युग की शुरुआत की नींव भी रख दी है. इंतजार है तो बस सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के आने का जहां वह जस्टिस लोढ़ा समिति की सिफारिशों पर अपना रुख स्पष्ट करेगा. लोढ़ा समिति की सिफारिशों, उन्हें लागू करने में बोर्ड की आनाकानी, बोर्ड की कार्यप्रणाली, अंदरूनी राजनीति, देश में क्रिकेट के विकास और बिहार में क्रिकेट के हालातों को लेकर क्रिकेट एसोसिएशन आॅफ बिहार (कैब) के सचिव आदित्य वर्मा से बातचीत.

लोढ़ा समिति की सिफारिशों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनाए सख्त रवैये के बीच नवनिर्वाचित बीसीसीआई अध्यक्ष अनुराग ठाकुर का बयान आया है कि ये सिफारिशें व्यावहारिक नहीं हैं?

उन्हें कहने दीजिए, सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है. जल्द ही फैसला हो जाएगा. उन्हें लगता है कि व्यावहारिक नहीं हैं और हम कहते हैं कि भारतीय क्रिकेट में फैले प्रशासनिक भ्रष्टाचार को दूर करने, खेल की लोकप्रियता देश के हर कोने तक पहुंचाने और क्रिकेट में सुधार लाने के लिए लोढ़ा समिति की सिफारिशों को मानना आवश्यक है. भारतीय क्रिकेट पर पिछले कुछ समय में लगे दागों से भद्रजनों के इस खेल की जो भद्द पिटी है, उससे उबरना है तो इन सिफारिशों को लागू करना ही होगा.

बोर्ड के वे कौन प्रभावशाली लोग हैं जिनके हित लोढ़ा समिति की सिफारिशें लागू करने में आड़े आ रहे हैं?

लोढ़ा समिति द्वारा सुप्रीम कोर्ट में पेश रिपोर्ट में कुछ अति महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जैसे- किसी भी बोर्ड पदाधिकारी की उम्र 70 साल से अधिक न हो, सरकार में मंत्री या सरकारी अधिकारी बोर्ड में कोई भी पद ग्रहण नहीं कर सकते, एक व्यक्ति एक ही पद पर रह सकता है यानी कि वह या तो अपने राज्य क्रिकेट संघ का प्रतिनिधित्व कर सकता है या फिर बोर्ड का. और सबसे बड़ी बात, अगर कोई व्यक्ति किसी भी पैनल के तहत किसी भी कोर्ट में चार्जशीटेड है, उसके बोर्ड में दखल पर पाबंदी है.

अब जरा समझिए बोर्ड के कामकाज का वर्तमान तरीका. अनुराग ठाकुर जो हाल ही में बोर्ड अध्यक्ष बने हैं, भारतीय ओलंपिक संघ के भी उपाध्यक्ष हैं, हिमाचल प्रदेश क्रिकेट संघ (एचपीसीए) के भी अध्यक्ष हैं और एचपीसीए स्टेडियम निर्माण घोटाले में उन पर अदालत में चार्जशीट भी दाखिल हो चुकी है. लोढ़ा समिति की सिफारिशें लागू होतीं तो अनुराग कभी बोर्ड अध्यक्ष नहीं बन पाते. ऐसे ही कई ‘कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ वाले लोग बोर्ड में विभिन्न पदों पर बैठे हुए हैं. लोढ़ा समिति की सिफारिशें उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देंगी.

ऐसा माना जाता है कि बीसीसीआई में फैसले बंद कमरे में होते हैं. आप बोर्ड पदाधिकारियों के करीब रहे हैं, आपको इसमें कितनी सच्चाई जान पड़ती है?

