
सीबीआई कोर्ट ने 25 साल पहले पीलीभीत में हुए 10 सिखों के फर्जी एनकाउंटर में 47 पुलिसकर्मियों को दोषी पाया है. फर्जी एनकाउंटर तो हमारे देश में आम बात है, लेकिन बहुत कम मामले ऐसे हैं जिनमें फर्जी एनकाउंटर करने वाले पुलिसकर्मियों या सैन्यकर्मियों को सजा हुई हो. हो सकता है कि एनकाउंटर कभी ऐसे अपराधियों को ठिकाने लगाने का हथियार रहा हो जो कानून-व्यवस्था और जनता के लिए खतरा बने, लेकिन साथ-साथ यह विरोधियों को ठिकाने लगाने और राजनीतिक बदला लेने या अंडरवर्ल्ड के इशारे पर किसी को निपटाने का भी जरिया बना. बीहड़ों के डकैत और अंडरवर्ल्ड के लोग, जो कानून व्यवस्था के लिए मुसीबत बने हुए थे, उनके खात्मे से शुरू हुई पुलिस मुठभेड़ की कार्रवाई बहुत जल्द ही पुलिस अधिकारियों के लिए पद-पैसे में बढ़ोतरी और प्रशंसा बटोरने का खेल बन गई. पिछले दो-तीन दशकों में कई ऐसे एनकाउंटर के मामले चर्चित हुए जो पहले पुलिस के दावे से अलग फर्जी एनकाउंटर या कहें पुलिस द्वारा की गई गैर-कानूनी हत्या साबित हुए.
उत्तर प्रदेश फर्जी एनकाउंटर के मामले में सबसे अव्वल है. अगस्त 2009 में लखनऊ में ह्यूमन राइट्स वॉच ने ‘ब्रोकेन सिस्टम, डिस्फंक्शनल एब्यूज ऐंड इम्प्यूनिटी इन इंडियन पुलिस’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की थी. रिपोर्ट की शुरुआत में एक पुलिस अधिकारी का कबूलनामा था, ‘इस हफ्ते मुझे एक एनकाउंटर करने को कहा गया है. मैं उसकी तलाश कर रहा हूं. मैं उसे मार डालूंगा. हो सकता है कि मुझे जेल भेज दिया जाए लेकिन यदि मैं ऐसा नहीं करता तो मेरी नौकरी चली जाएगी.’ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2010 से 2015 के बीच देश में सबसे ज्यादा फर्जी एनकाउंटर उत्तर प्रदेश में हुए. इस दौरान यूपी में लगभग 782 फर्जी एनकाउंटर की शिकायतें दर्ज कराई गईं. वहीं, दूसरे नंबर पर आंध्र प्रदेश रहा, जहां सिर्फ 87 फर्जी एनकाउंटर की शिकायतें आईं. आरटीआई के तहत मांगी गई जानकारी के मुताबिक, इन 782 मामलों में से 160 मामलों में यूपी सरकार ने पीड़ित परिवार को लगभग 9.47 करोड़ रुपये मुआवजा भी दिया. वहीं, इस दौरान पूरे देश में कुल 314 शिकायतों में मुआवजे दिए गए. यूपी और आंध्र प्रदेश के बाद तीसरा नंबर बिहार और चौथा असम का रहा. जहां इस दौरान बिहार में 73 फर्जी एनकाउंटर के मामले आए तो असम में 66 मामले दर्ज हुए. इसके अलावा जुलाई 2014 में गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने बताया था कि साल 2011 से 2014 के बीच 185 फर्जी मुठभेड़ के केस पुलिसकर्मियों के खिलाफ दर्ज हुए थे. इनमें सबसे ज्यादा यूपी में 42 केस और इसके बाद झारखंड में 19 केस दर्ज हुए हैं. आंकड़ों के मुताबिक, 2006 में भारत में मुठभेड़ों में हुई कुल 122 मौतों में से 82 अकेले उत्तर प्रदेश में हुईं. 2007 में यह संख्या 48 थी जो देश में हुई 95 मौतों के 50 फीसदी से भी ज्यादा थी. 2008 में जब देश भर में 103 लोग पुलिस मुठभेड़ों में मारे गए तो उत्तर प्रदेश में यह संख्या 41 थी. 2009 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने 83 लोगों को मुठभेड़ों में मारकर अपने ही पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए.
