बिहार: दमित दलित

फोटोः प्रशांत रवि
फोटोः प्रशांत रवि

विश्लेषण, आकलन, अनुमान और इधर-उधर से उधार-साभार लेकर बात आगे बढ़ाने से पहले हालिया दिनों में बिहार में घटित कुछ घटनाओं पर नजर डालते हैं. इनका संबंध दलितों के साथ लगातार बढ़ रही ज्यादती से है. इनको लेकर आए दिन  राजनीति गर्माती है, कुछ आयोजन जैसी गतिविधियां होती हैं, कुछ बयानों का टकराव होता है और फिर सब शांत हो जाता है. शुरुआत बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के अपने जिले गया में 25 सितंबर को हुई घटना से करते हैं. उस दिन पुरागांव के सौ से अधिक महादलित अपना घर-गांव छोड़कर दूसरे गांव की ओर पलायन कर गए. वजह थी प्राथमिक कृषि साख समिति (पैक्स) के चुनाव के चक्कर में हुई एक हत्या. हत्या के खिलाफ आवाज बुलंद करने के जवाब में महादलितों को इलाके के सवर्ण दबंगों द्वारा सामूहिक तौर पर जान से मार दिये जाने की धमकी दी जाने लगी. उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी पुरागांव का दौरा करेंगे. वे बात-बेबात गया जाते रहते हैं, लेकिन इस घटना के बाद उन्होंने घटनास्थल का दौरा करने की जरूरत नहीं समझी. प्रशासन अपने स्तर पर समझा-बुझाकर पुरागांव के महादलितों को फिर से गांव में वापस ले आया. बात आयी-गयी हो गई. इस घटना के पीड़ित सुनील कहते हैं, ‘आज भी मुख्य आरोपी गुड्डू शर्मा गांव में आता-जाता रहता है लेकिन पुलिस उसे गिरफ्तार नहीं कर रही है.’

इसके बाद दो बड़ी घटनाएं बिहार के चर्चित जिला भोजपुर यानी आरा में घटित हुईं. आठ अक्टूबर को सिकरहट्टा थाना के कुरमुरी गांव में छह दलित महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ. महिलाएं गरीब दलित परिवार की थीं. कबाड़ बेचने का काम करती थीं. अपने काम के सिलसिले में वे सवर्णों के मुहल्ले में थीं. मोल-तोल करने के बहाने दबंगों ने उन महिलाओं को रोक लिया. फिर उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया. आरोपियों में सबसे प्रमुख नाम रणबीर सेना से संबद्ध रहे नीलनिधि सिंह का सामने आया. घटना के 24 घंटे बाद पुलिस ने एफआईआर दर्ज की. एफआईआर फाइलों में सिमटकर रह गई. मुख्यमंत्री का बयान भी आया कि मामले में त्वरित कार्रवाई हो, पीिड़तों को रोजगार मिले, फास्ट ट्रैक कोर्ट में मामला निपटाया जाय. भाषणबाजी के स्तर पर बहुत कुछ हुआ लेकिन उस थानेदार पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, जिसके इलाके में इतनी बर्बर घटना हुई और कायदे से जिस पर सबसे पहले कार्रवाई होनी चाहिए थी. बेचैनी और भय का आलम यह है कि इस घटना की पीड़िताएं और उनका परिवार अब इस मामले में मीडिया से कोई बात तक नहीं करना चाहता. वे सीधे इनकार कर देते हैं. वे इस बात की भी चर्चा करने को तैयार नहीं हैं कि उनके ऊपर किसी तरह का दबाव आदि तो नहीं है.

गया में 25 सितंबर को पुरा गांव के सौ से अधिक महादलित सवर्णों की धमकी पर अपना गांव छोड़ गए, आठ अक्टूबर को सिकरहट्टा में छह दलित महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ

इसके अगले महीने यानी नवंबर में आरा में ही एक और घटना घटी. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आरा के दौरे पर थे. वे अपनी राजनीतिक यात्रा पर निकले थे. वहां पार्टी के कुछ छात्र नेता नीतीश के मंच पर चढ़ने की कोशिश में पुलिस के हाथों पीटे गए. वे छात्र नेता पुलिस को देख लेने की धमकी देते हैं, पुलिस उन्हें पीटती है. इस मामले को मुख्यमंत्री ने पूरी गंभीरता से लिया. बलात्कारवाली घटना में चुप रहनेवाली सरकार ने इस मामले में एसपी और डीएसपी का ट्रांसफर कर दिया. दलित महिलाओं के बलात्कार के मामले में एक दरोगा तक नहीं हटाया जा सका, लेकिन दबंग छात्रों के मामले में सरकार पूरी तरह से सक्रिय हो गई.

आरा और गया की घटना तो फिर भी सुर्खियों में आ गई थी, लेकिन लगभग उसी दौरान नवादा जिले में घटी एक घटना को अखबारों में जगह नसीब नहीं हुई. नवादा में एक दलित परिवार के यहां शादी में नाच-गाने का आयोजन किया गया था. इलाके के दबंगों का मान इस बात से आहत हो गया कि कोई दलित नाच-गाना कैसे करा सकता है. दलितों को धमकी दी जाने लगी, लिहाजा भयभीत दलित परिवार गांव छोड़कर एक स्कूल में शरण लेने को मजबूर हो गए. इन घटनाओं के दरम्यान ही राजधानी पटना से सटे बिहटा में भी एक घटना सामने आई. वहां इंटर कॉलेज में पढ़नेवाली एक महादलित लड़की के साथ पास ही के गांव दिलावरपुर के कुछ सवर्ण लड़कों ने बलात्कार किया.