दस मई को लोढ़ा समिति की सिफारिशों पर सुप्रीम कोर्ट में बहस हुई और शाम को शशांक मनोहर ने इस्तीफा दे दिया. कोर्ट को सूचित भी नहीं किया. ठीक 11 दिन बाद अनुराग ठाकुर अध्यक्ष पद पर विराजमान हो गए. यह सब बंद कमरे में नहीं तो कहां हुआ? बीसीसीआई कहने को तो विश्व का सबसे अधिक प्रभावशाली क्रिकेट बोर्ड है. लेकिन उसका कामकाज चंद लोगों की मुट्ठी में है. महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण फैसला बंद कमरे में हो जाता है, जिसमें न कोई पारदर्शिता होती है और न जवाबदेही. शशांक मनोहर ने अध्यक्ष बनते समय बोर्ड के कार्यों में पारदर्शिता लाने और भ्रष्टाचारमुक्त माहौल बनाने की बातें कही थीं. पर ऐसी पारदर्शिता लाए कि बिना किसी जवाबदेही के आईसीसी निकल लिए, बीसीसीआई को मंझधार में छोड़कर. क्योंकि सिफारिशें उनके गले की फांस भी बन सकती थीं तो उन्होंने सेफ जोन में रहना चुना. सचिव अनुराग ठाकुर ने स्पेशल जनरल मीटिंग (एसजीएम) बुलाई और खुद अध्यक्ष बनकर बैठ गए. एसजीएम से पहले नियमानुसार उन्होंने बोर्ड मेंबर के साथ एक मीटिंग लेना भी जरूरी नहीं समझा.

लोढ़ा समिति की सिफारिशों को अगर सुप्रीम कोर्ट हरी झंडी दिखाती है तो क्या अनुराग ठाकुर के लिए अध्यक्ष पद पर बने रहना मुश्किल होगा?

बिल्कुल मुश्किल होगा. उनका निर्वाचन संकट में आ सकता है. सबसे पहले तो यह कि वो चार्जशीटेड हैं और बोर्ड ने सिफारिशों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जो अपना जवाब पेश किया है उसमें हर सिफारिश का विरोध किया है लेकिन चार्जशीट वाले मसले पर चुप्पी साध ली है. कानूनी भाषा में इसे ऐसे देखा जाता है कि अगर आप किसी चीज पर एेतराज नहीं जता रहे तो मतलब आप उसे स्वीकार कर रहे हैं. एक तरह से देखा जाए तो बोर्ड ने इस सिफारिश का समर्थन किया. जब आप समर्थन करते हैं तो फिर आप अध्यक्ष कैसे बन गए? सवाल यह भी है.

सीधी-सी बात है कि अभी भी बोर्ड पदाधिकारियों द्वारा नियमों को तोड़-मरोड़ कर अपने हित में प्रयोग किया जाता है?

हां, मतलब जिस ‘कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ के चलते इतना बवाल मचा, वो हालात अभी भी बोर्ड में कायम हैं. अपने फायदे के लिए लोग काम कर रहे हैं.

एक बात यह भी निकलकर आती है कि बोर्ड 70-75 फीसदी सिफारिशों को मानने के लिए तैयार है. कह सकते हैं कि ये वही सिफारिशें होंगी जिनसे पदाधिकारियों के हित प्रभावित न हों?

वो क्या-क्या चाहते हैं, उससे हमको लेना-देना नहीं है. हम चाहते हैं कि लोढ़ा समिति की सिफारिशें पूरी तरह से लागू हों. इसके लिए हम सुप्रीम कोर्ट में मुस्तैद हैं. हमारे वकील इसी पर बहस करेंगे.

आपकी लड़ाई बिहार क्रिकेट को उसका हक दिलाने की मांग से शुरू हुई, बताएंगे कि बिहार क्रिकेट का पूरा विवाद क्या है?

1935 से बिहार क्रिकेट एसोसिएशन बीसीसीआई का पूर्ण सदस्य था. 1975-76 में बिहार की टीम ने रणजी ट्राॅफी का फाइनल भी खेला था. सुब्रतो बनर्जी, रमेश सक्सेना, रणधीर सिंह, सबा करीम बिहार से खेलकर ही भारतीय टीम का हिस्सा बने थे. बिहार के पटना में मोइन-उल-हक स्टेडियम है, 1996 विश्वकप के मैच यहां भी हुए थे. लेकिन दुर्भाग्यवश 2000 में राज्य का विभाजन हुआ और झारखंड राज्य बना.