उत्तर प्रदेश के भदोही में 2005 में हुई एक फर्जी मुठभेड़ के केस में 28 पुलिसकर्मियों के विरुद्ध मामला दर्ज हुआ था. सीआईडी जांच में पाया गया कि 5000 रुपये के इनामी बदमाश विजय उर्फ लल्लू उर्फ बुद्धसेन को पुलिस ने मार गिराया था. पुलिस ने इसे मुठभेड़ दिखाया लेकिन बाद में इसे फर्जी पाया गया. जिन 28 पुलिसकर्मियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया, उनमें से पांच बाद में थाना प्रभारी भी बन गए.
नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहने के दौरान 2002 से 2007 के बीच गुजरात में 31 फर्जी एनकाउंटर हुए जिसमें गुजरात पुलिस के कुल 32 अधिकारी जेल गए. इनमें से ज्यादातर अभी तक जेल में हैं. इन अधिकारियों में पांच आईपीएस अफसर भी शामिल हैं
पीलीभीत फर्जी एनकाउंटर मामले के पहले भी एनकाउंटर की कई ऐसी घटनाएं सामने आईं जो फर्जी साबित हुईं. दिसंबर 2015 में सीबीआई की विशेष अदालत ने मेरठ के दौराला के एक जंगल में फर्जी मुठभेड़ मामले में तीन सेवानिवृत्त अधिकारियों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. इस घटना में मेरठ कॉलेज की एक 20 साल की छात्रा स्मिता भादुड़ी की 14 जनवरी, 2000 को मेरठ के सिवाया गांव के पास फर्जी मुठभेड़ में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. अतिरिक्त जिला न्यायाधीश नवनीत कुमार ने सेवानिवृत्त पुलिस उपाधीक्षक अरुण कौशिक, कांस्टेबल भगवान सहाय और सुरेंद्र कुमार को हत्या का दोषी पाया था.
जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा के माछिल सेक्टर में अप्रैल 2010 में एक फर्जी मुठभेड़ का मामला सामने आया था. इस मामले में सेना ने 2015 में एक कर्नल रैंक अधिकारी समेत छह जवानों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. कर्नल दिनेश पठानिया, कैप्टन उपेंद्र, हवलदार देवेंद्र कुमार, लांस नायक लखमी, लांस नायक अरुण कुमार और राइफल मैन अब्बास हुसैन ने तीन आतंकियों को मारने का दावा किया था. मरने वालों की तस्वीर सामने आने के बाद काफी विवाद हुआ. मरने वालों के परिजनों ने दावा किया कि वे तीनों सामान्य नागरिक थे, जिनको फर्जी मुठभेड़ में मारा गया. उनकी पहचान बारामूला जिले के नदीहाल इलाके के रहने वाले मोहम्मद शाफी, शहजाद अहमद और रियाज अहमद के रूप में की गई. इस घटना के बाद पूरी कश्मीर घाटी में अशांति फैल गई. बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए जिसमें 123 लोग मारे गए थे. पुलिस जांच में साबित हुआ कि तीनों नागरिकों को नौकरी का झांसा देकर सीमा पर ले जाया गया जहां उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया. इस मुठभेड़ का मकसद इनाम और प्रमोशन पाना था. सेना ने जनरल कोर्ट मार्शल का आदेश दिया तो छह जवान दोषी पाए गए.

