सीपीआई (एम) : आधी सदी, अधूरा सफर

aadhi_sadi(आलेख के बीच-बीच में आए इटैलिक पैराग्राफ एक सीपीआई (एम) कार्यकर्ता की डायरी के संपादित अंश हैं. इससे वामपंथी नेतृत्व के फैसलों और जमीन से उनके कटाव को समझने में आसानी होती है)

आधी सदी पहले चीनी आक्रमण के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की नेशनल काउंसिल की एक मीटिंग से 32 सदस्य उठकर बाहर निकल गए थे, जिन्होंने देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई (एम) की बुनियाद डाली. मसला था- भारत में क्रांति कैसे होगी, इसकी रणनीति पर मतभेद. लेकिन बुर्जुआ पार्टियों के घाघ नेताओं के बीच मध्यस्थता कराने, उनके ईगो सहलाने और पुचकारने के माहिर सीपीआई (एम) के पूर्व महासचिव और उसके पहले पोलित ब्यूरो के सदस्य कॉमरेड हरिकिशन सिंह सुरजीत ने इसे कुछ और तरह से व्याख्यायित किया था, ‘नेतृत्व के एक हिस्से को चीन समर्थक होने के आरोप में गिरफ्तारकर जेल में डाल दिया गया था, इसका फायदा उठाकर दूसरे गुट ने पार्टी पर कब्जा कर लिया. जो जेल गए थे वही सीपीआई (एम) बनानेवाले थे.’

यह साफगोई सच के ज्यादा करीब है कि झगड़ा भारतीय परिस्थितियों में क्रांति का रास्ता पहचानने का नहीं था, बल्कि सोवियत रूस या चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों की लाइन में से एक को स्वीकार करने का था, जिनके आपसी मतभेद जगजाहिर हो चुके थे. विभाजन के बाद मुंबई में हुई सोवियतपंथी सीपीआई की पार्टी कांग्रेस में भी चीनी आक्रमण और गुटबाजी को जिम्मेदार बताया गया था. इस तरह कम्युनिस्टों का पहला घरेलू बंटवारा अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के मतभेदों के कारण हुआ था.

(सारे देश में पार्टी दफ्तर, फंड, फादरलैंड से संबंध, कम्युनिस्ट आंदोलन की विरासत के दस्तावेज उन्हें और नेता हमें मिले. हमारी पार्टी को सब कुछ लगभग शून्य से शुरू करना पड़ा)

तीन साल बाद 1967 में सीपीआई (एम) में फिर विभाजन हुआ. चारू मजूमदार, कानू सान्याल के नेतृत्ववाले गुट सीपीआई (एम-एल) ने संसदीय राजनीति की भर्त्सना करते हुए सशस्त्र क्रांति को लक्ष्य घोषित किया. नक्सलबाड़ी विद्रोह के प्रभाव में इस गुट को नक्सलाइट कहा गया. जंगल और कागज दोनों जगहों पर खुद को नक्सल कहनेवाले अब इतने संगठन हैं कि गिनती मुश्किल है.

(मुझे लगता है पार्टी क्लास और जार्गनबाजी से कम्युनिस्टों के मतभेदों को नहीं समझा जा सकता, इसके बजाय उनके खानपान, बॉडी लैंग्वेज, उपन्यास-कहानियों से ज्यादा मदद मिलती है. पार्टी क्लास में बंगाल से केंद्रीय कमेटी के एक नेता आए थे, जो अजीब भाषा में बोल रहे थे. अधिरचना, प्रतिक्रियावादी, प्रोलेतेरियत, सिन्थेसिस, पेटी बोर्जुआ, त्रात्सकाइट, लुम्पनाइजेशन वगैरह अनजानी मिट्टी के बड़े-बड़े ढेले किसानों पर फेंके जा रहे थे. ये प्राइमरी स्कूल में भी मास्टर से पिटने के डर से ऐसे ही झूठ-मूठ मुंडी हिलाते रहे होंगे. हमारे सूबे के एक नेता हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे अकेले हैं जिन्होंने पंखे में चुटिया बांध कर कार्ल मार्क्स की दास कैपिटल पढ़ी है, उन्हीं को आर्थिक प्रश्नों पर अमूर्त प्रवचन के लिए हर बार खड़ा कर दिया जाता है. वे ज्ञान के गुमान से तने रहते हैं, लेकिन सच तो यह है कि पढ़े-लिखे मूर्ख हैं. किसान सभा के संस्थापक स्वामी सहजानंद सरस्वती की किताब के पहले पन्ने पर लिखा है, हमको ऐसा समाजवाद चाहिए जो खैनी की पिचपिच और रजाई की चीलर से पैदा हुआ हो, राहुल सांकृत्यायन तो छत्तीस भाषाएं जानते थे, लेकिन उन्होंने “भागो नहीं दुनिया को बदलो” भोजपुरी में लिखी, सव्यसाची की कितबिया को भी जोड़ लें, तो यही तीन अपने पल्ले पड़ी बाकी पार्टी, क्लास-कचहरी की मिसिल है जिसको बूझने के लिए पहले बैरिस्टरी, फिर फारसी की पढ़ाई करनी पड़ेगी. हद तो यह है कि बिना समझे कॉमरेड लोग बहस भी करने से लगे हैं और उन्हीं पहेली जैसे शब्दों से डराकर चुप भी करा देते हैं.)

