तालाब से बदला ताना-बाना

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मध्यप्रदेश के मालवा में एक बहुत पुरानी कहावत आज भी लोकप्रिय है – ‘पग-पग रोटी, डग-डग नीर.’ लेकिन आज उसी मालवा के ज्यादातर इलाके बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं. हालात इतने बिगड़ गए हैं कि मालवा के एक कस्बे में पानी को माफियाओं से बचाने के लिए चंबल नदी के बांध पर पुलिस का पहरा बिठाना पड़ा. इतना ही नहीं पानी की कमी के चलते 6 हजार कर्मचारियों वाली एशिया की सबसे बडी फायबर बनानेवाली फैक्ट्री ग्रेसिम के भी चक्के थम गए. नागदा के अलावा कमोबेश पूरे मालवा इलाके में पानी के हालात बदतर हैं. 60 फीसदी से ज्यादा बोरवेल सूख चुके हैं. मालवा के देवास जिले में भी पानी की कमी के चलते कुछ साल पहले कई फैक्ट्रियों पर ताला लगाना पड़ा था. 2006-07 के दौरान देवास में इंजिनीयरिंग की पढ़ाई किए हुए एक जिलाधीश उमाकांत उमराव का आगमन क्या हुआ कि उन्होंने सिर्फ देढ़ साल के अपने कार्यकाल के दौरान जिले में पानी रचने की एक जोरदार कहानी गढ़ ली. उन्होंने किसानों का साथ लेकर ‘भागीरथ कृषक अभियान’ चलाया और देखते ही देखते देवास के गांवों की तस्वीर बदलने लगी. इस योजना में तब की सरकार का कोई पैसा भी नहीं लगा था. यह काम पूरी तरह से उमराव की पहल पर समाज के हाथों से शुरू हुआ था.

दिलचस्प बात यह है कि उमराव जब देवास आए तो उन्होंने देखा कि यहां रेल टैंकर के जरिए पानी लाया जा रहा था. भूजल का स्तर 500-600 फीट तक नीचे उतर चुका था. पक्षी के नाम पर यहां सिर्फ कौए ही दिखते थे. उन्होंने देवास के बड़े किसानों को इस बात के लिए राजी किया कि वे अपनी कुल जमीन की 10 फीसदी हिस्से पर तालाब का निर्माण कराएं. किसानों को बात समझ में आ गई और उन्होंने तालाब रचना शुरु कर दिया. अब पानी की प्रचुरता की वजह से यहां एक की बजाए दो-तीन फसल ली जाने लगी है. अनाज का उत्पादन प्रति हेक्टेयर बढ़ गया है और किसानों को खेती फायदे का सौदा लगने लगी है. इस इलाके में न सिर्फ आर्थिक समृद्घि आई है बल्कि यहां का सामाजिक ताना-बाना भी तेजी से बदलने लगा है. आदिवासी समुदाय का जीवन बदल रहा है. लड़कियां स्कूल और कॉलेज पढ़ने जाने लगी हैं. बाल विवाह पर नियंत्रण लगा है. अपराध करनेवाली जनजाति अब खेती-किसानी या दूसरे पेशों से जुड़ रही हैं.

आदिवासियों के घर समृद्धि के फूल खिले हैं

भिलाला आदिवासी समुदाय के मदन रावत ने 20 साल पहले अपना गांव पुंजपुरा छोड़ दिया और अपने ससुराल पोस्तीपुरा आ बसे. हालांकि यहां आते वक्त उन्होंने ऐसा सपने में नहीं सोचा होगा कि एक दिन उनकी पत्नी गीता बाई को राज्य के मुख्यमंत्री सर्वोत्तम कृषि पुरष्कार से नवाजेंगे. मदन के शब्दों, ‘मैं अपना गांव छोड़कर जब यहां आया था तब यहां निपट जंगल था. साल के तीन-चार महीने सड़कें बजबजाते कीचड़ से लिथड़ी रहती थीं. पक्की सड़कें तो अभी कुछ साल पहले ही बनीं हैं. पहले जब गांव में कोई बीमार होता तब उसे खाट पर लिटाकर हॉस्पिटल ले जाना पड़ता था. डॉक्टर तक पहुंचने से पहले ही कई लोग दुनिया को अलविदा कह देते. अब कुछ लोगों के पास गाड़ियां आ गई हैं. यहां से 4 किलोमीटर दूर पलासी गांव में एक स्वास्थ्य केंद्र भी शुरू हो चुका है. कुछ लोगों के पास खेती के लिए ट्रेक्टर भी आ गएैं. तालाबों के बनने से हमारे गांव में समृद्धि आ रही है इसलिए अब हम लड़ने की बजाए हमेशा एक-दूसरे की मदद को तैयार रहते हैं.’ इस गांव में भिलाला के अलावा बंजारे और कोरकू समाज के लोग भी रहते हैं.

