बर्बर कानून को बेकरार सरकार

फोटोः एएफपी
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यूं तो ‘गुजरात मॉडल’ को विकास का पर्याय बना दिया गया है, पर इस बार राज्य सरकार की ओर से किए जा रहे कुछ कानूनी बदलावों की बयार विकास की उल्टी दिशा में बहती दिखाई पड़ रही है. दस साल से अस्तित्व में आने की कोशिश में लगा ‘गुजरात कंट्रोल ऑफ टेररिज्म एंड ऑर्गनाइज्ड क्राइम (गुकटॉक)’ बिल, जिसे अपने अलोकतांत्रिक प्रावधानों के कारण राष्ट्रपति कई बार रद्द कर चुके हैं, एक बार फिर विधानसभा में पारित हो चुका है. पारित होने के साथ ही इसने विवादों की चिंगारी को हवा दे दी है.

भारतीय दंड संहिता के अनुसार, पुलिस के सामने दिए गए किसी आरोपी के बयान को, कोर्ट में सबूत के तौर पर नहीं रखा जा सकता पर गुजरात सरकार की ओर से विधानसभा में पारित ‘गुकटॉक’ बिल में इस प्रावधान को बदल दिया गया है। इस विवादित बिल को फिर से लाकर गुजरात सरकार ने कानून और नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के गुस्से को भड़का दिया है। कानूनविदों की मानंे तो ये बिल रद्द किये जा चुके कानून ‘पोटा’ (प्रिवेंशन ऑफ टेररिज्म एक्ट) से काफी मिलता-जुलता है.

यह बिल उस बिल में थोड़ा फेरबदल कर पास किया गया है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में तीन बार विधानसभा में पारित किया था. 2004, 2008 और 2009 में इस बिल को पारित होने से राष्ट्रपति ने खारिज कर दिया था.

बताया जाता है कि यह कानून मोदी की ओर से किये जानेवाले बदलावों की सूची में कभी सबसे ऊपर था. गुजरात दंगों के बाद 2003 में इस बिल को लाया गया था. नाम था ‘गुजकोका’ (गुजरात कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट). ‘मकोका’ (महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट, 1999) की तर्ज पर इसे पारित करने की कोशिश की जा रही थी. राष्ट्रपति द्वारा ‘बेरहम’ की संज्ञा पा चुके इस बिल के बारे में और अच्छी जानकारी पाने के लिए उन दो मुस्लिम युवकों की कहानी जानना जरूरी है, जिन्हें दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने आतंकवादी कहकर पकड़ा था. बाद में मामले की सीबीआई जांच में दोनों दोषमुक्त पाए गए. 9 फरवरी, 2006 को दिल्ली पुलिस ने मोहम्मद इरशाद अली और उसके दोस्त मौरीफ कमर को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तारकर तिहाड़ जेल भेज दिया था. तब रक्षा विशेषज्ञों और मीडिया के अधिकांश धड़ों ने पुलिस को अच्छी खासी शाबासी भी दी. सीबीआई जांच के बाद दिल्ली हाई कोर्ट ने दोनों को जमानत दे दी. जांच में पता चला था कि दोनों पुलिस के ही मुखबिर थे, जो जम्मू कश्मीर में आतंकवादियों के घुसपैठ की सूचना पुलिस को देते थे.

इस विवादित बिल के पारित होने से मानवाधिकार कार्यकर्ता नाराज हैं. कानूनविदों की माने तो यह रद्द किए जा चुके ‘पोटा’ कानून से काफी मिलता है

तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भेजी अपनी चिट्ठी में इरशाद ने लिखा था, ‘मेरी एकमात्र गलती ये है कि मैंने उनका (खुफिया एजेंसियों का) साथ देने से मना कर दिया था। ये कहना मेरे लिए बहुत पीड़ादायी है कि हमारी अदालतें भी इसी श्रेणी में आती हैं… आग से आग नहीं बुझाई जा सकती, उसके लिए पानी चाहिए होता है। आपकी सुरक्षा एजेंसियां पेट्रोल से आग बुझाने की कोशिश कर रही हैं.’ उनके वकील सुफियान सिद्दीकी बताते हैं, ‘सुरक्षा एजेंसियों ने इरशाद को कुछ खतरनाक काम करने के लिए मजबूर किया था. पिता बनने के बाद इरशाद ने ऐसे खतरनाक काम करने से मना कर दिया था. इसके बाद देश के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में उसे गिरफ्तार कर लिया गया.’

साल 2008 ‘गुजकोका’ के खारिज होने के बाद मोदी ने दुनिया भर में फैले गुजरातियों से आग्रह किया था कि वे इस बिल को पारित करवाने के लिए तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र और ईमेल भेजें. मोदी का इस बिल पर जिद्दी रवैया तब और साफ दिखा, जब पुलिस के सामने आरोपी के बयान को सबूत का दर्जा देनेवाले अनुच्छेद का हवाला देते हुए इसमें संशोधन करने के लिए साल 2009 में एक बार फिर केंद्र ने इसे राज्य सरकार को वापस भेज दिया. तब मोदी का कहना था कि संशोधन करने से इस कानून का मूलभूत ढांचा बिगड़ जाएगा. उस समय मोदी के गुरु कहे जानेवाले लाल कृष्ण आडवाणी ने आरोपी के पुलिस के सामने दिए गए बयान को प्रमाणित साक्ष्य कहे जाने को लेकर संसद में काफी बहस भी की थी.

कानून के जानकार बताते हैं कि अगर ये बिल पारित होता तो ये न्यायिक जांच की श्रेणी में नहीं आता. आतंकी मसलों के जानकार वरिष्ठ वकील युग मोहित चौधरी बताते हैं, ‘जमीर अहमद बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय देते हुए कहा था कि देश की सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर कानून बनाने का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार को प्राप्त है और चूंकि आतंकवाद संघ सूची यानी यूनियन लिस्ट में है इसलिए इस पर कोई राज्य अपना कानून नहीं बना सकता.’

1 COMMENT

  1. मोदी पहले यही कार्य कर रहे थे अब आनंदी बेन कर रहीं

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