अगर मुझसे पूछिए तो मैं ललित मोदी को दोषी नहीं मानता. अगर वे दोषी हैं तो उनके साथ 2004 से लेकर 2010 तक बोर्ड में जितने भी लोगों ने काम किया है, वे सारे लोग दोषी हैं

इसके बाद बिहार क्रिकेट एसोसिएशन का नाम बदलकर झारखंड राज्य क्रिकेट संघ कर दिया गया. 13 जिलों वाले झारखंड को बोर्ड की पूर्ण सदस्यता दे दी गई. बिना किसी नियम और कानून के जनसंख्या के लिहाज से देश के तीसरे सबसे बड़े राज्य बिहार को बाहर कर दिया गया. जबकि विभाजन उस समय उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का भी हुआ था. वे आज भी बोर्ड के पूर्ण सदस्य हैं, बस बीसीसीआई के दोमुंहे चरित्र के कारण बिहार के साथ पक्षपात किया गया. 6 करोड़ की आबादी वाले गुजरात में 3 रणजी टीमें हैं. महाराष्ट्र में चार पूर्ण सदस्य हैं, तीन रणजी टीम हैं. वहीं बिहार में एक भी रणजी टीम नहीं है.

अब रहा सवाल बिहार में कई एसोसिएशन होने का तो एसोसिएशन ऑफ बिहार क्रिकेट कीर्ति आजाद ने बनाया. राज्य विभाजन के बाद बिहार में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में बिहार क्रिकेट एसोसिएशन बनाया गया. 2007 में बिहार क्रिकेट एसोसिएशन के ही हम कुछ सदस्यों ने मिलकर बिहार क्रिकेट को उसका हक दिलाने की लड़ाई लड़ने के लिए क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार (कैब) का गठन किया. कैब के प्रतिनिधि के तौर पर मैंने पूरी लड़ाई लड़ी. फिर चाहे फुल मेंबरशिप का मसला हो या फिर आईपीएल में फैले भ्रष्टाचार और घोटालों का मामला हो.

मेरा एकमात्र उद्देश्य है कि बिहार के बच्चे जो हिंदुस्तान के इस सबसे लोकप्रिय खेल से कोसों दूर हैं, उन्हें भी इस खेल में अपना भविष्य संवारने का मौका मिले. उनका क्या गुनाह है? बिहार में वो पैदा हुए हैं, क्या यही गुनाह है? अगर वो बिहार में पैदा हुए भी हैं तो क्या उन्हें उनके राज्य और देश से खेलकर क्रिकेट में भविष्य तराशने का हक नहीं है? ये तो संवैधानिक अधिकारों का हनन है. जब बिहार के सांसद भारत सरकार की कैबिनेट में मंत्री हो सकते हैं तो क्या बिहार के बच्चे रणजी ट्राॅफी, आईपीएल और भारत के लिए नहीं खेल सकते? ये बोर्ड का दोहरा मापदंड है और मुझे देश की न्यायिक प्रणाली से पूरी उम्मीद है कि बिहार के साथ न्याय होगा और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद खेल के साथ हो रहे खिलवाड़ का अंत पूरी दुनिया देखेगी.

बीसीसीआई की बात करें तो वह पूरे देश में क्रिकेट के विकास की बात करता है लेकिन जैसा आपने बताया कि बिहार पूरी तरह विकास से वंचित है, उत्तर-पूर्वी भारत के राज्यों का भी कुछ ऐसा ही हाल है. ये कैसा विकास है?

देश में 31 राज्य हैं लेकिन बीसीसीआई के नक्शे पर भारत 20 राज्यों में ही बसता है. वहां के बच्चे ही घरेलू क्रिकेट खेलकर भारतीय टीम का हिस्सा बनते हैं. पूछे कोई इनसे कि बाकी राज्य क्या पाकिस्तान और श्रीलंका में जाकर क्रिकेट खेलेंगे? बोर्ड भारत की टीम बनाता है तो उसकी जवाबदेही है कि देश के हर राज्य के बच्चों को बराबर मौका दे.

मत भूलिए कि भारत को ओलंपिक में मेडल दिलाने वाली मैरीकॉम और सरिता देवी उत्तर-पूर्वी राज्यों से ही हैं. अगर वो भी बीसीसीआई के अंग रहते तो आज आप उनका नाम नहीं सुनते क्योंकि बीसीसीआई के लिए ये राज्य अछूत हैं, उन्हें लगता है कि राज्य देश के बाहर हैं.