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पोस्तीपुरा गांव देवास जिले के बागली विकास खंड में पड़ता है. देवास जिला मुख्यालय से इसकी दूरी कोई 100 किलोमीटर के आसपास है. देवास से यहां पहुंचने के रास्ते में लगभग 7 किलोमीटर लम्बी बरजई घाटी पड़ती है. गोल-गोल घूमती हुई सड़कों की वजह से इसे यहां के लोग जलेबी घाट भी कहते हैं. कुछ लोग तो मजाक में परदेसियों को यह भी बताने से बाज नहीं आते हैं कि फिल्मोंवाली जलेबीबाई का गाना यहीं के जलेबीबाई से प्रेरित है. हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं है, पर इस सुरम्य घाटी से गुजरते हुए इस झूठ पर भी दिल लाख-लाख बार कुर्बान करने का मन होता है. इस घाटी में खूबसूरत सागवान के नए और पुराने पेड़ों की कतारें हैं. घाटी से उतरते हुए सड़क के दोनों ओर हरी-भरी सब्जियों के यहां से वहां तक खेत दिखने लगते हैं. हमारे साथ कृषि विभाग के सहायक निदेशक डॉ. अब्बास भी हैं. वे बताते हैं कि यहां से सब्जियां भोपाल तथा राज्य की दूसरी सब्जी मंडियों को भेजी जाती हैं.

पोस्तीपुरा के मदन के घर जब हमारा पहुंचना हुआ तो उनकी पत्नी टीन की छत पर कपास सुखा रही थीं. वे हमें देखकर नीचे उतर आईं. उनके घर के अंदर ट्रैक्टर, जीप और मोटसाइकिल खड़ी थी, मानों वे उनकी समृद्घि की गवाही दे रही हों. इस बारे में गीता बाई से पूछा तो उन्होंेने बताया कि यह सब तालाब की देन है. ऐसा कहते हुए उनकी आंखें नम हो उठती हैं और वे अपने घर के पिछवाड़े में बने तालाब की ओेर श्रद्घाभाव से देखने लग गईं. उन्हें कुरेदने की कोशिश की तो आगे उन्होंने बताया कि आपको कई तरह की पक्षियों की आवाज सुनाई दे रही है न. आप अगर तालाब बनने से पहले यहां आते तो आपको कौआ छोड़कर कुछ नहीं िदखता लेकिन अब यहां आपको पचासों किस्म के पक्षी  और हिरण (काले और सामान्य) दिख जाएंगे. पहले यहां पानी की मारामारी थी. पीने भरने के लिए कई बार कुएं पर रातभर खड़ा रहना पड़ता था. गीताबाई की 20 बीघे की खेती है और उनके पास दो तालाब हैं. हमारे पास ही खड़े हुए एक बुजुर्ग ने बीच में टोकते हुए कहा- ‘बेटा, हम खुशाहाल हैं. हमारे बच्चे-बच्चियां पढ़ने लगे हैं.’

अब पोस्तीपुरा गांव में लड़कियों के भाई और पिता ही उन्हें स्कूल और कॉलेज तक बाइक में बिठाकर ले जाते और वापिस घर लाते हैं

