
बात 14वीं सदी की है. दिल्ली सल्तनत में तब मुहम्मद बिन तुगलक का शासन हुआ करता था. एक दिन तुगलक को सूझा कि राज्य की राजधानी को दिल्ली में नहीं बल्कि दौलताबाद में होना चाहिए. उसने राजधानी दौलताबाद ले जाने का फैसला किया. आनन-फानन में जनता को भी दौलताबाद में बसने का फरमान सुना दिया गया. सैकड़ों मील के इस सफर में कई लोगों की लूटपाट और बीमारी के कारण मौत हो गई. कुछ समय बाद तुगलक को अहसास हुआ कि राजधानी को दौलताबाद लाने का फैसला सही नहीं था. तब उसने जनता को दिल्ली वापस लौटने के आदेश दिए. वापसी में और भी ज्यादा लोग मारे गए. राजधानी को तो वापस दिल्ली में बसा लिया गया लेकिन तुगलक के इस फैसले की भारी कीमत दिल्ली की जनता को चुकानी पड़ी.
इस घटना के लगभग सात सौ साल बाद आज दिल्ली के छात्रों की स्थिति भी लगभग वैसी ही हो गई है जैसी तब दिल्ली की जनता की हुई थी. दिल्ली विश्वविद्यालय ने पिछले साल अपने स्नातक स्तर के तीन वर्षीय पाठ्यक्रम को समाप्त करते हुए चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम (एफवाईयूपी) लागू किया था. इस नए पाठ्यक्रम में लगभग 54 हजार छात्रों को दाखिला दिया गया. इसके एक साल बाद ही एफवाईयूपी को समाप्त कर दोबारा से वही तीन वर्षीय पाठ्यक्रम लागू किया जा रहा है. एफवाईयूपी के तहत अपना पहला साल पूरा कर चुके इन 54 हजार छात्रों को भी अब उसी पुराने पाठ्यक्रम में लौटाया जा रहा है. ये छात्र अब न तो पूरी तरह से एफवाईयूपी के तहत ही पढ़ सकेंगे और न ही पूरी तरह से पुराने पाठ्यक्रम के तहत. इनके लिए अभी विश्वविद्यालय के पास कोई ठोस योजना भी नहीं है. इन छात्रों की इस स्थिति के लिए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. दिनेश सिंह को दोषी माना जा रहा है. उन पर आरोप लग रहे हैं कि उन्होंने ही पिछले साल एफवाईयूपी को तुगलकी तरीके से लागू करवा दिया था. इसी कारण आज अधिकतर छात्र, शिक्षक, अभिभावक और सभी राजनीतिक दल प्रो. सिंह के खिलाफ नजर आ रहे हैं. उनके इस्तीफे की मांग हो रही है. कई लोग तो उन पर आपराधिक मुकदमा चलाने की भी बात कर रहे हैं.
एफवाईयूपी का मुद्दा सिर्फ उन 54 हजार छात्रों तक ही सीमित नहीं है जिनका भविष्य अब इसके निरस्त होने के कारण अधर में लटका हुआ है. यह मुद्दा देश के सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालय से निकलने वाली एक पूरी पीढ़ी का है. दिल्ली विश्वविद्यालय में होने वाले बदलाव पूरे देश की उच्च शिक्षा के लिए मिसाल बनते हैं. इस कारण यह मुद्दा सारे देश की उच्च शिक्षा से संबंधित एक गंभीर मुद्दा भी है. इस मुद्दे ने शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता, शिक्षा में राजनीतिक हस्तक्षेप और छात्रों के भविष्य की कीमत पर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को साधने जैसे कई सवालों को भी जन्म दे दिया है. इन सभी मुद्दों पर चर्चा करने से पहले जानते हैं कि एफवाईयूपी है क्या.
