कहने को तो आजादी को 65 साल बीत चुके हैं और हम चांद और मंगल पर जाने की तैयारी में हैं लेकिन ये सब बातें मेरे गांव के लिए महज किस्से-कहानियां भर हैं. दो पहाड़ी नदियों के संगम पर बसे गांव में अगर आज भी पीने का पानी मिलना दुस्वार हो तो उसके लिए भला किसे दोष दिया जाए? प्रशासन को दोष देना तो केवल एक रस्म ही रह गई है क्योंकि उसे दोष देने न देने से कोई फर्क नहीं पड़ता.
बीती गर्मियों (दिल्ली के लिए अभी बीती नहीं हैं क्योंकि वहां बारिश का मौसम आया ही नहीं) में मैं अपने गांव गया था. घर में शादी थी और हम पांच किलोमीटर दूर से नहर के जरिए पानी लाने की कोशिश में थे. नहर की दीवार तो कमजोर ही थी उस पर काई की मोटी परत भी पड़ गई थी. अचानक मेरा पांव फिसला और संभलते-संभलते भी न जाने क्या हुआ कि पांव में बुरी तरह मोच आ गई. पांव सूज गया.
सूजा हुआ पैर लेकर मैं घरवालों के साथ सरकारी अस्पताल पहुंचा लेकिन किस्मत ने शायद मेरी पूरी परीक्षा लेने की ठान ली थी. उस दिन पंचायत चुनाव का मतदान होने के कारण कोई भी वहां मौजूद नहीं था. आसपास के लोगों ने फ्रैक्चर होने की आशंकता जताकर हमें सदमें में डाल दिया.
केवल इस आशंका को दूर करने के लिए गाड़ी बुक कर 100 किमी दूर रानीखेत जाने की आशंका ने ही मेरा दिल दहला दिया क्योंकि इसमें समय और पैसा दोनों लगने थे. मुझे याद आया कि हाल ही में हमारे कस्बे में 1.76 करोड़ रुपये की लागत से एक भव्य सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र बना है जिसमें कागज पर छह विशेषज्ञ चिकित्सकों की नियुक्ति की घोषणा की गई है किंतु हकीकत में इस तीन मंजिला सरकारी अस्पताल में स्थायी चिकित्सक क्या स्थायी सफाईकर्मी तक नहीं है जो अस्पताल को रोज साफ ही कर सके. संविदा पर एक चिकित्सक हैं लेकिन आम राय है कि उनसे चिकित्सा कराने से बेहतर है घर पर ही दादी-नानी के नुस्खे अपना लिए जाएं.
fghgfh
है इसका कोई अर्थ? बस ‘अच्छे दिन’ के बारे में अनर्गल टिप्पणी करनी थी. ऐसी सामग्री देंगे तो तहलका जल्दी ही बंद हो जाना है?