‘गंगा को लेकर रोमांटिक नजरिया छोड़ना होगा, अगर उसे बुखार है तो ब्यूटी पार्लर ले जाने की जरूरत नहीं’

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गंगा को लेकर हर कुछ दिन पर कोई न कोई बात होती रहती है. कुछ दिनों पहले केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने गंगा में जल परिवहन को फिर से शुरू करने के लिए योजनाओं का एक खाका पेश करते हुए संसद में बताया था कि उन्होंने पूरी तैयारी कर ली है, देखिएगा गंगा में कैसे सरपट जहाज दौड़ाएंगे. उसके कुछ दिनों पहले केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने कहा था कि वे संकल्प ले चुकी हैं कि गंगा को साफ करके ही रहेंगी और नदियों को जोड़कर भी दिखाएंगी. इन दोनों केंद्रीय मंत्रियों के बीच में गंगा का एक बड़ा सवाल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से भी टकराया, जब वे कानपुर गए तो किसी ने गंगा में बढ़ते प्रदूषण का सवाल उठा दिया. अखिलेश यादव गंगा के पचड़े में नहीं पड़े, सवाल को मुस्कुराकर टाल गए. अखिलेश यादव तो गंगा प्रदूषण के सवाल को हंसकर टाल गए, लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले दिनों नदियों पर एक अहम घोषणा की. उन्होंने तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद ऐलान किया है कि वे बिहार में रिवर स्टडी एंड रिसर्च सेंटर की शुरुआत करेंगे.

आजादी के बाद से ही गंगा पर ऐसी ही बातें होती रही हैं. 1985 से, जब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान जैसी महत्वाकांक्षी योजना की शुरुआत की, तब से तो खैर गंगा प्रयोगशाला ही बन गई. तमाम तरह के प्रयोग करने की प्रयोगशाला, तमाम तरह की खयाली योजनाएं बनाने की प्रयोगशाला और गंगा के बहाने अपनी-अपनी गंगा बहाने के लिए तमाम योजनाओं की घोषणा करने-करवाने की प्रयोगशाला. लेकिन गंगा दिन पर दिन बद से बदतर होती जा रही है. अब गंगा पर एक बार फिर चर्चाएं गरम हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी महत्वाकांक्षी योजना ‘नमामि गंगे’ को मूर्त रूप देने की शुरुआत की है. प्रधानमंत्री ने कई विभागों को गंगा के साथ जोड़ने की पहल की है. मानव संसाधन, जहाजरानी, पर्यटन, जलसंसाधन और भी कई मंत्रालयों को इस आशय का आदेश मिला है. मानव संसाधन मंत्रालय को आदेश मिला है कि वह नदियों को विशेषकर गंगा को ध्यान में रखकर किसी बेहतर संस्थान की शुरुआत करे, जहां नदियों का अध्ययन-अध्यापन हो सके. स्कूलों और कॉलेजों में नदियों के बारे में पढ़ाई भी हो.
संभव है, यह सब होगा, क्योंकि सीधे पीएम का आदेश है, लेकिन सवाल यह है कि इसका नतीजा क्या निकलेगा? क्योंकि इतनी ही सरगर्मी राजीव गांधी ने भी अपने जमाने में दिखाई थी. वे 1984 में प्रधानमंत्री बने थे और उनकी भी सबसे महत्वाकांक्षी योजना गंगा को बचाने की थी. उस योजना के शुरू होकर खत्म हुए 30 साल से अधिक हो गए लेकिन गंगा साफ नहीं हो सकी. सीवर ट्रीटमेंट प्लांट ने बनारस के दीनापुर गांव जैसे कई गांवों को जन्म जरूर दिया, जहां कई किस्म की बीमारियों वाले लोग निवास करते हैं. कानपुर जैसे शहर के आसपास मानक से डेढ़ हजार गुणा क्लोरोफॉर्म की मात्रा गंगाजल में जरूर बढ़ी. गाजीपुर से लेकर बक्सर तक आर्सेनिक पट्टी का निर्माण जरूर हुआ. पटना में, गंगा कई किलोमीटर दूर जरूर चली गई और झारखंड के राजमहल से लेकर फरक्का तक कई गांव साल-दर-साल गंगा में विलीन होते गए. इस बीच पूर्व की मनमोहन सिंह की सरकार को लगा कि वे बीच में गंगा पर कुछ भी नया करने से चूक रहे हैं तो उन्होंने 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा देकर खुद के कार्यकाल को भी गंगासेवी कार्यकाल के रूप में चर्चा दिला दी.
एक बार फिर ‘नमामि गंगे’ पर जोर-शोर से होती चर्चा को केंद्र में रखकर और गंगा के मौजूदा हालात पर हमने यूके चौधरी से एक लंबी बात की. प्रो. चौधरी आईआईटी मुंबई से रिवर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद करीब तीन दशक से अधिक समय तक आईआईटी बीएचयू में रिवर इंजीनियरिंग के प्रोफेसर और सिविल इंजीनियरिंग विभाग के अध्यक्ष रहे हैं. उन्होंने बीएचयू में गंगा रिसर्च सेंटर की स्थापना भी की थी. तीन दशक पहले ‘गंगा’ नाम से पत्रिका निकालकर लोगों को गंगा के हालात भी बताते रहे हैं. ‘गंगा और मानव शरीर’ नाम से उनकी चर्चित पुस्तक है, जिसमें गंगा के मार्फोलॉजिकल और एनोटॉमिकल पक्ष को उन्होंने सहज भाषा में विस्तार से समझाया है. इनके द्वारा प्रतिपादित ‘फाइव थ्योरी ऑफ रिवर’ दुनिया भर में चर्चित रही है. फिलहाल वे बनारस में रहते हैं और महामना इंस्टीट्यूट ऑफ रिवर टेक्नोलाॅजी एंड मैनेजमेंट नामक संस्थान की स्थापना कर गंगा के अध्ययन में लगे हैं. प्रसिद्ध नदीविज्ञानी प्रो. यूके चौधरी से निराला की बातचीत