गांव में एक सरकारी स्कूल है जिसमें पांचवीं तक की पढ़ाई होती है. किसी को पांचवीं के आगे पढ़ाई करनी हो तो उसे चार-पांच किलोमीटर दूर पुंजीपुरा गांव स्थित हाई स्कूल की शरण लेनी पड़ती है. मदन बताते हैं कि हमारे गांव में कुछ साल पहले तक लड़कियां नहीं पढ़ती थीं. ऐसा सोचना भी अपराध सा था. अब लड़कियों के भाई और पिता ही उन्हें स्कूल और कॉलेज तक मोटरबाइक में बिठाकर ले जाते और वापिस घर लाते हैं. गांव में स्कूल खुल जाने की वजह से लड़कियां पीठ पर घास और अनाज का गट्ठर की जगह किताबों का थैला टांगे और आंखों में चमक लिए पढने हर रोज स्कूल पहुंच जाती हैं. मदन की तीनों बेटियां पढ़ रही हैं. एक बेटी तो देवास के कस्तूरबा गांधी कॉलेज के छात्रावास में रहकर बीए. द्वितीय वर्ष में पढ़ रही है. गांव के लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार आया है, ऐसा गांव में नए पक्के मकानों और घर के अहाते में ट्रैक्टर, कार और मोटरसाइकिल देखकर कोई भी आसानी से अंदाजा लगा सकता है.

‘पढ़ेंगे लिखेंगे लेकिन खेत ही जोतेंगे’

देवास जिले के टोंक खुर्द ब्लॉक का टोंक कला गांव आगरा-मुंबई हाईवे से दो-तीन किलोमीटर दूर है. टूटे-फूटे रास्तों से होकर जब आप प्रेम सिंह खिंची के दरवाजे पर पहुंचेंगे तब आपको यह भ्रम होगा कि आप किसी शहर की कॉलोनी या सोसायटी में घुस आए हैं. एक ही अहाते में बिल्कुल एक जैसे पांच घर बने हुए हैं. ये घर देवास में तत्कालीन कलक्टर रहे उमाकांत उमराव द्वारा 2006 में शुरू किए गए ‘भागीरथ कृषि अभियान’ के तहत तालाबों के निर्माण के बाद आई समृद्घि के बाद बने हैं. इन घरों को बाहर से देखने पर पांचों भाइयों के परिवारों के बीच के प्रेम का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. इस परिवार की एक बड़ी खासियत यह है कि अच्छी नौकरी या अच्छी पढ़ाई या डिग्री हासिल करने के बाद भी इस परिवार के लोग खेती-किसानी से पूरी तरह जुड़े हुए हैं. इसकी बड़ी वजह तालाब से खेती के सिंचिंत रकबे में लगातार हो रहा इजाफा भी है. प्रेम सिंह और उनके परिवार के अन्य सदस्य भी यह मानते हैं कि उमाकांत उमराव ने किसानों को साथ लेकर भागीरथ कृषक अभियान की शुरुआत की थी और पानी हासिल करने के लिए तालाबों का निर्माण कार्य शुरू करवाया था. पानी जो हमारे लिए कभी दूर की कौड़ी हो चुका था और तब हमारे खेत 10-15 फीसदी ही सिंचिंत थे लेकिन अब तालाबों के निर्माण के बाद हमारे 90 फीसदी खेत सिंचिंत हो चुके हैं. हमारे लिए खेती अब घाटे का सौदा नहीं रह गई और यही वजह है कि हमारे बच्चे दूसरों की चाकरी करने से अच्छा खेती करना पसंद कर रहे  हैं.

टोंक कला में 125 से ज्यादा तालाब हैं. प्रेम सिंह के परिवार की जमीन पर 30 तालाब हंै. उनका परिवार पढ़ा-लिखा होने के बावजूद खेती में मन रमा रहा है

प्रेम सिंह खिंची के बाद की पीढ़ी यानी उनके बेटे और भतीजे बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर भी खेती में रमे हैं. प्रेम सिंह के भाई उदय सिंह अपने घर की युवा पीढ़ी की खेती-किसानी में दिलचस्पी की वजह तालाब को मानते हैं. वे बताते हैं कि तालाब की वजह से अब हमारे खेत लगभग पूरी तरह सिंचिंत हो गए हैं. पहले हम साल में बारिश के बाद सिर्फ सोयाबीन की एक फसल ले पाते थे और अब गेहूं, डॉलर चना, टमाटर, मिर्ची, आंवला आदि जो चाहते हैं उगा लेते हैं.