घटनाएं यहीं नहीं रुकीं. रोहतास जिले के काराकाट क्षेत्र के मोहनपुर की एक घटना भी इसी समय चर्चा में आई. मोहनपुर में साईं राम नाम के 14 वर्षीय नाबालिग दलित बच्चे को एक सवर्ण ने इसलिए जलाकर मार दिया क्योंकि बच्चे की बकरी उसके खेत में चरने चली गई थी. मृतक साईं राम के पिता जीउत राम से बात होती है तो वे बिलखने लगते हैं. बड़ी मुश्किल से उनके मुंह से आवाज निकलती है, ‘मुझे नहीं मालूम की मेरे बेटे की हत्या का केस कहां तक पहुंचा है, मैंने पता भी नहीं किया, किसी ने बताया भी नहीं.’ वे आगे कहते हैं, ‘अभी केस से ज्यादा बड़ी चुनौती आगे की जिंदगी है. मेरा वही एक बेटा था जो काम लायक था, अगले महीने वह 14 साल का हो जाता. एक और बेटा है लेकिन वो दिमागी रूप से थोड़ा कमजोर है.’ जीउत राम बताते हैं कि उनके बेटे की मौत के बाद उनके यहां नेताओं की लाइन लग गई थी. लोगों ने उनसे कई वादे भी किए थे, लेकिन चंद दिनों में ही वे सारी बातें भूल गए. जीउत राम को बेटे की मौत के मुआवजे में 28,000 रुपए का एक चेक भर मिला है. और भी कई चीजों का वादा किया गया था, लेकिन अभी भी वे वादे ही बने हुए हैं. इसमें मुफ्त राशन, नौकरी और भूमि जैसे कई वादे थे. अब उनके यहां कोई झांकने भी नहीं आता. बेटे की मौत के बाद जब मामला पुलिस में पहुंचा था, तब दबंग आरोपितों की तरफ से उन्हें धमकियां दी जाने लगीं थी. यह पूछने पर कि क्या उन्हें अभी भी धमकियां मिल रही हैं, जीउत राम कहते हैं, अभी तो रुक गया है लेकिन आगे का क्या पता.

साईं राम की दुर्दशा का अंत यहीं नहीं हुआ. अंतिम संस्कार के लिए उसे छह फुट जमीन भी मयस्सर नहीं हुई, मजबूरन उसे सड़क के किनारे ही दफनाना पड़ा.

ऐसी ही कई और छोटी-बड़ी खबरें इन दिनों बिहार की दैनिक बहसों के केंद्र में हैं. इन घटनाओं पर प्रशासन में किसी तरह कि बेचैनी या चेतना का संचार होता नहीं दिख रहा. राज्य के महादलित मुख्यमंत्री इन घटनाओं के इतर अपने अटपटे बयानों के लिए हर दिन सुर्खियां बटोर रहे हैं. उनके हालिया कुछ बयान ध्यान देने लायक हैं- दलित, महादलित, कुछ अतिपिछड़े ही मूलवासी हैं, बाकी विदेशी हैं… मैं पहले दलित का बेटा हूं, उसके बाद मुख्यमंत्री… राजा हम, राज भी हमारा होगा… मेरे पिता बंधुआ थे, मैं भी बंधुआ, किसी तरह  पढ़ा… लुढ़कते-लुढ़कते सीएम बन गया, ठोकर खाते-खाते एक दिन पीएम भी बन जाउंगा… मुझे कोई समझाए नहीं, मैं किसी से कम ज्ञानी नहीं, टूट जाऊंगा लेकिन झुकूंगा नहीं, रैदास, वाल्मिकी की कृपा से सीएम बना हूं… नीतीश भगवान हैं, मेरे घर में भगवान नहीं नीतीश की तस्वीर लगी है… उनके ये बयान सुर्खियां बटोरते हैं और शायद इसी वजह से उनकी अपनी जाति के साथ हो रहे अत्याचार कहीं दबकर रह जाते हैं.

मुख्यमंत्री के ऐसे बयानों पर बवाल मचना स्वाभाविक है. बवाल होता भी है. विपक्ष के नेता कम घेरते हैं, अपने ही दल यानी जदयूवाले मांझी को ज्यादा घेरने लगते हैं. जदयू के विधायक अनंत सिंह मुख्यमंत्री को रांची के पागलखाने में भरती करने की बात कह चुके हैं और फिर भी पार्टी में बने हुए हैं, जदयू के वरिष्ठ नेता केसी त्यागी मांझी को जबान संभालकर बोलने की नसीहत दे चुके हैं, मुन्ना शाही के मुताबिक मांझी का दिमागी संतुलन खो गया है, जदयू के ही दबंग विधायक सुनील पांडेय कहते हैं कि नीतीश को जनादेश मिला था, मांझी को नहीं. ये सभी बयान एक-दूसरे से टकराते रहते हैं और नीतीश कुमार की चुप्पी बनी रहती है. उनके नए सहयोगी बेबाक लालू प्रसाद यादव भी अनपेक्षित रूप से इन विवादों पर चुप्पी साधे रहते हैं. मजेदार बात है कि उनके बयान के बचाव में रामविलास पासवान और भाजपा के लोग यदाकदा खड़े दिखते हैं.

मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी पूर्वी चंपारण के रघुनाथपुर बड़गंगा के एक महादलित टोले मेंं. फोटो: सुजीत
मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी पूर्वी चंपारण के रघुनाथपुर बड़गंगा के एक महादलित टोले मेंं. फोटो: सुजीत

यह तमाम घटनाएं तीन माह से भी कम समय के भीतर घटित हुई हैं. सितंबर के अंत से लेकर नवंबर के दौरान. नवंबर के आखिरी दिनों में बिहार के मीडिया में यह माहौल था कि अब तो हद हो चुकी है इसलिए नीतीश कुमार अब मांझी को हटाएंगे और खुद मुख्यमंत्री बन जाएंगे. मीडिया अनुभव की बजाय अनुमानों पर दांव लगा रही थी. ऐसा कुछ नहीं हुआ, अनुमान गलत साबित हुए. नवंबर के आखिरी में काफी दिनों बाद मांझी बुझे मन से नीतीश कुमार से मिलने पहुंच गए. घंटे भर साथ रहने के बाद दोनों नेता अंदर से मुस्कुराते हुए बाहर निकले. मीडिया की अटकलें गलत सिद्ध हुईं.

मीडिया अपनी अटकलों के फेर में कुछ जरूरी बातों को नजरअंदाज करता रहा है. वहां इस बात पर विचार नहीं हो रहा है कि क्या बिहार में दलितों के साथ घट रही सारी घटनाएं महज मांझी के सीएम बनने की वजह से हो रही है या इसकी पृष्ठभूमि कुछ और है. मीडिया यह भी नहीं बताता कि बिहार में ऐसी घटनाओं के घट जाने और फिर उसे हाशिये पर धकेल दिये जाने का सिलसिला न जाने कितने सालों से चल रहा है. फारबिसगंज में पसमांदा मुसमलानों के मार दिये जाने की घटना, नालंदा में एक नाई महिला के गुप्तांग में नाखून काटनेवाला चाकू घुसा देने का मामला, डुमरांव स्टेशन पर एक लड़की के साथ सरेआम सामूहिक बलात्कार की घटना, शेखपुरा में प्रेम करने के जुर्म में एक दलित बच्चे को दबंगों द्वारा सरेआम फांसी पर लटका देने का मामला. ये तमाम घटनाएं हमारे इसी दौर की बानगी हैं. इन तमाम घटनाओं को भूलकर मीडिया लगातार यह माहौल बनाने में लगी हुई है कि यह जो मांझी हैं, जब से सीएम बने हैं, राज्य को संभाल नहीं पा रहे, कानून व्यवस्था कंट्रोल में नहीं है, इसलिए ऐसी घटनाएं हो रही हैं. जाहिर है मीडिया की अपनी एक सीमा है, इसलिए वह तह तक कारणों पर विचार करने में अपना समय नहीं लगाती. वह घटनाओं के दूसरे पहलू को समझने में नाकाम सिद्ध हो रही है कि अगर मांझी के आने के बाद से ही इस तरह की घटनाएं बढ़ी हैं तो कहीं यह सामाजिक स्तर पर एक दलित के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद एक बड़े तबके में उपजे असंतोष, घबराहट, तिलमिलाहट और बेचैनी का परिणाम तो नहीं है?

मीडिया का अपनी सीमाएं हैं लेकिन बिहार के राजनीतिक दायरों में भी ये सारे सवाल महत्वपूर्ण नहीं बन पाते. यह सवाल नहीं उठता कि आखिर क्या वजह रही कि भाजपा और जदयू का गठबंधन टूटने के बाद ही ऐसी घटनाएं बिहार में एकबारगी से बढ़ गई हैं? ये सवाल अनुत्तरित हैं.

मांझी के मुख्यमंत्री बनने के बाद अचानक से दलितों के साथ भेदभाव की घटनाएं बढ़ गई है. दिन-ब-दिन दलितों के साथ हो रहे अत्याचार का रिश्ता राजनीति के शीर्ष पर हुए बदलाव से भी है

नवंबर बीतने के बाद दिसंबर महीने में घटित कुछ राजनीतिक घटनाएं दलितों पर हो रहे अत्याचारों पर हो रही नग्न राजनीति का इशारा करती हैं. छह दिसंबर को हर साल पटना में बड़े पैमाने पर काला दिवस मनाने की परंपरा रही थी, बाबरी ध्वंस के विरोध में, लेकिन इस बार छह दिसंबर को पटना में काला दिवस नहीं मना. इस बार सिर्फ बाबा साहब भीम राव अंबेडकर की पुण्यतिथि का आयोजन बड़े पैमाने पर हुआ. गौरतलब है कि इन आयोजनों में हिस्सा लेनेवाले वही सत्ताधारी लोग हैं जिन पर दलितों की सुरक्षा की जिम्मेदारी है. लेकिन वे लोग घटनाओं पर मुंह बंद रखकर आयोजनों के जरिए एक नए किस्म की राजनीति कर रहे हैं. दलितों के भयादोहन की राजनीति. समय बदल चुका है, अब काला दिवस मनाकर कोई खतरा उठाने को तैयार नहीं है, इससे हिंदुत्व के जगने का खतरा है, जबकि बाबा साहब के नाम पर दलितों को अपने पक्ष में एकजुट करना आसान है.

बहरहाल, काला दिवस नहीं मना, लेकिन उसी दिन एक बड़े सरकारी आयोजन में मुख्यमंत्री मांझी और नीतीश एक साथ शामिल हुए. हाल के दिनों में कई आयोजनों में नीतीश कुमार, मांझी की वजह से कन्नी काटते रहे हैं. लेकिन छह दिसंबर के आयोजन में वे पहुंचे. इस कार्यक्रम में नीतीश का थोड़ा विरोध भी हुआ. नीतीश का विरोध कर रहे टोलासेवकों को देखकर मुख्यमंत्री मांझी मुस्कराते रहे. इस कार्यक्रम में उन्होंने महादलितों के लिए योजनाओं की झड़ी लगा दी. अंबेडकर फाउंडेशन खोलने से लेकर टोलासेवकों को दस हजार रुपये प्रति माह देने का वायदा और साठ साल तक काम करने का वचन उन्होंने वहीं दे दिया. नीतीश-मांझी के इस सम्मेलन से इतर उसी दिन पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में शूद्र एकता सम्मेलन भी आयोजित किया गया था, जिसमें भाजपा छोड़ सभी दलों के दलित नेता शामिल हुए.