बोर्ड के इन 11 राज्यों से कटे होने के पीछे आपको क्या कारण जान पड़ता है? आर्थिक कारण हैं, भौगोलिक कारण हैं या फिर स्थानीय कारण हैं?

पैसे का कारण है. पैसा ज्यादा बंटने लगेगा न. इन्हें डर है कि इनकी तिजोरी खाली हो जाएगी और इन राज्यों से राजस्व कम मिलेगा. लेकिन अब ज्यादा दिन ऐसा नहीं चलेगा. राज्यों को क्रिकेट विकास के नाम पर बोर्ड जो पैसा देता है उस पर अब सुप्रीम कोर्ट की नजर है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि पिछले पांच साल में 2200 करोड़ रुपये राज्यों को दिए गए. अब वो इसका हिसाब मांग रहा है कि ये पैसा कैसे और कहां खर्च हुआ. कितना क्रिकेट के विकास पर खर्च हुआ और कितना खुद के विकास पर. इनकी रातों की नींद उड़ गई है. एक राज्य को साल में 30-35 करोड़ रुपये क्रिकेट विकास के नाम पर बोर्ड देता है. उसमें क्या पारदर्शिता बरतता है और क्या उसकी जवाबदेही है? सुप्रीम कोर्ट इस पर सवाल खड़े कर चुकी है. इसलिए इंतजार कीजिए जुलाई में फैसला आने का. जब देश की गर्मी उतरेगी और बरसात का सुहाना मौसम शुरू होगा तब बीसीसीआई में भी एक सुहाना मौसम शुरू होगा और बीसीसीआई की गर्मी को सुप्रीम कोर्ट किस तरह ठंडा करती है ये देखिएगा जुलाई में.

आईपीएल विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में आपके द्वारा लगाई गई याचिका में आपकी मुख्य मांगें क्या थीं?

मेरा मांग तो सिर्फ ये थी कि आईपीएल में जो गड़बड़ी हुई है, उसको दबाया जा रहा है. श्रीनिवासन अपने दामाद को बचा रहे हैं, टीमों को बचा रहे हैं. यहां सुप्रीम कोर्ट को धन्यवाद देना चाहूंगा कि उसने श्रीनिवासन युग का तो अंत किया ही, फिर जब देखा कि बोर्ड में कितनी गंदगी भरी है तो इसके लिए लोढ़ा समिति का गठन कर इनके ‘कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’, फंड, फंक्शन, कार्यप्रणाली सबकी विस्तृत जांच करवाई.

मतलब सुप्रीम कोर्ट से आपने जो उम्मीद जताई थी उससे ज्यादा आपको मिला?

मुझे मिला कुछ नहीं है, बस एक आशा की किरण दिखाई पड़ी है. और मुझे व्यक्तिगत तौर पर कुछ नहीं मिलेगा. मिलेगा तो 11 राज्यों के उन वंचित बच्चों को जो चाहते हुए भी अपने राज्य या देश के लिए क्रिकेट नहीं खेल पा रहे हैं. जन्म से ही क्रिकेट टीवी में देखते हुए बड़े होते हैं और स्कूल, गली-मोहल्लों में खेलकर उनका क्रिकेट खत्म हो जाता है. क्योंकि बोर्ड कहता है कि इन राज्यों में क्रिकेट संस्कृति नहीं है और हम क्रिकेट नहीं कराएंगे. अब ये सब चीजें ठीक हो जाएंगी.

जब ललित मोदी पर खुलासा हुआ तो ऐसा माना गया कि भारतीय क्रिकेट की सारी समस्याओं की जड़ में वही थे, अब सब कुछ ठीक हो गया है. लेकिन आज हम देखते हैं कि चीजें तब से ज्यादा बिगड़ती जा रही हैं?