आम तौर पर देश भर के सभी विश्वविद्यालयों में स्नातक की डिग्री तीन साल में दी जाती है. पिछले साल दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस व्यवस्था में परिवर्तन कर एक नई व्यवस्था लागू की. इसे संक्षेप में एफवाईयूपी (फोर इयर अंडरग्रेज्युएट प्रोग्राम) कहा गया. एफवाईयूपी के लागू होने से किसी भी विषय में ऑनर्स की वह डिग्री चार साल की हो गई जो पहले तीन साल में हासिल की जा सकती थी. हालांकि तीन साल में स्नातक की डिग्री हासिल करने का विकल्प भी एफवाईयूपी में खुला रखा गया था लेकिन ऑनर्स के लिए चार साल अनिवार्य कर दिए गए थे. इसके साथ ही एफवाईयूपी के अंतर्गत दो साल में पढ़ाई छोड़ देने वाले छात्रों को डिप्लोमा देने की व्यवस्था भी की गई थी. स्नातक की डिग्री को चार साल के खांचे में ढालने के साथ ही एफवाईयूपी के तहत पाठ्यक्रम भी बहुत हद तक बदल दिया गया था. इस नई व्यवस्था में 11 आवश्यक फाउंडेशन कोर्स भी शामिल किए गए. इनमें हिंदी, अंग्रेजी, गणित, आईटी, भूगोल, व्यापार प्रबंधन आदि विषय शामिल थे. पहले साल के पाठ्यक्रम में 67 प्रतिशत हिस्सा इन्हीं विषयों का था जबकि सिर्फ 33 प्रतिशत हिस्सा ही मुख्य विषय को दिया गया था.
इस मुद्दे ने शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता और छात्रों के भविष्य की कीमत पर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को साधने जैसे कई सवालों को भी जन्म दे दिया है
एफवाईयूपी को लागू करने से पहले कुलपति ने इसके पक्ष में कई तर्क दिए थे. एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि ‘दिल्ली विश्वविद्यालय में बहुत ही सीमित छात्रों को ऑनर्स की डिग्री हासिल हो पाती है. जिन बच्चों के 12वीं में अच्छे नंबर नहीं होते उन्हें ऑनर्स की डिग्री नहीं मिल पाती. लेकिन एफवाईयूपी सभी छात्रों को ऑनर्स की डिग्री हासिल करने के समान अवसर देता है. कोई भी छात्र चार साल में ऑनर्स कर सकता है.’ साथ ही कुलपति का यह भी कहना था कि ‘एफवाईयूपी के अंतर्गत पढ़ाए जाने वाले फाउंडेशन कोर्स छात्रों के लिए बहुत सार्थक साबित होंगे. इनसे उन छात्रों को तो मदद मिलेगी ही जो अपनी आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाना चाहते हैं, साथ ही छात्रों को नौकरी हासिल करने में भी ये बहुत उपयोगी साबित होंगे.’ कुलपति प्रो. दिनेश सिंह का मानना था कि यदि एफवाईयूपी से छात्रों की जिंदगी बेहतर होती है तो उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि इसके लिए छात्रों को एक अतिरिक्त वर्ष पढ़ाई में लगाना पड़ेगा.
प्रो. दिनेश सिंह के इन तमाम तर्कों के बावजूद भी एफवाईयूपी का जमकर विरोध हुआ था. कई छात्रों और शिक्षकों ने मिलकर एफवाईयूपी को रोकने के लिए ‘सेव दिल्ली यूनिवर्सिटी कैम्पेन’ भी शुरू किया था. इस कैम्पेन में सैकड़ों लोगों ने एफवाईयूपी को लागू न करने के लिए एक पत्र पर हस्ताक्षर कर उसे प्रधानमंत्री को भी भेजा था. इस मुहिम से जुड़े रहे डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट के सचिव और दयाल सिंह कॉलेज के प्रोफेसर राजीव कुंवर बताते हैं, ‘पिछले साल भी हम लोगों ने इस व्यवस्था का जमकर विरोध किया था. लगभग सभी वामपंथी संगठन इसमें हमारे साथ थे. यह व्यवस्था निजी और विदेशी कॉलजों को बढ़ावा देने की एक बड़ी साजिश का हिस्सा थी. इस साजिश के तहत सबसे पहले सेमेस्टर व्यवस्था को लागू किया गया. उसे हम रोक पाने में कामयाब नहीं हो पाए. सेमेस्टर के बाद एफवाईयूपी को लाया गया और विरोध के बावजूद भी जबरन लागू करवा दिया गया.’ इन तमाम विरोधों के साथ ही पिछले साल एफवाईयूपी पर रोक लगाने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दाखिल की गई थी. लेकिन इस याचिका के दौरान केन्द्रीय अनुदान आयोग और मानव संसाधन मंत्रालय ने एफवाईयूपी का कोई विरोध नहीं किया और इसे लागू करने के लिए अपनी सहमति दे दी. इसके बाद दिल्ली विशविद्यालय के सभी कॉलजों में तीन साल का पाठ्यक्रम रद्द करके एफवाईयूपी को लागू कर दिया गया था.