सीपीआई (एम) ने इमरजेंसी का विरोध तो किया, लेकिन उसका ताप इतना नहीं था कि जनता के गुस्से को जनता पार्टी की तरह समर्थन में बदल सके

सीपीआई (एम) बनने के चार साल बाद केरल में ईएमएस नंबूदिरीपाद के नेतृत्व में इनकी पहली सरकार बनी. 1977 में बंगाल में वाममोर्चा की सरकार बनी, जो लगातार चुनाव जीतते हुए 2011 तक यानी तीन दशक से अधिक समय तक सत्ता में रही. अस्सी का दशक आते-आते सीपीआई (एम) राष्ट्रीय राजनीति की बड़ी ताकत बन चुकी थी, जो वीपी सिंह, देवगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल की सेकुलर सरकारों को चलाने में अहम भूमिका अदा करने लगी. नब्बे के दशक में बनी युनाइटेड फ्रंट सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में पहली पसंद बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु थे. इस प्रस्ताव को पार्टी ने ठुकरा दिया जिसे ज्योति बसु ने ‘हिस्टाेरिक ब्लंडर’ यानी ऐतिहासिक चूक कहा था.

सीपीआई (एम) के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी के अनुसार इस समय सीपीआई (एम) के सत्तर लाख पार्टी सदस्य और फ्रंटल संगठनों के सात करोड़ से अधिक सदस्य हैं, लेकिन यह पार्टी अपने इतिहास के सबसे बुरे दिन काट रही है. 2009 के ही लोकसभा चुनाव में इसके सांसदों की संख्या 44 से घटकर 16 हो गयी थी. एक तरफ नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का विरोध और दूसरी तरफ बंगाल के औद्योगीकरण के लिए उन्हीं नीतियों को लागू करने के नतीजे में हुए सिंगुर-नंदीग्राम के गोलीकांड और कैडर की गुंडागर्दी का नतीजा यह हुआ कि 2011 में ममता बनर्जी ने वामपंथियों का सबसे मजबूत किला ढहाकर सत्ता से बाहर कर दिया. 2014 के लोकसभा चुनाव में बंगाल से सीपीआई (एम) के सिर्फ दो सांसद जीत पाए.

पिछले चुनाव में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद वामपंथियों ने दक्षिणपंथ के नए उभार से लड़ना प्रमुख लक्ष्य घोषित किया है. उनका मानना है कि भारत की वास्तविक सत्ता बुर्जुआ और जमींदारों के नुमाइंदों के नियंत्रण में है, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के मुनाफाखोरों के साथ गठजोड़ कर लिया है.
अरबों के घोटालों, वंशवाद, सतही मुद्दों पर अपराधियों को चुनाव जिताने के अभ्यस्त और साथ ही घुटन भी महसूस करते समाज में वामपंथियों की ईमानदारी, गरीबों, वंचितों को राजनीति के एजंडे पर लाने की नीयत, विपरीत परिस्थितियों में लड़ने की क्षमता पर संदेह नहीं किया जा सकता. हर लिहाज से सबसे बड़े और निर्णायक हिंदी पट्टी के इलाके में अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद उनकी नाकामी स्तब्ध करती है, यह एक ऐसा अवरोध है जिसने न सिर्फ वामपंथ, बल्कि किसी भी अन्य प्रगतिशील राजनीतिक विकल्प का रास्ता रोक रखा है.