अगर मुझसे पूछिए तो मैं ललित मोदी को दोषी नहीं मानता. अगर वे दोषी हैं तो उनके साथ 2004 से लेकर 2010 तक बोर्ड में जितने भी लोगों ने काम किया है, वे सारे लोग दोषी हैं. वैसे भी ललित मोदी कभी भी बीसीसीआई के किसी बहुत ताकतवर पद पर नहीं थे. वे दो साल आईपीएल गवर्निंग काउंसिल के चेयरमैन जरूर रहे लेकिन अगर वे दोषी हैं तो गवर्निंग काउंसिल में उस समय उनके साथ काम करने वाले तमाम सदस्य भी दोषी हैं. आप ललित मोदी पर निशाना साधकर ईमानदारी की चादर ओढ़ लीजिएगा, ये चीज अब चलने वाली नहीं है. सबको दिख रहा है कि बीसीसीआई की असली दुर्दशा तो ललित मोदी के जाने के बाद ही हुई है.

क्या आप कहना चाहते हैं कि उस समय जितनी भी समस्याएं थीं उन्हें तात्कालिक तौर पर ललित मोदी के सिर पर थोपकर दिखाया गया कि सब कुछ सही है?

जी, ऐसा ही हुआ था.

टीवी पर विज्ञापन दिखाने को लेकर बीसीसीआई बिल्कुल अड़ गया है. वह लोढ़ा समिति की इस सिफारिश को मानने के लिए कतई तैयार नहीं कि मैच के दौरान केवल इंटरवल में विज्ञापन दिखाया जाए. बोर्ड का तर्क है कि वह ब्राॅडकास्टिंग अधिकारों के जरिए अपने राजस्व का एक बड़ा हिस्सा पाता है, जिसे क्रिकेट के विकास पर खर्च करता है. अगर विज्ञापन दिखाना बंद किया जाता है तो इससे राजस्व की कमी होगी और भारतीय क्रिकेट का विकास प्रभावित होगा.

वे लोग गलत तर्क दे रहे हैं. विज्ञापन स्लॉट बेचता कौन है? बोर्ड अपने हिसाब से स्लॉट बेचता है. क्रिकेट की लोकप्रियता को देखते हुए बोर्ड जो स्लॉट निर्धारित करेगा उस स्लॉट पर बिक्री होगी. इससे बीसीसीआई को कोई घाटा नहीं होगा. देखिए बाजार में जब आलू-प्याज गायब हो जाता है तो बीस रुपये किलो बिकने वाला आलू सौ रुपये किलो में बिकने लगता है. इसलिए स्लॉटिंग समय घटेगा तो दूसरे एंगल से समय मिलेगा. उसको आप मुंह मांगे दामों पर बेचिए. मान लीजिए तीन सौ करोड़ रुपये सालाना बेच रहे हैं तो 1000 करोड़ का भी बेचेंगे तब भी लोग कूद-कूदकर अपना टेंडर भरेंगे. ये सब धोखे में रखने का हथकंडा है. घाटे की बात तर्कहीन है.

आईपीएल को तो इस सिफारिश से बाहर रखा गया है, बोर्ड चाहे तो आईपीएल के ब्रॉडकास्टिंग अधिकार अपने हिसाब से बेचकर राजस्व की उगाही कर सकता है.

इनको पैसे की लत लग गई है. इनके मुंह में खून लग चुका है और इनका एकमात्र उद्देश्य रह गया है कि किसी तरह मार्केटिंग करो, अपनी जेब भरो, तिजोरी भरो. आईपीएल तो अभी फिर से भारत के बाहर सितंबर में ही कराने जा रहे हैं. आईसीसी के कैलेंडर में 28 दिन तक कोई भी मैच नहीं है. बाकी राज्यों में क्रिकेट का विकास हो या नहीं हो, कोई मतलब नहीं है लेकिन अब इस बात की खुशी है कि सुप्रीम कोर्ट इनके प्रशासनिक ढांचे में दखल दे चुका है इसलिए अब इनकी जो हेकड़ी है वो ज्यादा दिन तक नहीं चलने वाली.

राज्य क्रिकेट संघों द्वारा लोढ़ा समिति की सिफारिशों पर आपत्ति जताने के पीछे क्या कारण दिखाई देता है?