इस साल एफवाईयूपी पर मुख्य विवाद तब शुरू हुआ जब कुछ दिन पहले ही केन्द्रीय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने दिल्ली विश्वविद्यालय को इस पर रोक लगाने के निर्देश देते हुए पुराने तीन-साला पाठ्यक्रम को लागू करने को कहा. 24 जुलाई से दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश शुरू होने थे. देश भर के लगभग पौने तीन लाख छात्रों ने इसके लिए आवेदन किया था. कॉलेज प्रवेश प्रक्रिया शुरू करते इससे पहले ही यूजीसी ने सभी कॉलेजों को भी चेतावनी देते हुए एफवाईयूपी पर रोक लगाने के निर्देश दे दिए. यूजीसी के इस कदम से दिल्ली के सभी कॉलेजों ने प्रवेश प्रक्रिया पर रोक लगा दी. प्रवेश प्रक्रिया पर रोक लगने के साथ ही कई छात्र और शिक्षक संगठनों ने प्रदर्शन शुरू कर दिए. इनमें से अधिकतर प्रदर्शन एफवाईयूपी के विरोध में थे तो कुछ गिने-चुने एफवाईयूपी के समर्थन में भी हुए. इस दौरान कुलपति की ओर से कोई भी निर्देश जारी नहीं किए गए. असमंजस की यह स्थिति कई दिनों तक बनी रही जिसमें कभी कुलपति के इस्तीफे की खबरें आईं तो कभी इस्तीफा वापस लेने की.

दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने आए देशभर के लाखों छात्र इस दौरान प्रवेश प्रक्रिया शुरू होने के इंतजार में थे. इनमें से कुछ तो एफवाईयूपी के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों में भी शामिल हुए. बिहार से आए अनिरुद्ध ने भी आइसा के कार्यकर्ताओं के साथ एफवाईयूपी के खिलाफ जमकर प्रदर्शन किए. वे बताते हैं, ‘मुझे दिल्ली आए चार दिन हो चुके थे. मैं जनरल डिब्बे में सवारी करके दिल्ली पहुंचा था ताकि समय से प्रवेश के लिए पहुंच सकूं. लेकिन यहां प्रवेश प्रक्रिया पर ही रोक लगी हुई थी.’ अनिरुद्ध आगे कहते हैं, ‘दिल्ली विश्वविद्यालय देश में सबसे बेहतर है. लेकिन यदि एफवाईयूपी समाप्त नहीं होता तो मैं कहीं और से अपनी पढ़ाई करता. मैं एक अतिरिक्त साल खर्च नहीं कर सकता था. बात सिर्फ फीस की नहीं है. दिल्ली में एक साल रहने का खर्च ही बहुत महंगा है. इसलिए मैं चाहता था कि एफवाईयूपी समाप्त हो.’
