प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गंगा नदी से शुरू हुआ विजय अभियान अब नर्मदा तक आ चुका है. अब वे देश की पांचवीं सबसे बड़ी नदी नर्मदा के सहारे अपने ही गढ़ गुजरात के नायक तो बन ही रहे हैं साथ महाराष्ट्र और राजस्थान को भी साधने की कोशिश रहे हैं. इस बात की पूरी संभावना है कि प्रधानमंत्री की यह कोशिश उनके लिए ‘अच्छे दिनों’ की बुनियाद बन जाए. लेकिन इसी के साथ यह तय है कि इन अच्छे दिनों की कीमत मध्य प्रदेश को अपनी 20,882, हेक्टेयर उपजाऊ जमीन और तकरीबन 45,000 हजार परिवारों के विस्थापन के साथ चुकानी होगी. पर्यावरण को जो अपूरणीय क्षति होगी सो अलग.
हाल ही में 12 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण (एनसीए) की एक बैठक हुई थी. इसी में गुजरात के केवड़िया स्थित सरदार सरोवर बांध पर 17 मीटर ऊंचे गेट लगाकर बांध की ऊंचाई 121.92 से 138.38 मीटर करने को मंजूरी दी गई है. इससे पहले यह मामला पिछले कई वर्षों से लंबित था. अब 2017 तक करीब 270 करोड़ रुपये की लागत से बांध पर 30 गेट लगेंगे. इसके बाद बांध की संग्रहण क्षमता 90 लाख घन फुट बढ़ जाएगी.
सरकार के इस फैसले पर कई बुनियादी सवाल उठाए जा रहे हैं. मसलन क्या वाकई सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने की जरूरत है? इससे किन लोगों को फायदा पहुंचेगा? सरदार सरोवर बांध किस राज्य के सौभाग्य के दरवाजे खोलेगा और किस के लिए बदहाली लाएगा? इन सब सवालों के जवाब जानने के लिए पहले सरदार सरोवर परियोजना, नर्मदा घाटी, राज्य सरकारों की मंशा और इससे जुड़े राजनीतिक नफा-नुकसान को समझना जरूरी है.
सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड की वेबसाइट के मुताबिक यह बांध अमेरिका के ग्रांड काउली के बाद दूसरा सबसे बड़ा कांक्रीट ग्रेविटी डैम (कांक्रीट से बना ऐसा बांध जो बहुत तेज बहाव आैैर अधिक मात्रा में पानी रोक सकता हैै) है. वहीं यह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा निर्वहन क्षमता (संग्रहण क्षमता) वाला बांध है. इसकी जलसंग्रहण क्षमता 5860 एमसीएम (मिलियन घन मीटर; एक मिलियन = दस लाख) है, जो 4.75 लाख एकड़ फुट (एक एकड़ के क्षेत्र में एक फुट ऊंचाई तक पानी = एक एकड़ फुट ) के बराबर है.
बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने की अनुमति मिलते ही गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने ट्वीट कर कहा था, ‘अच्छे दिन आ गए.’ लेकिन हकीकत इससे कुछ अलग है. दरअसल यह केवल गुजरात के अच्छे दिनों की शुरुआत है. मध्य प्रदेश के करीब ढाई लाख विस्थापितों, सैंकड़ाें स्कूलों, मंदिरों-मस्जिदों, हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन की कीमत पर गुजरात के अच्छे दिन लाए जा रहे हैं. इन बातों के विश्लेषण से पहले यह समझना महत्वपूर्ण है इस फैसले से गुजरात को क्या फायदा पहुंचेगा. असल में नर्मदा के दायरे में आने वाले गुजरात का 75 फीसदी इलाका संभावित सूखा प्रभावित क्षेत्र माना जाता है. बांध की ऊंचाई बढ़ने से गुजरात में नर्मदा के जल की उपलब्धता बढ़ेगी, इससे ये इलाके संभावित सूखा प्रभावित की श्रेणी से बाहर निकल आएंगे. सिंचाई के मामले में भी सबसे ज्यादा फायदा गुजरात को ही होना है. नर्मदा बांध के जरिए गुजरात की 18.45 लाख हैक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध हो सकेगा. इससे प्रदेश के 15 जिलों की 73 तहसीलों के 3112 गांवों को सिंचाई के लिए पानी मिलेगा. यह बांध भरूच के 210 गांवों को बाढ़ के खतरे से मुक्ति दिलाएगा. वहीं इसका पानी सौराष्ट्र की तस्वीर बदल देगा. सरदार सरोवर बांध का पानी सौराष्ट्र के 115 छोटे बांधों और जलाशयों में पहुंचेगा. औसत से भी कम वर्षा वाले सौराष्ट्र में साल भर बनी रहने वाली पानी की समस्या खत्म हो जाएगी. गुजरात के 151 शहरी और 9,633 गांवों (जो कि गुजरात के कुल 18,144 गांवों का 53 प्रतिशत है) को पीने का पानी उपलब्ध होगा. बांध से पैदा होने वाली 1,450 मेगावॉट बिजली में से 16 फीसदी बिजली भी गुजरात को मिलेगी. यानी गुजरात की चांदी ही चांदी. इसके ठीक उलट मध्य प्रदेश को सिवाय 877 मेगावॉट बिजली के कुछ नहीं मिलेगा. यह सही है कि मध्य प्रदेश बिजली संकट से जूझ रहा है. उसे अतिरिक्त बिजली की जरूरत है. लेकिन प्रदेश में सूखाग्रस्त इलाकों, सिंचाई के पानी की कमी, पेयजल समस्या भी विद्यमान है. इस परियोजना में मध्य प्रदेश के सूखाग्रस्त इलाकों की पूरी तरह अनदेखी की गई है. सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड की वेबसाइट में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि मध्य प्रदेश को सिंचाई के लिए कितना पानी मिलेगा. जबकि पूरी परियोजना ही प्रदेश के विस्थापितों की कीमत पर खड़ी हो रही है.