अंबेडकर की पुण्यतिथि के पहले चंद्रवंशी समाज जरासंध की जयंती भी मना चुका है और चंद्रवंशी समाज के एक भाजपायी नेता प्रेम कुमार को मुख्यमंत्री बनाने की मांग कर चुका है. अंबेडकर की पुण्यतिथि के बाद पटना की सड़कों पर पाटलीपुत्र के सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहरण समारोह के बड़े-बड़े पोस्टर भी प्रकट हो चुके हैं. जरासंध को चंद्रवंशियों ने याद किया तो चंद्रगुप्त मौर्य को कुशवाहा समाज याद कर रहा है. विशेष प्रयोजनवाली आयोजन की ये खबरें सुर्खियों में आती रही इस दौरान. इसी दौरान नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए यात्रा पर निकले नीतीश कुमार की नयी यात्रा भी खूब सुर्खियों में रही. नीतीश की यात्रा के साथ ही विपक्ष के नेता सुशील मोदी द्वारा नीतीश कुमार से रोजाना एक सवाल पूछने का सिलसिला भी चर्चा में रहा. इस तरह हर रोज नये विषय चर्चा में आते जा रहे हैं और इन्हीं तीन महीनों के दौरान राज्य में दलितों के साथ घटित चार बड़ी घटनाएं भुला दी गईं.

भोजपुर के सिकरहट्टा में छह लड़कियों के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के बाद आरोपितों के कपड़ों की फॉरेंसिक जांच करती टीम, फोटोः प्रशांत रवि
भोजपुर के सिकरहट्टा में छह लड़कियों के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के बाद आरोपितों के कपड़ों की फॉरेंसिक जांच करती टीम, फोटोः प्रशांत रवि

बेपरवाह बिहार की सियासत आजकल ऐसे ही उबड़-खाबड़ रास्ते पर चल रही है, इसमें बड़ी से बड़ी घटनाएं राजनीतिक बयानबाजी के बीच में गुम हो जा रही हैं और यह सवाल अनुत्तरित रह जाता है कि मांझी के मुख्यमंत्री बनने के बाद एकबारगी से बिहार में दलितों के साथ भेदभाव की घटनाओं की बाढ़ क्यों आ गई है. क्या दिन-ब-दिन दलितों के साथ हो रहे अत्याचार का रिश्ता राजनीति के शीर्ष पर हुए बदलाव से है, समाज के निचले पायदान पर इस बदलाव को लकर कोई असहजता पैदा हो गई है. सवाल कई और भी हैं मसलन क्या भाजपा और जदयू के अलगाव के बाद बिहार में ऐसी घटनाओं में तेजी आयी है या इस तरह की घटनाएं पहले से ही जारी थीं. सवालों के बीच एक आशंका यह भी पैदा हुई है कि क्या पिछले साल जब बिहार में मीयांपुर, लक्ष्मणपुर बाथे और नगरीकांड के अभियुक्तों को बरी किया गया, तो उसके परिणाम स्वरूप सामंती तबके का मन बढ़ा और ऐसी घटनाओ में तेजी आ गई. इसी तरह की मनबढ़ई की आशंका दो साल पहले, जब रणवीर सेना सुप्रीमो ब्रहमेश्वर मुखिया की हत्या हुई और उनके शव को पटना लाया गया, तब भी देखने को मिली थी. मुखिया के समर्थकों को पटना में गुंडागर्दी की छूट दी गयी. इससे शायद एक वर्ग का मन बढ़ा और वे अनियंत्रित हो गए हैं. जानकारों के मुताबिक हाल के दिनों में दलितों के साथ बढ़ी भेदभाव की घटनाओं का एक सूत्र पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों से भी जुड़ता है. नीतीश कुमार की पार्टी जदयू की चुनावों में हुई करारी हार के बाद भाजपा समर्थक सवर्ण तबका लंबे समय बाद बिहार में खुद को राजनीतिक रूप से मजबूत स्थिति में पा रहा है. इसके नतीजे में ऐसी घटनाएं ज्यादा तेजी से घटने लगी हैं.

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‘बिहार की नब्ज है पुरागांव’

जैसे पूरे पतीले के चावल का अंदाजा एक चावल को छूकर मिल जाता है वैसे ही पुरागांव की घटना से बिहार की जातिगत वैमनस्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है. बीते सितंबर माह में गया जिले का पुरागांव रातोंरात चर्चा में आ गया था. यह मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के गृह जिले का एक गांव है. खबर आई थी कि दंबगों ने यहां इस कदर दहशत का माहौल बनाया कि गांव के लगभग सौ महादलित परिवार यहां से पलायन कर गए. चार सौ घरों की इस बस्ती में इतने ही दलित परिवार थे, और लगभग सारे के सारे गांव से निकल गए. मामला यह था कि वहां स्थानीय स्तर पर पैक्स का चुनाव हो रहा था. इस चुनाव में एक ओर सवर्ण जाति का उमीदवार था, तो दूसरी ओर गांव के ही मुसहर समुदाय का युवक वकील मांझी भी चुनाव लड़ रहा था. वकील मांझी के बड़े भाई अर्जुन मांझी अपने भाई के पक्ष में प्रचार कर रहे थे. यह बात गांव के सवर्णों को हजम नहीं हुई. इस रंजिश में अर्जुन मांझी की हत्या कर दी गई. अर्जुन मांझी की हत्या का मामला पुलिस तक पहुंचा तो गांव के दबंगों ने महादलितों को धमकाना शुरू कर दिया. रणबीर सेना की तर्ज पर दलितों के नरसंहार की धमकियां दी जाने लगीं. भयभीत दलितों ने कोई उपाय न देख सामूहिक रूप से गांव छोड़ने का फैसला किया. गांव छोड़कर सभी परिवारों ने टेकारी नामक जगह पर शरणार्थीयों की तरह डेरा डाल दिया. जल्द ही खबर फैलने लगी. बात बढ़ी तो जिला प्रशासन ने आनन-फानन में महादलितों को गांव वापस ले जाने की प्रक्रिया शुरू की. मुख्यमंत्री मांझी के बयान आने लगे, हालांकि उन्होंने पुरागांव जाने की जहमत नहीं उठाई.