‘इस पाठ्यक्रम को समाप्त करने के लिए जिस तरह से यूजीसी ने छात्रों और कॉलेजों से संपर्क किया वह एक खतरनाक शुरुआत है’
एक तरफ अनिरुद्ध की तरह ही देश के लाखों छात्रों के लिए एफवाईयूपी उनके भविष्य का सवाल था तो दूसरी तरफ इसने राजनीतिक रूप भी ले लिए था. भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव से पहले एफवाईयूपी को समाप्त करने का वादा किया था. ऐसे में जब यूजीसी ने प्रवेश प्रक्रिया से ठीक पहले दिल्ली विश्वविद्यालय और सभी कॉलेजों को एफवाईयूपी को समाप्त करने के निर्देश दिए तो इसे एक राजनीतिक दबाव के तौर पर ही देखा गया. ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि पिछले साल जब एफवाईयूपी को लागू किया गया था तो यूजीसी ने इस पर कोई आपत्ति नहीं जताई थी. ऐसे में यूजीसी के इस हस्तक्षेप को विश्वविद्यालय की स्वायत्तता पर हमला माना गया और इस पूरे विवाद में ‘स्वायत्तता’ ही मुख्य मुद्दा बन गई. विश्वविद्यालय की एक्जिक्यूटिव कमेटी के सदस्य प्रोफेसर आदित्य नारायण मिश्रा उन चुनिंदा लोगों में से हैं जो एफवाईयूपी को बनाए रखने के पक्ष में हैं. मिश्रा बताते हैं ‘आज यूजीसी इस तर्क के साथ एफवाईयूपी को समाप्त करने के निर्देश दे रही है कि यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के प्राविधानों के खिलाफ है. जबकि 1 मई 2013 को यूजीसी ने अपने पत्र में कहा है कि पाठ्यक्रम की समय-सीमा तय करना विश्वविद्यालय पर निर्भर करता है.’ मिश्रा आगे बताते हैं, ‘बैंगलोर विश्वविद्यालय में भी बिलकुल ऐसी ही व्यवस्था है जैसी एफवाईयूपी के तहत दिल्ली में थी. जब यह व्यवस्था बैंगलोर विश्वविद्यालय के लिए कानूनन गलत नहीं है तो फिर दिल्ली के लिए कैसे गलत हो सकती है. दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास में यह पहली बार हुआ है जब उसकी स्वायत्तता को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया है.’
यूजीसी द्वारा एफवाईयूपी को समाप्त करने के निर्देशों को प्रोफेसर मिश्रा ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती भी दी थी लेकिन न्यायालय ने इस मामले को उच्च न्यायालय में पेश करने को कहा. प्रोफेसर मिश्रा की ही तरह दिल्ली के एक कॉलेज के कुछ छात्र भी एफवाईयूपी को बनाए रखने के लिए न्यायालय पहुंचे थे. दिल्ली उच्च न्यायालय ने इन छात्रों की याचिका पर सुनवाई यह कहते हुए कुछ समय के लिए टाल दी कि ऐसे गंभीर मुद्दे को किसी जल्दबाजी में नहीं सुना जा सकता. इन छात्रों के वकील मीत मल्होत्रा बताते हैं, ‘एफवाईयूपी को पिछले साल न्यायालय में चुनौती दी गई थी. उस वक्त यूजीसी और मानव संसाधन मंत्रालय दोनों ने ही एफवाईयूपी का समर्थन किया था. आज यूजीसी के पास इसे समाप्त करवाने का एक भी कारण नहीं है. न्यायालय में यदि सुनवाई होती तो एफवाईयूपी को कभी भी नहीं हटाया जाता. इसलिए सुनवाई होने से पहले ही विश्वविद्यालय पर दबाव बनाकर इसे समाप्त कर दिया गया.’ मीत आगे बताते हैं, ‘मैंने भी काफी साल पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में एक शिक्षक के तौर पर काम किया है. मैं जानता हूं कि एफवाईयूपी का पाठ्यक्रम स्तरीय नहीं था. लेकिन इसे जिस तरह से हटाया गया है वह और भी ज्यादा गलत है. एक छोटी गलती को बड़ी गलती से सुधारने की कोशिश की गई है.’