‘नमामि गंगे’ का क्या हाल है? इस अभियान को शुरू हुए एक साल से ज्यादा हो गया, क्या असर दिख रहा है?
अभी तक ग्राउंड पर तो कुछ भी नहीं दिख रहा. जैसे सभी जगह शोर है, वैसे ही बनारस में भी शोर है. जैसे आप सुन रहे हैं, सभी सुन रहे हैं, वैसे मैं भी सुन रहा हूं लेकिन उम्मीद है कि मोदी जी कुछ करेंगे. वे महाशक्तिशाली और संकल्प वाले व्यक्ति हैं. वे बार-बार कहते भी रहे हैं कि वे खुद नहीं आए बनारस, मां गंगे ने उन्हें बुलाया था तो वे आए हैं.

‘निर्मल गंगा’, ‘अविरल गंगा’ के बाद नमामि गंगे प्रोजेक्ट शुरू हुआ. इसका कॉन्सेप्ट तो ठीक है न?
अभी क्या कहा जाए. गंगा पर कई प्रोजेक्ट देखे जा चुके हैं. अब इसका क्या होता है, यह अभी कहना ठीक नहीं. गंगा की मौलिकता ही उसकी विशिष्टता है, उसकी ताकत है. उसके एनाटमी-मार्फोलॉजी को समझना होगा. गंगा की मूल समस्याओं या चुनौतियों को समझने की कोशिश इसमें भी नहीं की जा रही. नमामि गंगे नाम हो या कुछ और, असल बात है कि हमें गंगा पर अतीत में किए गए तमाम प्रयोगों से सबक लेना होगा. भीमगौड़ा-नरौड़ा आदि बनाकर देख चुके हैं. हमने गंगा के उद्गम से 44 किलोमीटर दूरी पर टिहरी बनाया था. उसके लिए रिजर्वायर 44 किलोमीटर रखा. आज कितनी बिजली ले रहे हैं उससे? मात्र 750 मेगावाॅट. चीन ने भी उसी समय टीजीसी बनाया था. 660 किलोमीटर का रिजर्वायर रखा. वह 18 हजार मेगावाॅट बिजली का उत्पादन कर रहा है. नया कुछ करने के पहले हम गंगा पर अतीत में किए गए काम की समीक्षा कर भविष्य की योजना बनाएं तो गंगा का भला होगा, वरना नाम बदलने को और दाम वसूलने को तो जो भी आता है, तरह-तरह का प्रयोग करता ही रहता है.