अब जानते हैं कि सरदार सरोवर बांध परियोजना से मध्य प्रदेश को क्या नुकसान है. मध्य प्रदेश के एक कस्बे धरमपुरी (जिला धार) समेत 193 गांव जलमग्न होने की कगार पर हैं. सूबे की करीब 20,882 हेक्टेयर जमीन डूब क्षेत्र में आ रही है. 2001 की जनगणना के मुताबिक तीनों राज्यों के 51,000 परिवारों को प्रभावित माना गया था, जिनकी संख्या 2011 की जनगणना में बढ़कर 63,000 हजार हो गई है. इनमें अकेले मध्यप्रदेश से 45,000 हजार परिवार हैं. इन परिवारों में अधिकांश आदिवासी, छोटे-मझोले किसान, दुकानदार, मछुआरे, कुम्हार हैं, जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करते हैं.
वैसे बांध ऊंचाई बढ़ाने पर एक तकनीकी पेंच भी है. बांध की ऊंचाई बढ़ाने से जुड़े एक मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साल 2000 में कहा था कि निर्माण के पहले सभी विस्थापितों का उचित पुनर्वास होना चाहिए. लेकिन यह अभी तक संभव नहीं हो पाया हैै. मध्य प्रदेश के लिए चिंता की एक बात यह भी है कि नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण के दिसंबर 1979 के पारित निर्णय के मुताबिक वर्ष 2024 तक प्रदेश को 29 बड़े, 135 मध्यम और तीन हजार छोटी सिंचाई परियोजनाएं पूरी करनी हैं. यदि प्रदेश निर्धारित अवधि में अपने हिस्से के नर्मदा जल का उपयोग नहीं कर पाया तो उसे जल उपयोग के इस अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा. मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अरुणा यादव बताते हैं, ‘ मध्यप्रदेश सरकार नर्मदा सिंचाई परियोजनाओं को लेकर बिलकुल गंभीर नहीं है. अभी तक केवल 10 बड़ी परियोजनाएं पूरी हुई हैं. दो पर काम चल रहा है, जबकि 17 पर काम शुरू ही नहीं हो पाया है.’
जिस गुजरात को परियोजना से सबसे ज्यादा फायदा मिलने वाला है, उसके केवल 19 गांव डूब क्षेत्र में आ रहे हैं. कुल 9,000 हेक्टेयर जमीन प्रभावित हो रही है. जबकि महाराष्ट्र के 22 गांव और करीब 9,500 हेक्टेयर वन भूमि परियोजना से प्रभावित हो रही है. परियोजना का लंबे समय से विरोध कर रही नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं का आरोप है कि केवल 30 परिवारों को पुर्नवास के लिए जमीन मिल पाई है जबकि करीब 3,000 परिवारों को जमीन देने की प्रक्रिया भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई. इन परिवारों को हक से वंचित करने के लिए फर्जी रजिस्ट्रियों का सहारा लिया गया. नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं का यह भी आरोप है कि सरकारी अफसरों ने दलालों के साथ मिलकर हजारों फर्जी रजिस्ट्रियां कर डालीं. इन आरोपों की जांच के लिए 2008 में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने जस्टिस एसएस झा आयोग का गठन किया. आयोग की जांच अभी जारी है. आयोग जिन बिंदुओं पर जांच कर रहा है उनमें फर्जी रजिस्ट्रियों की जांच की जा रही है. जिन परिवारों को अभी तक जमीन नहीं मिली है आयोग उस पर भी तथ्य इकट्ठे कर रहा है. साथ ही आजीविका शुरू करने के लिए दी गई राशि में भी हुए भ्रष्टाचार और पुनर्वास क्षेत्रों के स्तरहीन निर्माण कार्यों और अधिक खर्च कर दी गई राशि जैसे बिंदु भी जांच में शामिल हैं. आयोग की रिपोर्ट अक्टूबर, 2014 तक आने की संभावना है.
[box]ऊंचाई 260 से 455 फीट तक पहुंचने का सफर
- फरवरी 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने बांध की ऊंचाई 80 मीटर (260 फीट) से 88 मीटर (289 फीट) करने की अनुमति दी
- अक्टूबर 2000 में फिर से सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को ऊंचाई 90 मीटर (300) करने की अनुमति
- मई 2002 में नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण ने बांध की ऊंचाई 95 मीटर (312 फीट) करने के प्रस्ताव को अनुमोदित किया.