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इस गांव में गौर करने लायक एक परिवर्तन और यह आया है कि जो किसान पहले अपने बच्चों की सरकारी स्कूल की 5-10 रुपये की फीस नहीं भर पाते थे, अब वे अपने बच्चों की 25-30 हजार रुपये तक की सालाना फीस खुशी-खुशी भर रहे हैं.’ इस गांव के नगेंद्र बताते हैं-’देवास में 2006-07 तक पानी की घोर किल्लत थी. हम कभी खेत की ओर देखते तो कभी आसमान की ओर. धरती का पानी भी हम चट कर गए थे. उमाकांत उमराव साहब के कहने पर हमने गांव में तालाब बनवाया. पहली बारिश में ही तालाब भर गया और हमने अपने जीवन में पहली बार एक साल में दो फसल ली. उत्पादन बढ़ता चला गया और नतीजा यह हुआ कि हमारे पास पैसे बचने लगे. हम अब अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए हर साल 20-25 हजार रुपए खर्च कर पा रहे हैं.’ प्रेम सिंह खिंची बताते हैं कि तालाब होने की वजह से  खेती से हमारा मुनाफा बढ़कर दस गुना हो गया है.’

टोंक कला में 125 से ज्यादा तालाब हैं. प्रेम सिंह के परिवार की जमीन पर 30 तालाब हैं. तालाब के फायदे के बारे में जब ‘तहलका’ के इस संवाददाता ने उनसे पूछा तो उन्होंने बताया कि भागीरथ कृषक अभियान शुरू होने से पहले हमने कभी भी तालाब निर्माण नहीं करवाया था. अब हमारे भीतर यह जागृति आ गई है और हम तालाब की तकनीक और उसके व्यवहारिक पक्ष से पूरी तरह वाकिफ हो गए हैं. प्रेम सिंह थोड़े दार्शनिक अंदाज से भरकर आगे बताते हैं- ‘आदमी का स्वभाव ही ऐसा है कि वह बगैर नुकसान उठाए सबक नहीं लेता है. हमारे इलाके में लोगों ने अपने खेतों में ट्यूबवेल खुदवा-खुदवाकर अपनी बर्बादी देख ली. 2006 से पहले हमें एक फसल से जो मुनाफा होता था, उसे हम पानी खोजने में खर्च कर देते थे. नतीजा यह होता था कि साल के अंत में हमारे पास पैसा ही नहीं बचता था.’

इन तालाबों की वजह से गांव का जल स्तर ऊपर आ रहा है. पानी की उपलब्धता होने की वजह से लोगों ने खेती और उससे जुड़े धंधों में दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी है. इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि खेती-किसानी में लगे परिवारों के पास गाय-भैंस तो होते ही हैं. वे पशुओं के गोबर को तालाब में बहा देते हैं. तालाब में पल रही मछलियों को अच्छा चारा मिल जाता है. तालाबों के पानी में गोबर के मिले होने से खेतों को पानी के साथ जैविक खाद भी मिल जाती है. इस प्रयोग से खेतों की उर्वरा शक्ति में वृद्घि हो रही है. फसल की अच्छी पैदावार के लिए रसायनिक और उर्वरक पर निर्भरता कम हो रही है. तालाब के निर्माण होने से गांव की प्रकृति में पूरी तरह से बदलाव आ गया है. लोगों की आर्थिक उन्नति हो रही है. पहले साल के आठ महीने लोग खाली घूमा करते थे. फिजूल की बातें करते थे लेकिन अब पानी की वजह से खेती अच्छी हो गई है और गांववालों के पास बेकार बातों के लिए समय नहीं है. बड़ी जोतवाले किसानों को तालाब का फायदा होता देख छोटी जोतवाले किसानों ने भी अपनी जमीन के 10 फीसदी भूभाग पर तालाब बनाना शुरू कर दिया है. उन्हें पूरे साल खाने को अनाज मिल जाता है. वे अपने बच्चे को अच्छा कपड़ा पहना रहे हैं और उन्हें पब्लिक स्कूल में पढ़ा रहे हैं.