‘बनारस में पंचगंगा, दशाश्वमेध, हरिश्चंद्र घाट आदि पर अंदर ही अंदर तेजी से कटाव हो रहा है. घाट के नीचे खोखलापन बढ़ रहा है. आप नोट कर लीजिए, आने वाले दिनों में कभी भी ये घाट गंगा में समा जाएंगे’

गंगा को लेकर तमाम नई योजनाओं की शुरुआत में दो ही केंद्र होते हैं, या तो उत्तराखंड का हिमालयी इलाका या बनारस. राजीव गांधी ने भी बनारस से ही गंगा एक्शन प्लान का शंखनाद किया था, मोदी ने भी नमामि गंगे की शुरुआत यहीं से की. सुना है कि बनारस में घाट वगैरह साफ रखे जा रहे हैं.
अजीब बात करते हैं. गंगा की समस्या घाटों की गंदगी है क्या? बनारस की बात कर रहे हैं, यहां तो अभी भी 17-18 नाले गंगा में सीधे गिर रहे हैं. घाटों की सफाई से क्या होगा? उसका एक महत्व हो सकता है लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं. बनारस में अगर कोई गंगा की बात करता है तो उसे थोड़ा सचेत हो जाना होगा, क्योंकि जिन घाटों को चकाचक किया जा रहा है, वही खतरनाक मुहाने पर पहुंच चुके हैं. अंदर ही अंदर खंडहर हो चुके हैं और किसी भी दिन ध्वस्त हो जाएंगे. तब घाटों की सफाई का क्या होगा. बनारस में गंगा की पहचान घाट ही हैं और घाट किसी दिन ध्वस्त हो जाएंगे, बनारस की पहचान गंगा में विलीन हो जाएगी.

यह कैसे? वजह क्या होगी?
यह कछुओं के नाम पर हुए खेल की वजह से होगा. बनारस में डेढ़ दो दशक पहले कछुआ सेंचुरी बनाया गया. अब ऐसी बेवकूफी कि बनारस शहर के सामने कछुआ सेंचुरी बना लिया गया. ऐसा होता है क्या? कछुआ सेंचुरी कहीं वीराने में बनाना था. सेंचुरी बनाया गया था तो 3000 कछुए छोड़े गए थे. अब तक तो 25-30 हजार कछुए हो गए होते! कहीं किसी को कछुए दिखते हैं क्या? मुझे तो कोई नहीं मिला जो बताए कि उसने कछुए का झुंड देखा कभी. कछुए वहां इंतजार नहीं कर रहे और कछुआ सेंचुरी वाले भी सूचना मांगने पर यह बताने की स्थिति में नहीं हैं कि सेंचुरी ने कितने कछुओं का संरक्षण या संवर्द्धन किया? कछुओं का तो नहीं पता लेकिन उसके नाम पर पिछले डेढ़-दो दशक से बनारस शहर के ठीक दूसरी ओर बालू का ढेर लगता जा रहा है. मालवीय पुल के पास तक बालू का ढेर बढ़ गया है. इसमें किसी वैज्ञानिक समझ की जरूरत नहीं. सामान्य आदमी भी जानता है कि एक ओर अगर बालू का अनवरत जमाव होगा तो दूसरी ओर पानी की गति तेज होगी, वह कटाव करेगा, क्योंकि दूसरी ओर धार को बढ़ने का मौका नहीं मिल रहा. उसका असर बनारस पर तेजी से पड़ रहा है. बनारस में पंचगंगा घाट, दशाश्वमेध घाट, हरिश्चंद्र घाट आदि के क्षेत्र में अंदर ही अंदर तेजी से कटाव हो रहा है. अंदर ही अंदर ग्राउंड वाटर का मिलान गंगा में होने लगा है. हम लोगों ने इन घाटों का अध्ययन किया है. वैज्ञानिक तरीके से देखा-समझा है. अभी इन घाटों पर कटाव के कारण दरारें दिख रही हैं लेकिन ये दरारें ऊपर से दिखने वाली हैं. अंदर ही अंदर घाट के नीचे खोखलापन बढ़ रहा है. गंगा का वेग बनारस शहर की ओर बढ़ता रहेगा और फिर आप नोट कर लीजिए, आने वाले दिनों में कब ये घाट गंगा में समा जाएंगे, कह नहीं सकते. रिवर इंजीनियर होने और इस क्षेत्र में चार दशक तक अध्ययन-अध्यापन के आधार पर मैं कह रहा हूं और इसके समर्थन में तथ्य भी बता रहे हैं कि 2025 तक या उससे पहले कभी भी बनारस में एक बड़ा हादसा होने वाला है.