अप्रैल 2015 में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु सीमा पर तिरुपति के पास आंध्र प्रदेश के सेशाचलम के जंगल में एसटीएफ ने 20 लोगों को मार गिराया. एसटीएफ ने दावा किया कि ये सभी दुर्लभ लाल चंदन की लकड़ियों की तस्करी से जुड़े थे, लेकिन बाद में जो तस्वीरें और तथ्य सामने आए वे विरोधाभासी थे. मारे गए लोगों के परिजनों ने दावा किया कि वे सभी मजदूर थे जिनकी गलत तरीके से हत्या की गई. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी इस एनकाउंटर पर सवाल उठाए थे. इसी दौरान अप्रैल 2015 में तेलंगाना के वारांगल जिले में पुलिस ने पांच ऐसे लोगों को मुठभेड़ में मारने का दावा किया जो न्यायिक हिरासत में थे. पुलिस के मुताबिक वारंगल सेंट्रल जेल से हैदराबाद कोर्ट ले जाते समय कैदियों ने हथियार छीनने की कोशिश की और पुलिस कार्रवाई में मारे गए. इन पांचों पर एक स्थानीय आतंकी संगठन से जुड़े होने का आरोप था. जिस वक्त इन्हें मारा गया, सभी कैदियों के हाथ में हथकड़ियां लगी थीं. इस एनकाउंटर पर भी सवाल उठे थे.
भारत में पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा नक्सलियों, कुख्यात अपराधियों और बीहड़ के डकैतों को फर्जी मुठभेड़ों में मारे जाने का इतिहास काफी पुराना है. इसका चलन साठ के दशक में शुरू हुआ जब पुलिस ने बीहड़ों के डाकुओं के खिलाफ अभियान चलाए. सीधी मुठभेड़ में कुख्यात डाकुओं के मारे जाने के बाद आॅपरेशन को अंजाम देने वाले अधिकारी को राज्य सरकारों द्वारा पुरस्कार और पदोन्नति मिलती थी. बाद में सामने आया कि इन मुठभेड़ों में कुख्यात अपराधियों के अलावा कई निर्दोष लोग फर्जी तरीके से मारे गए. 20वीं सदी के आखिरी वर्षों में और नई सदी के पहले दशक में मानवाधिकार संगठनों ने इन मुठभेड़ों और गैर-कानूनी हत्याओं पर चिंताएं जाहिर करनी शुरू कीं. इसके पहले ये एनकाउंटर एक तरह से जायज माने जाते रहे. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का मानना है कि राज्यों में होने वाली फर्जी मुठभेड़ों में से ज्यादातर को पुलिस अंजाम देती है, सेना की ओर से ऐसी कार्रवाइयां कम सामने आती हैं.
मुंबई में 1990 के दशक में संगठित अपराध खत्म करने के लिए धड़ाधड़ एनकाउंटर हुए और ऐसे अधिकारियों को ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ के तमगे से नवाजा गया. पुलिस का कहना था कि एनकाउंटर करके वह न्याय प्रक्रिया में तेजी ला रही है. जनवरी, 1982 में मान्या सुर्वे नामक कुख्यात गैंगस्टर को पुलिस ने वडाला इलाके में मार गिराया. इसे मुंबई पुलिस के पहले एनकाउंटर के रूप में दर्ज किया गया. इसके बाद 2003 तक मुंबई पुलिस ने करीब 1200 एनकाउंटर किए. मुंबई पुलिस के कई अधिकारी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट के तौर पर पहचाने गए. जैसे इंस्पेक्टर प्रदीप शर्मा के नाम 104 एनकाउंटर करने का तमगा है. उनका कहना था, ‘अपराधी गंदगी हैं और मैं सफाईकर्मी हूं.’ शर्मा को राम नारायण गुप्ता एनकाउंटर केस में 2009 में सस्पेंड किया गया था, बाद में 2013 में कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया. इसी तरह सब इंस्पेक्टर दया नायक ने 83 एनकाउंटर किए, जिन पर ‘अब तक छप्पन’ फिल्म बनी थी. इंस्पेक्टर प्रफुल्ल भोंसले के नाम 77, इंस्पेक्टर रवींद्रनाथ अंग्रे के नाम 54, असिस्टेंट इंस्पेक्टर सचिन वाजे के नाम 63 और इंस्पेक्टर विजय सालस्कर के नाम 61 एनकाउंटर केस दर्ज हैं. इंस्पेक्टर विजय सालस्कर 2008 में मुंबई आतंकी हमले में मारे गए थे.