अर्जुन मांझी की पत्नी राम प्यारी देवी को पांच लाख का मुआवजा मिला, हर महीने पेंशन देने की घोषणा भी की गई और गांव के दलितों की स्थिति सुधारने का वादा भी किया गया. अब तक 26 भूमिहीनों को पर्चा बांटा जा चुका है. दर्जन भर से अधिक पुलिस के जवान गांव में डेरा जमाए हुए हंै, पुलिस पोस्ट स्थापित करने की योजना भी है. छह आरोपी समर्पण कर चुके हैं, लेकिन मुख्य आरोपी गुड्डू शर्मा अभी भी फरार है. गांववालों का कहना है कि पुलिस गुड्डू को पकड़ना ही नहीं चाहती. इस मामले को लेकर आंदोलन करनेवाले सतीश, जो कि खुद भी अपने परिवार के साथ टेकारी पलायन कर गए थे, कहते हैं, ‘सब जानते हैं कि गुड्डू शर्मा रोज रात में आता है. अब भी रोज धमकाता है, लेकिन पुलिस उसे नहीं पकड़ रही है.’ वे आगे कहते हैं, ‘हमारी सुरक्षा के ढेरों वायदे किए गए थे, लेकिन सारे वायदे दो माह में ही फाइलों में दफन होकर रह गए हैं.’ दलितों के साथ पुरा गांव में हो रही ज्यादती का यह पहला मामला नहीं है. अर्जुन मांझी के बड़े भाई राम स्वरूप मांझी का पिछले कई सालों से कोई अता-पता नहीं है. उनका भी यही अपराध था कि वो दबंगों के खिलाफ मुखिया का चुनाव लड़ना चाहते थे. उनका अपहरण कर लिया गया. लोग मान चुके हैं कि राम स्वरूप को सवर्णों ने मार दिया होगा.

पुरा के बाद हम आरा जिले के चर्चित पूरीमारी बलात्कार कांड की स्थिति जानना चाहते हैं. वहां प्रशासनिक महकमे से कोरासा जवाब मिलता है- ‘गवाही चल रही है. पीड़ित गवाही दे चुके हैं. कुल छप्पन की गवाही हो चुकी है. अब बचाव पक्ष की गवाही चल रही है. छह में से पांच पीड़ितों को नौकरी मिल चुकी है. जब फैसला आएगा तो आपको पता चल जाएगा. वैसे यह मामला पुराना हो चुका है.’ इस मामले की पीड़िताएं अब इस मामले पर मीडिया से कोई बात नहीं करना चाहती हैं.

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जानकारों की एक राय यह भी है कि एक दलित मुख्यमंत्री पद पर बैठा है जिसकी प्रतिक्रिया में निचले स्तर पर ताकतवर जातियां अराजक होकर ऐसी गतिविधियों को अंजाम दे रही हैं. हो सकता है कि जानकारों की राय सही हो, यह भी हो सकता है कि ये सारी वजहें एक साथ इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार हों, लेकिन बिहार की राजनीति में न तो अब ऐसे सवाल सत्ता के लिए महत्वपूर्ण रह गये हैं, न विपक्ष के लिए. राजनीति से जुड़े लोग इन सवालों पर कन्नी काटते हैं ज्यादा ईमानदार जवाब के लिए सियासत से इतर लोगों को ढूंढ़ना पड़ता है. लेकिन किसी के जवाब या बयान के पहले आंकड़ों के जरिये घटनाओं को समझना जरूरी है.

आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि बिहार में दलितों के खिलाफ अत्याचार की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं. 2002 से 2005 के बीच दलित उत्पीड़न के 5,538 मामले दर्ज हुए थे. 2006 से 2009 के बीच यह संख्या बढ़कर 9,052 पर पहुंच गई. 2012 का आंकड़ा बताता है कि 4,950 घटनाएं इस एक साल के दौरान घटीं. इनमें 191 बलात्कार की घटनाएं थीं. यह संख्या घटती-बढ़ती रहती है. जब हम जनवरी 2013 के बाद के आंकड़ों पर नजर डालते हैं तब हमें समझ आता है कि यह अचानक से अपने चरम की ओर बढ़ने लगी हैं. जनवरी 2014 से अगस्त 2014 के बीच दलितों के खिलाफ अत्याचार के 10,681 मामले दर्ज हुए हैं. इनमें 91 हत्या के हैं. समाजशास्त्री डॉ. एस नारायण के पास इसका एक अलग तर्क है. वे कहते हैं, ‘स्वाभाविक तौर पर जीतन राम मांझी के सीएम बनने के बाद एक बड़े तबके में बेचैनी है और वह अराजक हुआ है, लेकिन बिहार की इन घटनाओं को सिर्फ मांझी फेज से जोड़कर देखने की जरूरत नहीं.’