पढ़े बेटी, बढ़े बेटी

देवास जिले का एक ग्राम पंचायत पाड़ल्या है जो महिलाओं के लिए सुरक्षित है. इस गांव के ज्यादातर मकान पक्के हैं और उन्हें देखने से यह भान होता है कि ये पिछले कुछ सालों के दौरान निर्मित हुए हैं. तालाब के निर्माण के बाद यहां आर्थिक समृद्घि के साथ जीवन में समरसता भी लौट रही है. बेटियों को पढ़ाने पर गांव में जोर दिया जाने लगा है. जो महिलाएं अपनी जिंदगी में नहीं पढ़ पाईं थीं, वे अपनी बच्चियों को खूब पढ़ाने की हसरत रखने लगी हैं. उनके पति भी इस काम में खूब सहयोग दे रहे हैं. इसे यहां की वर्तमान सरपंच सीमा मंडलोई के उदाहरण से समझा जा सकता है. वे महज आठवीं पास हैं. 16 की उम्र में ही उनकी शादी हो गई थी. नए रिश्ते में बंधकर जब मायके (रतनखेड़ी) से ससुराल आईं तो पढ़ाई से मानों नाता ही टूट गया. न ही मायके में और न ही ससुराल में उन दिनों हाई स्कूल हुआ करता था. अब पाड़ल्या में 12वीं तक का स्कूल है. हायर सेकेंडरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए अब लड़के और लड़कियां देवास और इंदौर पहुंचने लगे हैं. सीमा मंडलोई के पति (वे सरपंच पति के नाम से गांव में बुलाए जाते हैं) बताते हैं- ‘बीते सात-आठ साल के दौरान तालाब की वजह से हमारे खेत, हमारी डेयरियां और वेयरहाउस आबाद हुए हैं. पुरुष का काम खेती अच्छी होने की वजह से बढ़ गया है इसलिए उनके नजरिए में भी बदलाव आ रहा है. हमारे इलाके में लड़के-लड़कियां पढ़ाई का महत्व समझने लगे हैं. बाल-विवाह जैसी बुरी प्रथा पर भी रोक लगी है. लड़कों में नशाखोरी की लत नहीं है. हालांकि गांव के आसपास सरकारी ठेके हाल में खुले हैं.’

‘कंजर’ अपराध छोड़कर खेती करने लगे हैं. इनके बच्चे स्कूल व कॉलेज पढ़ने जाने लगे हैं लेकिन नौकरी के दरवाजे इनके लिए अब भी बंद हैं

सीमा से बिटिया की शादी के बारे में पूछने पर वे मुस्कराकर जबाव देती हैं- ‘अभी पढ़ेगी. वह पढ़ ले तब उसकी शादी की सोचेंगे.’ कितना पढ़ाएंगी? इसके जवाब में सीमा कहती हैं- ‘गांव में 12वीं तक की पढ़ाई के लिए स्कूल है, इतना तो पढ़ ही लेगी. 12वीं के आगे अगर दादाजी और दादीजी पढ़ाने के लिए देवास भेजने को तैयार हुए तो उसे जरूर पढ़ाएंगे.’ बेटी को पढ़ाकर आत्मनिर्भर बनाने की हसरत भरी आंखों से वे पास ही बैठे दादाजी की ओर देखने लग जाती हैं. बहु के इशारों को दादाजी भांप जाते हैं और खुद ही जोरदार आवाज में कहते हैं- ‘हां, हां क्यों नहीं? जब तक पढ़ेगी, हम पढ़ाएंगे.’ सीमा मंडलोई की देवरानी भी आठवीं पास है जब  उनकी शादी हुई तब उनकी उम्र 17 साल थी. देवरानी की लड़की अभी 12वीं में पढ़ रही है और वह कॉलेज भी पढ़ने जाना चाहती हैं.

इसके बाद हम इसी ग्राम पंचायत की पूर्व सरपंच पवन मालवी के घर पहुंचते हैं. पांच साल तक गांव की सरपंच रहने के बावजूद आज भी वे कच्चा-पक्का घर में रहती हैं. पवन की शादी महज 12 साल की उम्र में हो गई थी. उन्होंने शादी के बाद मायके में रहकर पढ़ाई जारी रखी और 10वीं कक्षा तक पढ़ाई की. आगे पढ़ने की हसरत उस जमाने में पूरी नहीं हो पाई थी लेकिन वे अपनी दोनों लड़कियों को पढ़ाकर आत्मनिर्भर बनाना चाहती हैं. बेटा बीए की पढ़ाई के लिए गांव से 25 किलोमीटर दूर हर रोज देवास आता-जाता है. एक बेटी 11 वीं में और दूसरी 8वीं में पढ़ रही है. बड़ी बेटी 17 साल की हो चुकी है लेकिन पवन अभी उसकी शादी की चिंता नहीं कर रही है. वह उसे पढ़ाना चाहती है. उनसे यह पूछने पर कि आप बच्चियों को क्यों पढ़ाना चाहती हैं? इस सवाल के जबाव में वे कहती हैं- ‘लड़कियां पढ़ लंे और नौकरी पा लें तो उनकी बहुत सारी समस्या खुद ही दूर हो जाती हैं. लड़कों से ज्यादा जरूरी लड़कियों का पढ़ना है. पढ़ी-लिखी लड़कियों के बच्चे भी पढ़ जाते हैं.’