उनको जताने दीजिए न. जिनका पैसा जाएगा, जो लोग दशकों से राज्य क्रिकेट संघों में जमे हुए हैं, उनकी तो दुकान बंद हो रही है तो क्यों नहीं आपत्ति जताएंगे? मेरे पूछने का मतलब है कि वे एक तरफ तो बोर्ड को सोसाइटी बताते हैं और दूसरी तरफ उसको अपनी दुकान की तरह चला रहे हैं. हिंदुस्तान में अच्छे लोगों की कमी नहीं है जो बीसीसीआई को अच्छे ढंग से चला सकें. इंतजार कीजिए ये लोग जाएं, अभी बहुत अच्छे-अच्छे लोग तैयार बैठे हैं बीसीसीआई को और ऊंचाई तक ले जाने के लिए.

बार-बार बीसीसीआई खुद के सोसाइटी होने की दुहाई देकर सिफारिशों को लागू करने से बचने का रास्ता ढूंढ़ता है, उसका तर्क कहां तक सही है?

जब हमारी लगाई याचिका से बोर्ड मुंबई में हारा, तभी से ये लोग यह बात कह रहे हैं. अगर ऐसा ही होता तो एक निर्वाचित अध्यक्ष श्रीनिवासन को सुप्रीम कोर्ट ने कैसे बाहर का रास्ता दिखा दिया! उनको जो कहना है कहने दीजिए, बाकी इंतजार कीजिए अगले आदेश का. बोर्ड किसी की निजी संपत्ति या दुकान नहीं है. अब वे कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट वाले लोग कितने ही बहाने बनाएं, जल्द ही पतली गली से अपने घर निकलेंगे.

देश में जब यूपीए की सरकार थी तब खेल मंत्री अजय माकन ने भी बोर्ड की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता लाने और उसे आरटीआई के दायरे में लाने की वकालत अपने  ‘खेल बिल’  में की थी, तब भी बोर्ड के बड़े प्रशासनिक खिलाड़ियों ने इसका जमकर विरोध किया था. बात तो ये लोग करते हैं कि बोर्ड में सब ठीक चल रहा है, जब सब ठीक है तो फिर इन्हें आरटीआई से क्या समस्या है?

आरटीआई और कैग से समस्या इसलिए है कि बोर्ड की प्रशासनिक गतिविधियों में पारदर्शिता और जवाबदेही का अभाव है. पैसे के लेन-देन में हेर-फेर है. मुंह मांगा पैसा दिया जाता है, कोई हिसाब-किताब नहीं है कि पैसा सही जगह पर जाता है या किसी की जेब में जाता है, तिजोरी में जाता है या फिर बैंक लॉकर में जाता है. तो जब इस सबकी जानकारी बाहर आएगी तो बहुतों की रातों की नींद उड़ जाएगी, बहुतों को जेल की भी हवा खानी पड़ेगी.

ऐसा कहा जाता है कि बोर्ड की राजनीति में दखल रखने वालों ने श्रीनिवासन को अपने रास्ते से हटाने के लिए आपको मोहरा बनाकर इस्तेमाल किया?

देखिए, जब हम अपने बिहार के क्रिकेट की लड़ाई लड़ते-लड़ते श्रीनिवासन के कनफ्लिक्ट आॅफ इंटरेस्ट तक आ गए,  उनके दामाद गुरुनाथ मयप्पन के गिरफ्तार होते ही जैसे-जैसे लड़ाई हमारे पक्ष में होती गई तो शशांक मनोहर सहित वर्तमान में बीसीसीआई में जितने भी लोग हैं मेरे करीब आते गए. किसी ने मुझे समय पर पेपर मुहैया कराया तो किसी ने कानूनी सलाह देने में मेरी मदद की तो किसी ने बोर्ड से जुड़े अहम दस्तावेज मुझे मुहैया कराए. मुझे यहां तक कहा गया कि श्रीनिवासन के जाने के बाद कैब को बिहार में क्रिकेट के संचालन की कमान सौंप दी जाएगी. लेकिन हुआ ठीक उल्टा. श्रीनिवासन तो चले गए, इनका रास्ता साफ हो गया. लेकिन उसके बाद ये लोग मेरे पीछे लग गए. मुझे रास्ते से हटाने लगे. अपने हित साधकर मेरी पीठ में छुरा घोंपा.