एक मांझी को केंद्र में रखकर बिहार की राजनीति हो रही है और मीडिया भी उसी में उलझा हुआ है या यूं कहें कि मीडिया लोगों को उसी में उलझा रहा है. साल 2013 में बिहार में 580 चुने हुए जनप्रतिनिधियों की हत्या हुई, उसमें 60 प्रतिशत के करीब दलित-महादलित जातियों से थे. इस पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई. उस दौरान नीतीश कुमार मुख्यमंत्री थे और भाजपा उनकी सहयोगी थी. डॉ. नारायण कहते हैं, ‘ऊपरी तौर पर सियासी समीकरण बिठाने के लिए तमाम बयान दिये जा रहे हैं और उसमें ही बिहार की राजनीति उलझ गई है, जमीनी स्तर पर और लंबे समय तक महादलितों का लाभ हो, इसके लिए कुछ नहीं हो रहा है, बिहार में यह देखना महत्वपूर्ण है.’ वे आगे बताते हैं, ‘मांझी आज जो बयान दे रहे हैं, उसके आगे-पीछे भी दलितों की राजनीति और उनके विकास को समझना होगा. मांझी कोई एकबारगी से राजनीति में नहीं आये हैं. पिछले तीन दशक से राजनीति में हैं और कई महकमों के मंत्री रहे हैं. मांझी के साथ ही आठ और विधायक अभी महादलित समुदाय से आते हैं. इतने वर्षों में मांझी ने या किसी और महादलित नेता ने क्या कभी महादलितों के लिए समग्रता में विकास की कोई योजना बनायी. इससे आप समझ सकते हैं कि व्यक्तिगत सियासत को चमकाने के लिए महादलितों पर ज्यादा बात हो रही है, उनके विकास की बातें अभी भी हाशिये पर हैं.’

दलितों में चेतना आई है, वे प्रतिरोध कर रहे हैं. इसके विरोध में यथास्थितिवादी शक्तियां भी सक्रिय हो गई हैं, जो दलितों के खिलाफ अपने विरोध और प्रहार को लगातार तेज कर रही हैं

डॉ. नारायण की ही बातों को बिहार के मशहूर समाजशास्त्री एमएन कर्ण भी आगे बढ़ाते हैं. वे कहते हैं, ‘बेशक जीतन राम मांझी के सीएम बनने के बाद महादलितों में चेतना पैदा हुई है और उनमें उत्साह पैदा हुआ है लेकिन जो राजनीति में हो रहा है वह सब वोटबैंक को ध्यान में रखकर हो रहा है. बिहार सरकार ही बताये कि क्या उसके पास महादलितों की सामाजिक-शैक्षणिक स्थिति के सही-सही आंकड़े हैं. जवाब मिलेगा नहीं.’ राज्य अनुसूचित जाति आयोग के सदस्य बबन रावत बिहार में दलितों और महादलितों पर बढ़ रही अत्याचार की घटनाओं की विवेचना अलग तरीके से करते हैं. वे कहते हैं कि दलितों पर अगर जुल्म बढ़े हैं, तो इससे यह साफ होता है कि दलित समाज अब मरा हुआ समाज नहीं रह गया है. कोई भी हमला जिंदा समाज पर होता है. इसलिए यह दलितों के सशक्तिकरण का ही एक पैमाना है.

जितने लोगों से बात होती है उतने मत सामने आते हैं. एएन सिन्हा इंस्टीटयू्ट ऑफ सोशल साइंस के निदेशक डॉ. डीएम दिवाकर मानते हैं कि आज बिहार में एक दलित मुख्यमंत्री हैं जो लगातार दलितों को जगने का आह्वान कर रहा है और इससे दलितों के उत्साह और विश्वास की वृद्धि हुई है. प्रतिरोध स्वरूप उन पर जुल्म भी बढ़ रहे हैं क्योंकि सदियों से जो समाज उन्हें नीची निगाह से देखता आया है वह दलितों के इस सशक्तिकरण को पचा नहीं पा रहा है. राज्य अनुसूचित जाति आयोग के ही एक और सदस्य विद्यानंद विकल मानते हैं कि यह सब इसलिए हो रहा है ताकि राज्य में अराजक स्थिति बने और लोगों में यह संदेश जाए कि एक दलित मुख्यमंत्री राज्य नहीं चला सकता और फिर अगले कुछ साल तक दलितों को फिर से मुख्यमंत्री पद पर नहीं बिठाया जा सके. विकल के अपने तर्क हैं और हो सकता है इसका भी सच्चाई से कुछ वास्ता हो. लेकिन इन घटनाओं और दलितों से जुड़े असल सवालों पर फिर भी कोई बात नहीं कर रहा.

जीतन राम मांझी दलितों की अस्मिता को उभारकर अगले विधानसभा चुनाव तक मजबूत वोटबैंक खड़ा करना चाहते हैं. नीतीश कुमार इस पूरी हलचल पर चुप्पी साधकर महादलित, अतिपिछड़ा, मुसलमान, कुरमी और यादव का एक नया समीकरण पनपते देख रहे हैं जिसमें अगला चुनाव जिताने की पूरी कूवत है. भाजपा सवर्णों की पार्टी बन चुकी है और वह साथ में कुशवाहा, बनिया, पासवान आदि को मिला लेने के बाद कुछ अतिपिछड़ों को अपने पाले में कर राजनीति को आगे बढ़ा रही है. इस बीच दलितों से जुड़े, महादलितों से जुड़े हुए कई सवाल ऐसे हैं, जिनके जवाब मांगे जाने चाहिए. मुख्यमंत्री मांझी से भी, नीतीश कुमार से भी और भाजपा से भी. मांझी महादलितों को पांच डिसमिल जमीन देने और आवासीय विद्यालयों में दलित छात्र-छात्राओं की संख्या बढ़ाने की रचनात्मक राजनीति करना चाह रहे हैं, जबकि भाकपा माले के राज्य सचिव कुणाल जैसे लोग दलितों से जुड़े जमीनी सवाल उठा रहे हैं. कुणाल कहते हैं कि जब खुलकर जाति की राजनीति ही हो रही है तो क्यों नहीं मांझीजी बंदोपाध्याय कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार जमीन का बंटवारा कर रहे हैं. आखिर बंदोपाध्याय कमिटी की रिपोर्ट तो नीतीश कुमार ने ही तैयार करवाई है और स्थायी विकास या भला चाहनेवालों को इससे क्या दिक्कत हो सकती है.

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‘यह सवर्ण बनाम दलित नहीं, पिछड़ा बनाम दलित की लड़ाई है’

प्रेम कुमार मणि

यूं तो बिहार में पहचान की राजनीति का दौर कई वर्षों से चल रहा है, लेकिन इन दिनों यह द्वंद्व-दुविधा से गुजरते हुए टकराव के मुहाने पर पहुंच गई है. कई वर्षों से पिछड़े नेता पहचान की राजनीति को चमका रहे थे, स्वाभाविक तौर पर अब उनके बाद उनके नीचेवालों की ही बारी थी.

इसी कड़ी में इन दिनों बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी जो बोल रहे हैं, उस पर बवाल मचाया जा रहा है. उनकी बातों पर बहस की जरूरत है, लेकिन कोई बहस के लिए तैयार नहीं है. मांझी जो बोल रहे हैं या जो कर रहे हैं, उससे यह साफ झलक रहा है कि वह नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की तुलना में ज्यादा सचेत नेता हैं. वह बार-बार दलित, महादलित, कुछ अतिपिछड़ों और आदिवासियों पर ही जोर दे रहे हैं. कभी उन्होंने समग्रता में पिछड़ी जातियों को एक समूह के तौर पर रखकर बात नहीं की. उन्होंने पिछले दिनों जब सवर्णों और अन्य को बाहरी कहा, तो यह भी कहा कि आदिवासी, दलित और कुछ पिछड़ी जातियां ही मूलवासी हैं.

मांझी इतिहास के छात्र रहे हैं, वह इंजीनियरिंग के छात्र नहीं हैं. उन्हें अतीत की समझ है, इसीलिए वह भविष्य की राजनीति का संकेत दे रहे हैं. बिहार में मांझी के पहले भी दो दलित मुख्यमंत्री बने थे. भोला पासवान शास्त्री और रामसुंदर दास. दोनों ही मजबूरी में बनाए गए थे, कठपुतली की तरह. दोनों ने कमोबेश कठपुतली की ही तरह काम भी किया. नीतीश कुमार की मंशा भी मांझी को कठपुतली की ही तरह चलाने की थी, लेकिन मांझी वैसे नहीं रह सके.

मांझी ने राजनीति का एक नया अध्याय शुरू कर दिया है और खुद ही एक बड़ी परिघटना बन गए हैं. उत्तर प्रदेश में जिस तरह से कांशीराम ने बैकवर्ड और दलित राजनीति को दो अलग छोरों पर ला खड़ा किया था, बिहार में मांझी भी वही काम कर रहे हैं.

भले ही आज इसे सतही तौर पर सवर्ण बनाम दलित राजनीति के घेरे में रखकर देखने की कोशिश हो रही है, लेकिन यह उचित नहीं है. मांझी का विरोध करनेवाले सिर्फ सवर्ण नहीं हैं और मांझी भी इस बात को समझ रहे हैं. इसीलिए वे बार-बार कह भी रहे हैं कि वह जिसे समझाना चाहते हैं, वह वर्ग उनकी बातों को अच्छी तरह से समझ रहा है. केसी त्यागी, शरद यादव, अनंत सिंह जैसे नेता लगातार मांझी का विरोध कर रहे हैं, लेकिन मांझी अपनी लय में हैं.

दूसरी ओर नीतीश समझ चुके हैं कि साल 1966 का इतिहास फिर से दुहराया जा रहा है. 1966 में इंदिरा गांधी को गूंगी गुड़िया समझकर प्रधानमंत्री बनाया गया था, लेकिन उस गूंगी गुड़िया ने भारतीय राजनीति में सबकी जुबान बंद कर दी थी. मांझी भी उसी राह पर हैं. अब बिहार की राजनीति दो खाने में बंटकर होगी. एक ओर दलित राजनीति, दूसरी ओर अपर बैकवर्ड पॉलिटिक्स. जो सवर्ण हैं, वे भी अपना ठिकाना तलाशेंगे. उनके लिए अपर बैकवर्ड से ज्यादा आरामदेह ठिकाना मांझी वाला होगा. चुनाव के पहले बहुत सारे सवर्ण नेता भाजपा में जाने की कोशिश करेंगे. भाजपा की एक सीमा होगी, वह सबको नहीं ले पाएगी. ऐसे में जो लोग बचेंगे, वे मांझी के नेतृत्व को स्वीकार करेंगे.

पहले उत्तर प्रदेश में यह देखा जा चुका है कि मुलायम से उकताया हुआ समूह मायावती के नेतृत्व में आ गया था, विशेषकर सवर्ण समूह. बिहार में भी वैसा ही होगा. अपर बैकवर्ड क्लास का राज पिछले तीन दशक से है. उससे उकताये हुए लोग नए नेतृत्व की तलाश करेंगे. उनका प्रतिनिधित्व अब मांझी करेंगे. आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के इस दौर में मांझी बिहार में चैंपियन नेता बन चुके हैं. इस मायने में वह लालू और नीतीश को पीछे छोड़ चुके हैं.