अधिवक्ता मीत मल्होत्रा की तरह ही दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद भी मानते हैं कि एफवाईयूपी को समाप्त करने का जो तरीका यूजीसी ने अपनाया है वह सही नहीं है. एक साक्षात्कार में वे कहते हैं, ‘इस पाठ्यक्रम को समाप्त करने के लिए जिस तरह से यूजीसी ने छात्रों और कॉलेजों से संपर्क किया वह एक खतरनाक शुरुआत है. लेकिन एफवाईयूपी का बने रहना भी बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था. इसे किसी न किसी बिंदु पर तो समाप्त होना ही था.’ एफवाईयूपी का विरोध कर रहे कुछ शिक्षक ऐसे भी हैं जो यूजीसी के इस कदम को विश्वविद्यालय की स्वायत्तता पर हमला नहीं मानते. प्रोफेसर राजीव कुंवर बताते हैं, ‘लोकमत से तो संविधान भी बदल जाता है तो फिर एफवाईयूपी क्या चीज है. इस व्यवस्था को समाप्त करने के लिए यदि राजनीतिक हस्तक्षेप भी हुआ है तो उसमें कोई बुराई नहीं है. राजनीति कोई बुरी चीज नहीं है. जब राजनीति जनता के खिलाफ हो तब वह बुरी है. एफवाईयूपी को लागू करवाने के लिए राजनीति का नकारात्मक उपयोग हुआ था. विश्वविद्यालय की स्वायत्तता पर तब भी हमला हुआ था जब एफवाईयूपी को जबरन लागू करवाया गया था. विश्वविद्यालय में कुलपति ने यह काम करवाया. इसी तरह यूजीसी भी संयुक्त रूप से दोषी नहीं है बल्कि सिर्फ यूजीसी के अध्यक्ष दोषी हैं जिन्होंने कुलपति के साथ मिलकर इसे लागू करवाया.’
एफवाईयूपी के पक्ष में खड़े लोगों का सबसे बड़ा तर्क है कि यदि यह व्यवस्था इतनी ही बुरी थी तो इसे सभी विभागों और मंत्रालय से हरी झंडी कैसे मिल गई?
जिस दौरान एफवाईयूपी को यूजीसी में अनुमति के लिए भेजा गया था उस वक्त आम आदमी पार्टी के नेता योगेन्द्र यादव भी यूजीसी के सदस्य थे. उन्होंने एफवाईयूपी पर चर्चा के दौरान यह बात कही थी कि यह व्यवस्था राष्ट्रीय शिक्षा नीति के खिलाफ है. योगेन्द्र यादव ने यह भी सुझाव दिया था कि यूजीसी को फिलहाल एफवाईयूपी लागू करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए. लेकिन इसके बाद भी यूजीसी ने एफवाईयूपी को लागू करने की अनुमति दे दी. यूजीसी अध्यक्ष वेद प्रकाश के भी इस फैसले में जिम्मेदार होने की बात को चार महीने पहले की घटना कुछ और बल देती है. जो यूजीसी आज दिल्ली विश्वविद्यालय और उसके कुलपति की सबसे बड़ी दुश्मन बनकर खड़ी है उसी यूजीसी के अध्यक्ष ने फरवरी 2014 में कुलपति दिनेश सिंह द्वारा किए गए सुधारों की जमकर तारीफ की थी. दिल्ली विश्वविद्यालय के वार्षिक सांस्कृतिक कार्यक्रम में वेद प्रकाश ने कुलपति द्वारा शुरू किए गए एफवाईयूपी को भी बहुत सराहा था. उन्होंने कहा था कि ‘जिस समर्पण से दिनेश सिंह इस विश्वविद्यालय को अपनी सेवाएं दे रहे हैं और इसे वैश्विक पटल पर पहचान दिला रहे हैं उसके लिए मैं उनकी जितनी तारीफ करुं कम है.’ इसी कार्यक्रम में कुलपति ने भी वेद प्रकाश का विश्वविद्यालय में हुए ‘सुधारों’ को लागू करवाने के लिए आभार व्यक्त किया था.