बिहार क्रिकेट को उसका हक दिलाने की लड़ाई लड़ने के लिए कैब का गठन किया. मेरा एकमात्र उद्देश्य है कि बिहार के बच्चे जो इस लोकप्रिय खेल से कोसों दूर हैं, उन्हें भी भविष्य संवारने का मौका मिले

मतलब इन लोगों ने आपके जरिए अपना रास्ता साफ कर लिया जब आप इनके किसी काम के नहीं रहे तो आपसे किनारा कर लिया?

अब ये उनकी सोच होगी. मेरी तो ऐसी सोच नहीं थी. लेकिन एक इंसान होने के कारण मुझे तो बुरा लगा न. मैंने सब कुछ दांव पर लगाकर ईमानदारी से लड़ाई लड़ी और बीसीसीआई को साफ करने का बीड़ा उठाया. जब इन लोगों के हाथ में सत्ता आई तो ये लोग मुझे ही बाहर करने की तरकीबें खोजने लगे. रत्नाकर शेट्टी, जो बोर्ड कार्यालय के प्रशासनिक इंचार्ज हैं, उनके द्वारा मेरे कार्यालय में दाखिल होने पर पाबंदी लगा दी गई. फिर समझ आया कि श्रीनिवासन को हटाने में इनके हितों में टकराव हो रहा था. उनके रहते ये लोग खुलकर सांस भी लेना चाहें तो नहीं ले सकते थे. अब वो तो चले गए. उनके जाने का जरिया भगवान ने मुझे और देश की शीर्ष अदालत को बनाया. अब इन लोगों ने मुझे बाहर बैठाने का मन बना लिया.

उन्हें आपसे ऐसा क्या डर हो गया?

ये तो बेहतर वही बताएंगे. उनको लगता होगा कि जो इंसान घोटाले-भ्रष्टाचार में इतनी ईमानदारी से लड़ सकता है, अगर हमारे साथ रहेगा तो कभी हमारे खिलाफ मामला उजागर होने पर हमें भी नहीं छोड़ेगा. बाहर रहकर इतना सब कुछ किया, जब बोर्ड के अंदर साथ रहेगा तो सब सामने देखेगा कि क्या गड़बड़झाला चल रहा है, रोज लड़ाई करेगा. इसको अंदर नहीं आने दो और अंदर न आने देने का एक ही जरिया था कि कैब को मान्यता न देना.

बोर्ड में श्रीनिवासन के प्रभाव के चलते किसी पदाधिकारी की हिम्मत नहीं थी कि वह उनके विरोध में एक शब्द भी बोल सके फिर आप क्या सोचकर उनके खिलाफ मैदान में ताल ठोक बैठे?

मैंने श्रीनिवासन से ये सोचकर लड़ाई लड़ी कि उनके हटने के बाद से बोर्ड में एक व्यापक सुधार आ जाएगा. लेकिन ये मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी. जिस तरह रावण के दस सिर थे न, उसी तरह बीसीसीआई में लोग श्रीनिवासन से भी बड़े-बड़े कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट रखने वाले भरे पड़े हैं. एक श्रीनिवासन गया है, कई बाकी हैं. लेकिन मुझे उम्मीद है कि जिस तरह से रावण का अंत हुआ है उसी तरह से बीसीसीआई में व्याप्त भ्रष्टाचार का भी अंत होगा.

यदि लोढ़ा समिति की सिफारिशें लागू होती हैं तो देश में क्रिकेट में क्या बदलाव आने की आप अपेक्षा करते हैं?

पहला तो यह कि क्रिकेट वास्तव में भद्रजनों का खेल बनकर निकलेगा. दूसरा, झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले गरीब बच्चों को भी एक उचित प्लेटफॉर्म मिलेगा अपना हुनर दिखाने का. तीसरा, बीसीसीआई के नक्शे पर जो हिंदुस्तान 20 ही राज्यों में बसा है वो 31 राज्यों में बस जाएगा, जिससे देश का सबसे प्यारा खेल क्रिकेट वहां के बच्चे खेल पाएंगे और सचिन और कोहली बनने का अपना सपना पूरा कर सकेंगे.