(कम्युनिस्ट समाज की व्यावहारिक सच्चाइयों को मार्क्सवादी फर्मे में कसकर देखने के बजाय उन सच्चाइयों के फर्में में सिद्धांत को परखते तो बाजी पलट सकते थे. एक अच्छी बात है कि कम्युनिस्ट वंशवादी नहीं हो सकते क्योंकि कम्युनिज्म कभी पारिवारिक मूल्य नहीं बन पाया. कम्युनिस्ट नेताओं के बच्चे या तो नौकरी करते हैं या उन पार्टियों की ओर लपकते हैं, जिनके नेताओं से तुलना करते हुए वे बचपन से अपने बाप को कोस रहे होते हैं.)

हर लिहाज से सबसे बड़े और निर्णायक हिंदी पट्टी के इलाके में तमाम तरह की अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद पार्टी की नाकामी स्तब्ध करती है

आजादी के बाद कांग्रेस के एकछत्र राज के जमाने में सीपीआई ने हिंदी पट्टी में सशक्त विपक्ष की भूमिका अदा करते कई बड़े जनसंघर्षों को संगठित किया, लेकिन वह सोवियत संघ की ओर झुकाव रखनेवाले जवाहरलाल नेहरू के विचित्र ब्रांड के बांझ समाजवाद के झांसे में ऐसा फंसी कि उसकी चमक खत्म होने लगी, यहां तक कि वह इमरजेंसी का समर्थन करने की हद तक गई, जिससे उसकी साख को बहुत बुरी तरह धक्का लगा.

यहां ध्यान दिया जाना चाहिए कि सीपीआई जिस समय कांग्रेस के साथ दिखाई दे रही थी वह गैर कांग्रेसवाद का दौर था, कांग्रेस के वंशवाद, भ्रष्टाचार, राजनीति के अभिजन कल्चर और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ एक राजनीतिक विकल्प आकार ले रहा था. इसमें कोई दो राय नहीं कि
सीपीआई का नेतृत्व उस वक्त की राजनीतिक आकांक्षाओं को पहचान पाने में नाकाम रहा था या अगर पहचान भी गया, तो उनके अनुरूप चलने की हिम्मत नहीं कर सका.

इमरजेंसी के दौर में कांग्रेस का समर्थन करना ऐसा राजनीतिक पाप था जिसका कोई प्रायश्चित नहीं हो सकता था और इसकी कीमत सीपीआई को जनाधार के घटने और नेताओं के निस्तेज हो जाने के रूप में चुकानी पड़ी. रही-सही कसर नब्बे के दशक की शुरुआत के तुरंत पहले सोवियत संघ के विघटन ने पूरी कर दी, इससे समूचे वामपंथ को भारी सदमा लगा, लेकिन सीपीआई तो जैसे पितृविहीन होकर अस्तित्व के संकट से जूझने लगी.

वामपंथियों का ठेठ देशी यथार्थ से पाला अस्सी के उत्तरार्ध और नब्बे के दशक में पड़ा, जब धर्म और जाति राजनीति की केंद्रीय धुरी बनकर सामने आए

(नकली कम्युनिस्ट नेताओं की पहचान है कि उनके ओसारे के एक कोने में कुल्हड़ और शीशे के गिलास रखे रहते हैं, ताकि घर आनेवाले दलित और मुसलमान कार्यकर्ताओं को चाय पिलाई जा सके. अक्सर निचली जाति का कोई कॉमरेड जिला कमेटी की बैठक में छुआछूत बनाम मेहनतकश कतारों से नेतृत्व की दूरी का सवाल उठाता है, तो नेता किचकिचाते हैं कि डी-क्लास वे हुए उनका परिवार नहीं, क्या आप लोग मुझे घर से ही निकलवा देना चाहते हैं? ज्यादातर ऐसे नेता इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी में आए थे कि उनके परिवारों को खेती के लिए समय पर सस्ते मजदूर मिल सकें, उन्हीं के बच्चे फादरलैंड के स्वर्णकाल में डाक्टरी, इंजीनियरी पढ़ने सोवियत रूस गए. मंहगी मुसहर मजाक करता है- अगर लेनिन जी के कहनाम से कामरेड आंख की पुतली होता है तो हम लोगों को अलग बरतन में काहे चाय पिलाते हैं.)