‘हाथों को काम मिले तो वह अपराध क्यों करें ?’

देवास जिले के टोंक खुर्द विकास खंड में कंजर नामक घुमंतू जनजातियों का एक गांव है-भैरवाखेड़ी. यह गांव जिला मुख्यालय से 10-12 किलोमीटर की दूरी पर है. इस इलाके के लोग कंजर जाति को सामान्य तौर पर ‘अपराधी’ के तौर पर पहचानते हैं. इस जनजाति के लोग खुद ही यह स्वीकारते हैं कि वे लोग कुछ साल पहले तक लूटपाट और चोरी करते थे. वे देवास और आसपास के इलाकों में ट्रक लूटने का काम करते थे और कई बार इस काम को अंजाम देने के लिए राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र तक चले जाते थे लेकिन अब वे अपराध से दूरी बना चुके हैं और  खेती-किसानी करने लगे हैं. इस गांव के 20-22 साल से बड़ी उम्र के लोगों में से शायद ही किसी ने स्कूल का मुंह देखा होगा. यह पूछने पर कि आखिर क्या ऐसा हो गया कि आपलोग अपराध से दूर होकर खेती करने लग गए हैं? इसके जबाव में गांव का एक युवक अक्षय हाड़ा बताता है- ‘इस इलाके में पानी के अभाव में खेती पूरी तरह तबाह थी. मजबूरी में हम अपराध करते थे, अब हम इस मारामारी से थक चुके हैं. पिछले कुछ सालों के दौरान इस इलाके में हजारों की संख्या में तालाब, ताल-तलैयों का निर्माण हुआ जिसकी वजह से हमारे गांव के भूजल स्तर में बहुत सुधार हुआ. हमारे गांव में भूजल का स्तर 500-600 फीट तक गहरे चला गया था लेकिन अब 125-150 फीट तक पानी मिल जाता है.खेती-किसानी ठीक होने से हमारे जीवन में समृद्घि व स्थिरता आ रही हैं. सरकार भी हमें सुविधा दे रही है लेकिन हमारा दुख यह है कि हमारे बच्चे सरकारी या प्राइवेट नौकरी नहीं कर सकते हैं.’ ‘तहलका’ के इस संवाददाता ने जब पूछा कि उन्हें नौकरी मिलने में क्या समस्या आ रही हैं, तो अक्षय ने बताया कि पुलिस रिकॉर्ड में हमें आज भी अपराधी बताया जा रहा है जबकि हम लोग पिछले एक दशक से शराफत की जिंदगी जी रहे हैं.

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इस गांव में हम जिनके दरवाजे पर खड़े होकर ग्रामीणों से बातचीत कर रहे थे, उस घर की लड़की मेनका गोदेन बीए में पढ़ रही हैं. वे डेयरी के काम  में अपने पति का हाथ भी बंटाती हैं. मेनका के पति पांचवी तक पढ़े हैं. मेनका के चेहरे पर अपने और गांववालों के जीवन में आ रहे बदलावों को लेकर संतोष का भाव दिखता है. देवास के कलक्टर रह चुके उमाकांत उमराव भी इस बदलाव को लेकर हामी भरते हैं. उमराव वर्तमान समय में मध्य प्रदेश के आदिवासी विभाग के सचिव हैं. सच तो यह है कि उन्हें जिले में पानी की वापसी का श्रेय देने से कोई नहीं चूकता है. इस जिले में उन्हें आज भी ‘जलाधीश’ कहकर पुकारा जाता हैं. उमाकांत उमराव कहते हैं- ‘देवास जिले में पानी की वापसी से जिंदगी फिर से अपनी लय में लौटने लगी है. इस जिले केे लोग मुझे फाेन करके बताते हैं कि यहां अपराध के मामलों में कमी आई है. ‘कंजर’ अब अपराध से दूर हो रहे हैं और यह देखना सुखद है कि वे खेती-किसानी से जुड़ रहे हैं.