नायक जिसे बिहार ने बिसरा दिया

_MG_2793‘कौन संन्यासी? कुछ और बताइये उनके बारे में. शाहाबाद की इस धरती पर तो बहुतेरे साधु-संन्यासी, महात्मा-योगी हुए हैं.’ कुछ ब्यौरा देने के बाद थो़ड़ी देर इधर-उधर देखते हैं प्रोफेसर साहब, दिमाग पर जोर देते हैं. अंत में कहते हैं, ‘ईमानदारी से कहूं तो यह नाम पहली दफा सुन रहा हूं.’

प्रोफेसर साहब बिहार में सासाराम के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ाते हैं. चौक-चैराहे पर रोजाना चौपाल सजाते हैं. इधर-उधर की बातों को हैरतअंगेज तरीके से रखने के साथ शेखियां बघारने के भी उस्ताद हैं. सासाराम के बहुतेरे लोग प्रोफेसर साहब को गंभीर अध्येता, जानकार और इलाके का इनसाइक्लोपीडिया भी मानते हैं. कुछेक पीठ पीछे हवाबाज भी कहते हैं. सासाराम की उस चौपाली बहस में हम भवानी दयाल संन्यासी के बारे में कुछ जानकारियां विस्तार से देते हैं जैसे वे मूलतः इसी जिले के निवासी थे. उनका नाम भवानी दयाल संन्यासी था, लेकिन वे कोई साधु-संन्यासी नहीं थे. कुदरा से 10-12 किलोमीटर की दूरी पर बसा बहुआरा उनका पैतृक गांव था. उनके पिताजी पहले अपने गांव में मजदूरी का काम करते थे, बाद में गिरमिटिया बनकर दक्षिण अफ्रीका गए और लौटे तो अपने ही गांव के जमींदार हो गए. संन्यासी ने भी जमींदारी की कमान कुछ दिनों तक थामी. लेकिन उनकी पहचान इससे बनती है कि उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह आंदोलन में अहम भूमिका निभायी. वहां धोबी का काम करते रहे, फिर सोने की खान में मजदूर बने. संन्यासी रात में मजदूरी का काम करते, दिन में ‘सत्याग्रह का इतिहास’ लिखते. गांधी से भी पहले दक्षिण अफ्रीका में चले सत्याग्रह का इतिहास उन्होंने ही लिखा. आज भी उनके नाम पर दक्षिणी अफ्रीकी देशों में कई शैक्षणिक संस्थान चलते हैं. जब संन्यासी भारत लौटे तो उन्होंने आजादी की लड़ाई में अपनी भूमिका तय की. अपने गांव बहुआरा में रहते हुए उन्होंने मुंबई के वेंकटेश्वर समाचार में पत्रकारिता शुरू की. फिर प्रदेश के कोने-कोने में घूमने लगे. हजारीबाग जेल में बंदी बनाकर ले जाए गए तो वहां से उन्होंने ‘कारागार’ नामक हस्तलिखित पत्रिका की शुरुआत की. जेल में रहते हुए तीन ऐतिहासिक अंक निकाले. संन्यासी ने 800 पृष्ठों के सत्याग्रह विशेषांक का संकलन व संपादन किया जिसका अब कोई अता-पता नहीं.

ऐसी तमाम बातें संन्यासी के बारे में बताने पर सासाराम की उस चौपाल में प्रोफेसर साहब समेत अन्य लोगों की उत्सुकता बढ़ती जाती है. कुछ तुरंत जाति भी जानना चाहते हैं. जाति नहीं बताने पर अनुमान लगाते रहते हैं और जाति न सही, इलाके के आधार पर ही संन्यासी में नायकत्व के तत्व तलाशे जाने लगते हैं.

यह बात सिर्फ सासाराम की नहीं. पटना और रांची, जहां कस्बाई शहरों की तुलना में बुद्धिजीवियों की संख्या कुछ ज्यादा है, संन्यासी के बारे में ऐसे ही जवाब मिलते हैं. कुछ ही ऐसे लोग मिल पाते हैं जो संन्यासी के व्यक्तित्व के बारे में कुछ बता सकें. गांधी संग्रहालय के मंत्री डॉ रजी अहमद तो संन्यासी का नाम लेते ही किसी बच्चे की तरह चहकते हुए कहते हैं, ‘उनके बारे में अधिक से अधिक बताइये लोगों को, बिहार के लोग अपने नायकों को नहीं जानते, तभी तो आज चोर-गुंडा-मवाली भी समाज के नायक बनते जा रहे हैं.’ रजी अहमद की तरह ही कुछ-कुछ बातें वरिष्ठ नाट्य समीक्षक और साहित्यकार हृषीकेश सुलभ करते हैं. सुलभ कहते हैं, ‘यही दुर्भाग्य है बिहार का कि वह अपने वास्तिवक नायकों को भुलाकर छद्म नायकों में नायकत्व की तलाश कर रहा है, जिससे समाज, राजनीति सबकी गति गड़बड़ा गयी है.’

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