दूसरी तरफ सीपीआई (एम) ने इमरजेंसी का विरोध तो किया, लेकिन उसका ताप इतना नहीं था कि जनता के गुस्से को जनता पार्टी की तरह समर्थन में बदल सके, लेकिन कांग्रेस विरोधी मिजाज का फायदा उठाते हुए वह पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की सरकार बनाने में कामयाब रही. वहां वामपंथियों ने संगठन का विस्तार गांव स्तर तक करते हुए संविधान के दायरे में भूमि सुधार लागू करने, पंचायती राज का विकेंद्रीकरण करने और एक हद तक वंचित तबकों को उनके अधिकारों का अहसास कराने में कामयाबी हासिल की जिसके कारण वे तीन दशक से भी ज्यादा समय तक सत्ता के नशे में चूर होकर बहक जाने तक टिके रहे.
वामपंथियों को मानने में चाहे जितना गुरेज हो, लेकिन इस कामयाबी में खुद को विशिष्ट माननेवाली बंगाली उपराष्ट्रीयता का सांस्कृतिक रंग भी घुला हुआ था जिसके कारण पार्टी का विस्तार बंगालियों और स्थानीय आदिवासियों के संघर्ष से जलते त्रिपुरा तक तो हुआ, लेकिन पड़ोसी बिहार और उसके आगे हिंदी पट्टी के अन्य राज्यों में नहीं हो पाया.

(अजीब नारा है- यूपी भी बंगाल बनेगा, बलिया ही शुरुआत करेगा. यूपी अपनी कद काठी और पहचान के साथ क्यों नहीं वामपंथियों के साथ खड़ा हो सकता है.)
अगर वामपंथी अपने कट्टर वैचारिक मतभेदों, झंडे की तरह फहरानेवाली नास्तिकता, वर्ग संघर्ष के स्वप्नों के साथ भी स्वतंत्र भूमिका निबाहते रहते, तो भी गनीमत होती, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. हिंदी पट्टी में बड़े उद्योग लगभग नहीं हैं, जहां हैं भी, वहां पार्टी के सबसे जहीन नेता कारखानों और लेबर कोर्ट के बीच उलझकर रह गए. अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट नेताओं के चमकदार नामों के आभामंडल में ट्रेड यूनियन करना कुछ वैसी ही प्रेरणा थी जैसे बॉलीवुड के ज्यादातर अभिनेता और एक्स्ट्रा अमिताभ बच्चन हो जाने का अरमान पाले रहते हैं.

(ट्रेड यूनियन का नेता अंततः लेबर कोर्ट का वकील होकर समाप्त हो जाता है. सिर्फ वेतन, भत्ते और काम की परिस्थितियां सुधारने की लड़ाई लड़ने के कारण मजदूर तभी तक यूनियन के साथ रहते हैं जब तक आर्थिक मसलों पर लड़ाई चलती है. बाकी समाज से अलगाव रेलवे, बैंक, बीमा से छोटे कारखानों तक की यूनियनों में महसूस किया जा सकता है. इन मजदूरों का भी कोई वर्ग नहीं है क्योंकि वे जाति से ही गांव और यहां जाने जाते हैं. इस प्रश्न से कम्युनिस्टों को टकराना ही होगा, वे कैसी भी बुल्गागिन कट दाढ़ी रख लें, लेकिन जाति उनका पीछा नहीं छोड़ेगी. ऐसा तभी संभव है जब अनगढ़, देसी, मौलिक सोच वाले नेताओं को उभरने का मौका दिया जाएगा)

वामपंथियों का ठेठ देशी यथार्थ से पाला अस्सी के उत्तरार्ध और नब्बे के दशक में पड़ा, जब धर्म और जाति राजनीति की केंद्रीय धुरी बनकर सामने आए. मंडल और कमंडल यानी धर्म और जाति की राजनीति को निहायत अभारतीय ढंग से समझने की कोशिश करने के कारण पलिहर के बानर बन कर रह गए. पहले कांग्रेस से लड़ने के नाम पर फिर सांप्रदायिकता के विरोध में दोनों वामपंथी पार्टियों ने जनता दल, समाजवादी पार्टी जैसी मध्यमार्गी, अवसरवादी पार्टियों के एजंडे के पीछे-पीछे चलना शुरू कर दिया जो सबसे अधिक घातक साबित हुआ.