हालांकि बाद में न्याय की इस थ्योरी पर सवाल उठना शुरू हुआ. अदालतों ने इस पर नकारात्मक टिप्पणियां कीं. कुछ ऐसी घटनाएं भी सामने आईं कि पुलिसवालों ने अंडरवर्ल्ड से पैसे लेकर किसी व्यक्ति की फर्जी एनकाउंटर में हत्या की. एक मामले की सुनवाई करते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि ‘पुलिस अब जनता की रक्षक न होकर एक पेशेवर कातिल बन चुकी है.’ महाराष्ट्र में 2006 में हुए लखन भैया फर्जी मुठभेड़ मामले में 11 पुलिसकर्मियों को मुंबई सत्र अदालत ने जुलाई 2013 में दोषी करार दिया था.
हाल के वर्षों में रणवीर फर्जी एनकाउंटर मामला काफी चर्चित रहा था. जुलाई 2009 में गाजियाबाद का रणवीर, जो एमबीए का छात्र था, अपने अपने एक दोस्त के साथ नौकरी के लिए इंटरव्यू देने व घूमने के लिए देहरादून गया था. उत्तराखंड पुलिस ने उसे बदमाश बताकर देहरादून स्थित लाडपुर के जंगल में एनकाउंटर में मार गिराया. उत्तराखंड सरकार ने एनकाउंटर में शामिल पुलिसकर्मियों को सम्मानित भी किया. रणवीर के शरीर में 29 गोलियों के निशान पाए गए, जिनमें से 17 गोलियां करीब से मारी गई थीं. बहुत हंगामे के बाद में राज्य सरकार ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपते हुए इसे दिल्ली स्थानांतरित कर दिया. सीबीआई जांच में पाया गया कि यह एनकाउंटर फर्जी था. जून 2014 में दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट ने 17 पुलिसकर्मियों को अपहरण, हत्या की साजिश और हत्या के जुर्म में उम्रकैद और एक पुलिसकर्मी को दो साल की सजा सुनाई.
राजस्थान पुलिस की एसओजी टीम ने अक्टूबर 2006 में एक संदिग्ध डकैत दारा सिंह को मार गिराया. पुलिस ने उस पर 25 हजार का इनाम रखा था. पुलिस ने दावा किया कि हत्या और स्मगलिंग के केस में बंद दारा सिंह ने हिरासत से भागने की कोशिश की तो एनकाउंटर में मारा गया. दारा सिंह की पत्नी सुशीला की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच का आदेश दिया. सीबीआई ने 2011 में जांच पूरी करके 16 लोगों के खिलाफ चार्जशीट तैयार की. इसमें तत्कालीन एडिशनल डीजीपी, एसपी, एडिशनल एसपी, सात सब इंस्पेक्टर और तीन कॉन्स्टेबल भी शामिल थे. इस केस की सुनवाई करते हुए जस्टिस मार्कंडेय काटजू और सीके प्रसाद की बेंच ने सभी आरोपियों की गिरफ्तारी का आदेश देते हुए कहा था, ‘पुलिस को कानून का संरक्षक माना जाता है और यह आशा की जाती है कि वह लोगों की जान की सुरक्षा करेगी, न कि उनकी जान ही ले लेगी. पुलिस द्वारा की जाने वाली फर्जी मुठभेड़ अमानवीय हत्या के अलावा कुछ नहीं है, जिसे रेयरेस्ट ऑफ द रेयर अपराध माना जाएगा. फर्जी मुठभेड़ों में संलिप्त पुलिसवालों को फांसी पर लटका देना चाहिए.’