- मार्च 2004 में प्राधिकरण ने ऊंचाई110 मीटर (360 फीट) करने की अनुमति दी
- मार्च 2006 में प्राधिकरण ने बांध की ऊंचाई 110.64 मीटर (363 फीट) से 121.92 (400 फीट) करने की अनुमति दी. प्राधिकरण द्वारा ये अनुमति वर्ष 2003 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बांध की ऊंचाई और बढ़ाने की अनुमति देने से इंकार करने के बाद दी गई थी.
- जून 2014 में प्राधिकरण ने ऊंचाई 455 फीट (138 मीटर) करने की अनुमति दी [/box]
मध्य प्रदेश के पूर्व सिंचाई मंत्री डॉ रामचंद्र सिंहदेव कहते हैं कि सरदार सरोवर बांध समेत नर्मदा घाटी में जितनी भी परियोजनाओं पर काम हो रहा है, ये सभी गलत आंकड़ों पर आधारित हंै. वे बताते हैं, ‘जिस वक्त नर्मदा घाटी में नई परियोजनाओं की शुरुआत की गई, उस वक्त लिए गए आंकड़े अंग्रेजों द्वारा पुरानी पद्धति से संग्रहित किए गए थे. ब्रिटिश हुकुमत बारिश के पानी (रेन वॉटर गेज) के आधार पर नदियों में उपलब्ध जल के आंकड़े इकट्ठे करती थी. उनके मुताबिक नर्मदा में 27 एमएएफ (मिलियन एकड़ फुट) पानी था. जबकि बाद में नई पद्धति (रिवर गेजिंग स्टेशन) से आए आंकड़े बताते हैं कि नर्मदा में केवल 23.7 एमएएफ पानी है यानी जो भी परियोजनाएं बनाई गई, उनका आधार ही गलत था. मध्य प्रदेश सरकार ने कई बार नर्मदा के पानी की उपलब्धता को लेकर सवाल उठाए, लेकिन हमारी कभी नहीं सुनी गई. दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि पूरी नर्मदा घाटी भूंकप प्रभावित है. बड़े बांध बनने से यह खतरा कई गुना बढ़ गया है.’
नया नहीं है विवाद
नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध परियोजना की अधिकारिक घोषणा 1960 में हुई थी और 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसकी आधारशिला रखी. तभी से यह परियोजना विवादों में फंसी हुई है. शुरुआती कई सालों तक तो परियोजना से जुड़े हुए तीनों राज्यों (मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र) में जल बंटवारे को लेकर आपसी सहमति नहीं बन पाने से परियोजना अटकी रही. 1979 में यह मामला नर्मदा जल विवाद प्राधिकरण में पहुंचा जहां तीनों राज्यों में सहमति बनी और1990 के दशक में विश्व बैंक ने परियोजना के लिए ऋण देने का फैसला लिया. लेकिन डूब प्रभावित लोगों ने नर्मदा बचाओ आंदोलन के तहत परियोजना का विरोध करना शुरू कर दिया. 1991-1994 में पहली बार विश्व बैंक ने किसी परियोजना की समीक्षा करने के लिए अपनी एक उच्च स्तरीय समिति बनाई. जिसने अपनी पड़ताल में यह पाया कि परियोजना से होने वाली पर्यावरणीय क्षति की पूर्ति नहीं की जा सकती इसलिए उसने परियोजना को वित्त उपलब्ध कराने से इनकार कर दिया. इधर नर्मदा बचाओ आंदोलन के समर्थकों ने सुप्रीम कोर्ट में निर्माण रोकने के लिए जनहित याचिका लगा दी. वर्ष 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर फैसला देते हुए कहा कि बांध उतना ही बनाया जाना चाहिए, जहां तक लोगों का पुर्नस्थापन और पुनर्वास हो चुका है. परियोजना का विरोध कर रहा नर्मदा बचाओ आंदोलन शुरू से ही आरोप लगा रहा है कि ना तो परियोजना में पर्यावरणीय क्षति का ध्यान रखा गया ना ही विस्थापितों को उचित पुनर्वास मिल पा रहा है. अब फिर बांध की ऊंचाई बढ़ाई जा रही है, और एक बार फिर परियोजना विवादों में आ गई है. मध्य प्रदेश के धार, बडवानी, निमाड़ के कई इलाके और झाबुआ के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थानीय रहवासी सड़कों पर उतरकर बांध की ऊंचाई बढ़ाने का विरोध कर रहे हैं.
सरदार पटेल की प्रतिमा से शुरु हो चुकी थी भूमिका
तहलका की तेवरदार अच्छी स्टोरी के लिए बधाई। ये बात सही है कि विस्थापितों का पुनर्वास होना चाहिए, क्योंकि जिसका घर उजड़ता है वहीं जानता है इस मर्म को। फिर डूब में आने का मतलब है, विरासत की जल समाधि। ऐसी ही समाधि हमने हरसूद के दौरान नजदीक से देखी है। शुभकामनाओं सहित