अजीब स्थिति थी उस दौर की जब साझा रैलियों में सबसे अधिक लाल झंडे दिखाई देते थे, लेकिन मुद्दा वीपी सिंह, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह का आभामंडल हुआ करता था. इन्हीं नेताओं के नामों के आगे कॉमरेड लगाकर लाल सलाम करने का अजीबोगरीब फैशन भी साफ नजर आ रहा था.

(भारतीय राजनीति के इतिहास का सबसे बड़ा मोतियाबिन्द है कि कम्युनिस्टों को जाति नहीं दिखाई देती और उनके कार्यकर्ता पिछड़े मुलायम सिंह और दलित कांशीराम के साथ जा रहे हैं. क्या यह अपवाद था कि केरल में एके गोपालन जैसे नेता ने गुरूवयूर मंदिर में दलितों को प्रवेश दिलाने के लिए पुजारियों के घंटे से मार खाई थी. उन्हीं के नाम पर बने गोपालन भवन में पार्टी का हेडक्वार्टर है. पोलित ब्यूूरो में गोपालन जैसे कम लोग पहुंच पाए, ज्यादातर कैम्ब्रिज, आक्सफोर्ड, एडिनबर्ग और देश के इलीट कालेजों से पढ़कर आए नेताओं ने मार्क्सवाद के द्वारा उपलब्ध कराए वर्ग के फर्मे में कसकर जाति को देखने की कोशिश की. वाकई यह मास्को में बारिश-भारत में छाता जैसी गलती थी जिसका नतीजा रहा कि भूमिहीन खेत मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी दिलाने का नारा कांशीराम के सम्मान और सत्ता में भागीदारी के नारे के आगे नहीं चल पाया. मंडल कमीशन लागू हुआ, सर्वण लड़के आत्मदाह करने लगे, कम्युनिस्टों ने गजब किया. नेताओं ने कहा-, ‘आरक्षण पौधों में वाष्पोत्सर्जन जैसी आवश्यक बुराई है.’ यहां बौखलाए छात्र और युवा पूछ रहे हैं, मंडल के साथ हो या खिलाफ हो, लेकिन कॉमरेड लोग वनस्पतिशास्त्र पढ़ाकर अपना मजाक बना रहे हैं. अलग बात है चुनाव में जाति के आधार पर टिकट पाया कॉमरेड भी इतनी सफाई से बात करता है कि वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाता नजर आता है. किताब पढ़कर राजनीति करने वाले नेताओं को जाति से मुंह इसलिए चुराना पड़ता है क्योंकि मार्क्स से लेकर माओ तक ने जाति पर कुछ नहीं कहा है.)

इस रणनीति को वामपंथ ने बृहद मोर्चा नाम दिया था, जिसके अनुसार इन मध्यमार्गी दलों के कैडर को वामपंथियों की ईमानदारी और संगठन शक्ति से प्रभावित होकर उनके साथ आ जाना था, लेकिन हुआ ठीक उल्टा. जिस अनुपात में वामपंथियों की स्वतंत्र पहलकदमी की ताकत समाप्त होने लगी. उनका किसान आधार भी इन मध्यमार्गी पार्टियों की ओर खिसकने लगा. इन पार्टियों के साथ तालमेल और गठबंधन को बनाए रखने के लिए वामपंथियों ने समाज में रेडिकल बदलाव यानी क्रांति की तैयारी में चलाए जा रहे जनसंघर्षों को भी छोड़ दिया. मध्यमार्गी पार्टी के नेताओं के व्यक्तिगत विचलनों और अवसरवादी कलाबाजियों की अनदेखी की और छोटी-छोटी चुनावी सफलताओं के लिए बहुत से समझौते किए. इस दौर को वाममोर्चे के सरकारी वामपंथ के रूप में पतित होने के दौर के रूप में याद किया जाता है. वामपंथी भी जातिगत आधार पर टिकट देने लगे और पार्टी कार्यालयों में टिकटार्थियों के धरने और उपवास होने लगे.
इसी समय पार्टी में एक किस्म की नौकरशाही भी हावी होने लगी, जिसके लिए सदस्यता की रसीदें आंदोलन से ज्यादा जरूरी हो गईं. गेहूं कटाई के बाद लेवी की वसूली और धान कटाई के बाद जेल भरो कर्मकांड हो गए. राज्यों का काम ऊपर से आए सर्कुलर का पालन करना हो गया, नेतृत्व के आचरण पर सवाल उठाने की बहुत पुरानी परंपरा खत्म हो गई.