मांझी की समझदारी पर भी गौर करना होगा. वह कभी किसी जाति के खिलाफ नहीं बोलते. वह सिर्फ दलित, आदिवासियों व अतिपिछड़ों के कुछ खास समूहों के पक्ष में बोल रहे हैं. वह सबसे तालमेल बिठाकर चल रहे हैं. वह केंद्र की भी प्रशंसा दिल खोलकर करते हैं और नीतीश का भी गुणगान करते हैं. वह बखूबी समझते हैं कि बिहार की राजनीति में आगे क्या होनेवाला है और उसके लिए उन्हें किस राह पर चलना चाहिए.

लेखक राजनेता व राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनके विचार निराला से बातचीत पर आधारित हैं. 

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बंदोपाध्याय कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में 21 लाख एकड़ जमीन है. यहां 17 लाख लोग भूमिहीन हैं. छह लाख लोगों के पास घर बनाने के लिए भी जमीन नहीं है. घोषणा ही करनी थी या कुछ करना ही था तो वही करते कि बंदोपाध्याय के बताये रास्ते के अनुसार 21 लाख एकड़ जमीन को गरीबों, दलितों, महादलितों, भूमिहीनों, घरहीनों के बीच बांट देते. महादलितों से जुड़ा एक अहम मुद्दा मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी और खुद मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के इलाके, गया से भी है, जहां हर साल दर्जनों बच्चे सुविधा, जागरूकता के अभाव में इंसेफलाइटिस की वजह से मर जाते हैं, जो बच जाते हैं वे जीवनभर विकलांग बने रहते हैं. अब तक ना तो नीतीश कुमार-भाजपा की सरकार की ओर से इस पर कोई ठोस पहल हुई थी और न ही जीतन राम मांझी की ओर से इस पर बात हुई है.

एक सवाल सीतामढ़ी के टेम्हुआ गांव का भी है, जहां कालाजार से 50 के करीब दलितों की मौत हुई है. सवाल तो यह भी है कि बिहार में जो अराजक स्थिति उत्पन्न हुई है, उसमें सबसे ज्यादा भूमिका हाल के वर्षों में नीतीश कुमार और भाजपा सरकार की ही देन रही है. नीतीश कुमार की सरकार ने ही अमीरदास आयोग को रिपोर्ट तैयार कर देने के बाद भंग कर दिया था, जिस अमीरदास आयोग की रिपोर्ट से इस बात का खुलासा होना था कि नब्बे के दशक में बिहार में हुए नरसंहारों में रणबीर सेना के जरिए राजनीतिक दलों के लोगों ने शामिल होकर तमाम कुकृत्य किए थे. इसका एक उदाहरण हाल के दिनों में दिखा, जब भाजपा के कोटे से केंद्र में मंत्री बने गिरिराज सिंह के बारे में (मानवाधिकार आयोग के आईजी अमिताभ दास) ने यह रिपोर्ट दी कि गिरिराज सिंह के संबंध रणबीर सेना से रहे हैं. गिरिराज सिंह मंत्री बन चुके हैं, माना जा रहा है कि अब अमिताभ दास को इसकी सजा मिलेगी.

मांझी के इर्द-गिर्द घूम रही राजनीति के चक्र में बिहार के सामयिक सवाल गायब हो चले हैं. अभी चुनाव में दस माह बाकी हैं लेकिन चुनावी जंग अभी से सिर चढ़ने लगी है. मांझी के बयान को बार-बार सवर्ण बनाम दलित नेता के रूप में दिखाने की कोशिश हो रही है. प्रेमकुमार मणि जैसे राजनीतिक विश्लेषक व नेता बार-बार बता रहे हैं कि सत्ता के शीर्ष की राजनीति से तो सवर्ण कई साल पहले ही आउट हो चुके हैं. दरअसल यह लड़ाई अब पिछड़ा बनाम दलित की लड़ाई हो चुकी है. मणि की बातें इस नए टकराव की तरफ इशारा करती हैं. मांझी अपनी बातों में कभी पिछड़ों की बात नहीं करते. वे बार-बार दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक और अतिपिछड़ा समूह की वकालत करते हैं. पिछड़े नेता ऊर्जा लगाये हुए हैं कि मांझी जिस नये राजनीतिक समूह का निर्माण कर रहे हैं, उसमें किसी तरह पिछड़ों को भी शामिल कर लें, लेकिन मांझी अपनी धुन में हैं. शायद वे जानते हैं कि पिछड़ों से दलितों को अलगकर ही वे आगे भी चैंपियन नेता बने रह सकते हैं, इसलिए वे बार-बार दुहरा रहे हैं कि दलितों की आबादी 22 प्रतिशत है. मुसलमान 16 प्रतिशत. बस यही मिल जाए तो किसी की जरूरत नहीं. मांझी खुद तहलका से बातचीत में कह चुके हैं कि वे ठेके-पट्टे में पिछड़ों को आरक्षण देने के पक्ष में नहीं हैं, वे दलितों के लिए और विशेषकर महादलितों के लिए आरक्षण चाहते हैं. मांझी तहलका से बातचीत में कह चुके हैं कि लालू यादव दलितों के हितैषी नेता नहीं हैं. मांझी तहलका से बातचीत में कह चुके हैं कि समय बतायेगा कि किसके नेतृत्व में चुनाव होगा. मांझी अपनी सारी बातें कह चुके हैं, कही हुई बातों के अनुसार ही राजनीति कर रहे हैं. वे नीतीश को भगवान भी कहते हैं, नरेंद्र मोदी को शानदार-जानदार प्रधानमंत्री भी कहते हैं. वे सत्ता की सियासत को साधने में ऊर्जा लगाये हुए हैं, दलितों की अस्मिता को उभारकर, लेकिन दलितों के मूल सवालों से मुंह चुराकर.