सिंगुर-नंदीग्राम गोलीकांड के बाद तो वामपंथियों ने नवउदार और पूंजीवादी आर्थिक नीतियों के विरोध का नैतिक अधिकार भी जैसे खो दिया है

(तिरूवनन्तपुरम में बड़ी पार्टी कांग्रेस होनेवाली है. अगर किसान सभा की दस हजार मेम्बरशिप नहीं हुई, तो पार्टी के जिला सचिव डेलीगेट नहीं बन पाएंगे. आज चाय की गुमटी पर एक डोली रुकी, तो उन्होंने पास के गांव के कहारों से मेंबर बन जाने के लिए कहा. कहारों ने कहा, उनके टोले में किसी के भी पास एक धुर जमीन नहीं है वे किसान सभा के मेंबर कैसे बन सकते हैं. नेताजी ने कहा, अभी किसान सभा में हो जाओ बाद में खेत मजदूर सभा में भी कर देंगे. उन्होंने कहा, नेताजी हमारे रसीद लेने से आपकी इज्जत बढ़ती है तो बना दीजिए, लेकिन हम लोग फीस नहीं दे पाएंगे. नेताजी ने कहारों से दुलहिन का नाम पूछकर उसकी भी रसीद काट दी, जिसे कभी पता नहीं चल पाएगा कि उस पर कितनी भारी जिम्मेदारी आ पड़ी है. सम्मेलनों में जब जनसंगठनों की बढ़ती सदस्यता का जिक्र आता है तो मुझे उन कहारों और दुलहिन की याद आती है.)

अगले साल उन कहारों को खेत मजदूर सभा का भी मेंबर बना दिया गया.

(आज समझ में आया कि दलित औरतें पार्टी के बारे में क्या सोचती हैं. एक महिला ने पार्टी के एक नेता पर बलात्कार का आरोप लगाया था जिसके लिए पंचायत बुलाई गई थी और मुझे जिला कमेटी ने आब्जर्वर बनाकर भेजा था. नेताजी एक साल से अक्सर उसके घर पर रुकते थे, उसके दो बच्चों को पढ़ा दिया करते थे. महिला ने कॉमरेडों के बीच बेधड़क कहा, ‘सवर्ण जमींदार हमारे साथ कुछ करते हैं, तो बदले में ज्यादा मजदूरी, साबुन, साड़ी या नकद रुपया देते हैं. इनसे पूछो कि मुझे क्या दिया जो साल-भर से हैंडपंप चला रहे हैं.’ मुझसे कुछ कहते नहीं बना. क्या पार्टी का उससे संबंध कुछ लेने-देने का ही है. वह ऐसा सोचती है तो कुछ गलत नहीं है, क्योंकि बुर्जुआ पार्टियां उन्हें लालच देकर मुफ्त की बस से रैली, धरने में ले जाती हैं. पहले चुनाव के समय से ही इस गांव में वोट के लिए पैसा और शराब चलते हैं. उसे हम बता ही कहां पाए हैं कि वह पार्टी में किसी दूसरे का काम नहीं करती, बल्कि अपने हक के लिए लड़ रही है.)
इसी दौर में सीपीआई (एम) महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजीत को बुर्जुआ राजनीतिज्ञों ने चाणक्य का खिताब दिया, जिनका काम मध्यमार्गी पार्टियों के नेताओं के बीच समझौते कराना, गठबंधन को चलाना और जोड़-तोड़ करना था. ऊपर से चल रही हवा के प्रभाव में राज्य इकाइयों में भी सुरजीत के पेपरबैक संस्करण पैदा हो गए और वहां की सरकारों से लाभ लेने लगे. जिस समय सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के पुछल्ले के रूप में वामपंथी लगे हुए थे, वे अच्छी तरह जानते थे कि इसके पुरोधा भी इन मूल्यों के प्रति कितने गंभीर हैं. ये मुद्दे सिर्फ सत्ता पाने के औजार हैं. जल्दी ही राज्यों में उनकी सरकारें बनने के बाद सामाजिक न्याय की जगह वंशवाद, भ्रष्टाचार, अपराधीकरण और कांग्रेस जैसी ही पूंजीपरस्त नीतियों का जलवा नजर आने लगा. जब जनता का मोहभंग दिखने लगा तब भी वे उनके पीछे लगे रहे.

इस अवसरवादी राजनीति ने हिंदी पट्टी में एक ओर विशुद्ध पॉवर पालिटिक्स और सत्ता पाकर व्यक्तिगत हितों में उसका दुरुपयोग करने वाली सपा, बसपा, राजद, जेडी (यू) जैसी बुर्जुआ पार्टियों को और उनकी प्रतिक्रिया में भाजपा जैसी सांप्रदायिक पार्टियों को जड़ें जमाने का मौका दिया. कांग्रेस के कमजोर होने से हिंदी पट्टी में जो स्पेस बना उसे भरने की सबसे स्वाभाविक दावेदार होते हुए भी वामपंथी पार्टियां इमरजेंसी के बाद एक बार फिर मुंह ताकती रह गईं क्योंकि शार्टकट के चक्कर में वामपंथी अपने मुद्दे और स्वतंत्र पहलकदमी भूल चुके थे.

(जब सोवियत संघ का अमेरिका से शीतयुद्ध चला करता था तब कम्युनिस्टों का प्रिय कर्तव्य दिल्ली में रैली कर विश्वशांति की कामना और साम्राज्यवाद का विरोध हुआ करता था. राममंदिर मुद्दे से भाजपा के उभार के बाद से वे सांप्रदायिकता का विरोध करने के लिए किसी भी सामंतवादी, पूंजीवादी, वंशवादी पतनशील पार्टी के साथ जनवादी मोर्चा बना लेते हैं और न्यूनतम साझा कार्यक्रम की लग्गी लगाकर किसी भी सरकार का समर्थन कर देते हैं. यह पिछली सीट पर बैठकर ड्राइवर को निर्देश देने का सुखद काल होता है. जल्दी ही ड्राइवर आवश्यक बहुमत का जुगाड़कर उन्हें सड़क किनारे उतार देता है और वे धकियाए जाने के बाद कहते हैं, भाजपा, कांग्रेस और तीसरे मोर्चे की आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है, लेकिन फिर गठबंधन का अवसर आते ही शामिल हो जाते हैं, जिससे उनकी विश्वसनीयता को जबरदस्त नुकसान हुआ है. ताज्जुब है कि जितनी आसानी से वे बुर्जुआ पार्टियों से गठजोड़ कर लेते हैं, आपस में नहीं कर पाते. वाम मोर्चे का न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने की बैठकों में जूते में दाल बंटती है. वर्तमान को दफना कर अतीत को जिलाया जाता है, प्रतिक्रियावादी, संशोधनवादी, नक्सलवादी और छद्म जनवादी आपस में लड़कर अपने दफ्तरों को लौट जाते हैं. पूछने का मन करता है- कॉमरेड धर्म अफीम है और दंगे का आधार धर्म है, तो आप घोषित नास्तिक कैसे उसे रोक लेंगे.)

2004 के बाद सत्ता में आई कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए-वन और टू की सरकारों को वामपंथियों ने जिस पैंतरेबाजी से चलाया, उसने जनता को विकल्पहीन बनाकर कांग्रेस को नई जिंदगी दी और उनके सबसे मजबूत किले बंगाल को भी ढहाने का गोला बारूद ममता बनर्जी को मुहैया कराया. सिंगुर-नंदीग्राम गोलीकांड के बाद तो वामपंथियों ने नवउदार आर्थिक नीतियों के विरोध का नैतिक अधिकार भी जैसे खो दिया है.

मध्यमार्गी बुर्जुआ पार्टियों के पीछे चलते हुए संसदीय राजनीति में कामयाब होने की आकांक्षा की भूल को वामपंथी अब भी स्वीकार करने को तैयार नहीं दिख रहे हैं, लेकिन वे अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में जनता की स्वतःस्फूर्त, लेकिन क्षणिक भागीदारी और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के उभार और अब बिखराव से जूझने की प्रक्रिया को बड़े गौर से देख रहे हैं. हो सकता है उन्हें कभी समझ में आए कि राजनीति में अपना एजेंडा, स्वतंत्र पहलकदमी, सत्ता लोलुप तिकड़मी नेताओं से दूरी और भारतीय परिस्थितियों के हिसाब से खुद को ढालते हुए जनता से दीर्घकालीन रिश्ता कायम करने में ही कामयाबी की कुंजी छिपी है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं)