सेंसर बोर्ड का कॉन्सेप्ट ही गलत

RAJ AMIT KUMAR 1

 

आपकी फिल्म किस बारे में है

फिल्म में दो अलग-अलग कहानियां हैं. दो अलग-अलग मुद्दे हैं. ये दोनों कहानियां कैसे एक-दूसरे से जुड़ती है ये दर्शक देखेंगे तो समझ जाएंगे. कोई भी फिल्मकार जब कुछ बनाता है तो ऐसे ही नहीं बनाता. जब आप फिल्म देखेंगे तो पाएंगे कि लगभग एक ही जैसी मानसिकता के लोग दोनों कहानियों में मौजूद हैं. दोनों में आपको किरदारों और स्थितियों की ‘मिरर इमेज’ नजर आएगी. आपको एक कहानी दूसरी का आईना नजर आएगी. मुझे लगता है कि शायद दर्शक इसे समझ सकेंगे कि मैं क्या कहने की कोशिश कर रहा हूं.

भारत में फिल्म पर प्रतिबंध क्यों लगा?
अब ये सवाल तो उनसे पूछा जाना चाहिए जिन्होंने ये किया है. कारण तो जो मुझे बताया गया है उसे लेकर मैं हाई कोर्ट जाऊंगा. उनके कारण ये हैं कि वे समझते हैं अगर कोई फिल्मकार इस तरह की बातें करेगा तो देश में बड़ी समस्या पैदा करेगा. मेरा अनुमान है कि यही कारण है. अब उसको वे किसी भी तरह से समझाने की कोशिश करें या कागज पर लिख दें ये और बात है. उनको दिक्कत है कि कोई धर्म को लेकर बोले या देश में जो वैकल्पिक लैंगिकता है उस पर बात करे तो उनको इससे बड़ी समस्या है.

भारत में फिल्म रिलीज करने के लिए क्या कर रहे हैं?
भारत में फिल्म रिलीज करने की कोशिशों के तहत एक याचिका (हस्ताक्षर अभियान) शुरू किया है. यू-ट्यूब पर एक वीडियो अपलोड कर लोगों से फिल्म रिलीज करवाने के लिए अपील की है. उन सब देशवासियों से गुजारिश कर रहा हूं जो वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भरोसा करते हैं. इसमें किसी तरह की टांग अड़ाने का हक न तो सरकार को है, न ही सेंसर बोर्ड को और न किसी और को है. मैं एक अपील कर रहा हूं, फिल्म इंडस्ट्री के लोगों से, आम आदमी से कि हम हस्ताक्षर अभियान चलाएं. लोग देश में सेंसरशिप की जो नौटंकी चला रहे हैं उससे लड़ें. उन्हें उस हद तक परेशान करें जब तक इसका कोई नतीजा न निकल के आए. हर चौथे दिन का इनका जो तमाशा है. कभी ये फिल्म को उठाकर बैन कर दिया, कभी वो फिल्म को बैन कर दिया. ये बहुत जरूरी है कि देश के नागरिक इसको रोकें. वरना इसका कोई अंत नहीं.

मोदी सरकार के आने के बाद क्या दिक्कतें ज्यादा बढ़ी हैं?
मेरे ख्याल से तो आप देख ही रहे हैं कि कितना ज्यादा हो रहा है. अब इसमें किसी सरकार को क्या कहें. एक सरकार आएगी तो किसी कारण से चीजों को बैन कराएगी क्योंकि ये उनके एजेंडा में फिट नहीं होता. फिर दूसरी सरकार आएगी तो वो उन चीजों को बैन कराएगी जो उनके एजेंडा में फिट नहीं होती. सरकार का खेल छोड़ दें, राजनीति छोड़ दें सेंसर बोर्ड का जो कॉन्सेप्ट (अवधारणा) है वही गलत है. किसी की बात को सेंसर करना ये एक आजाद मुल्क में गलत है तो है. इंसान थियेटर जाता है. सामने लिखा होता है कि फिल्म को कौन सा सर्टीफिकेट मिला है. वो निर्णय करता है कि जाऊंगा कि नहीं जाऊंगा. ये उसका चुनाव है. आप ये लोगों को चुनने दें कि उन्हें क्या देखना है या आप निर्णय करेंगे कि क्या बने.

प्रतिबंध लगने के बाद फिल्म का नाम अनफ्रीडम रखा या पहले से था?
पहले फिल्म का नाम ‘ब्लेमिश लाइटः फेसेज ऑफ अनफ्रीडम’ था. अनफ्रीडम हमेशा से फिल्म का केंद्रीय शब्द था. सेंसरशिप होने के बाद मुझे लगा कि ये सबसे ज्यादा विशिष्ठ और महत्वूपर्ण है. इसलिए नाम बदल दिया. हमारा काम है कि हम अपनी लड़ाई जारी रखे. जब हम फिल्म बनाते हैं तो ये सोचकर बनाते हैं कि ये जरूरी कहानी है कहने के लिए. उसी तरह से ये लड़ाई है उसे लड़ो. जो साथ आना चाहे आए न आना चाहे न आए लेकिन हम अपना काम करते रहेंगे.

पहलाज निहलानी और प्रतिबंध

सेंसर बोर्ड के नए अध्यक्ष पहलाज निहलानी के पद संभालने के बाद से फिल्मों से जुड़े प्रतिबंधों का दौर शुरू हो गया है. इस कारण से वे लगातार विवादों में बने हुए हैं. 2014 के आम चुनावों से पहले निहलानी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ प्रचार अभियान को प्रोड्यूस किया था. बताया जाता है कि इसी के पुरस्कार स्वरूप उन्हें बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया. उनके अध्यक्ष बनने के बाद कुछ फिल्मों से जुड़े विवादों पर एक नजर…

‘लेस्बियन’ पर लफड़ा :  लेस्बियन यानी समलैंगिक शब्द को लेकर सेंसर बोर्ड इन दिनों सबसे ज्यादा संवेदनशील नजर आ रहा है. ‘अनफ्रीडम’ के अलावा ‘दम लगा के हईशा’ फिल्म में बोर्ड ने ‘लेस्बियन’ शब्द को म्यूट (मूक) करा दिया था. इसके अलावा चार दूसरे शब्दों को लेकर भी आपत्ति उठाई गई थी. इन चारों शब्दों को ‘ठेंगा’, ‘छिछोरापन’, ‘गली के पिल्ले’, ‘कठोर’ से बदला गया था. सत्य घटना पर आधारित फिल्म ‘अलीगढ़’ में मनोज बाजपेयी एक समलैंगिक प्रोफेसर की भूमिका में नजर आएंगे. जानकारी के अनुसार इसे लेकर भी बोर्ड की भौहें टेढ़ी हो गई हैं.

एमएसजी का मर्म :  सेंसर बोर्ड में हुए हालिया विवाद का मर्म समझने के लिए डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म ‘एमएसजीः द मैसेंजर’ (पूर्व नाम मैसेंजर ऑफ गॉड) के बारे में जानना जरूरी है. बोर्ड में विवाद तब सतह पर आ गया जब तत्कालीन अध्यक्ष लीला सैमसन ने अफवाह फैलाने और अंधविश्वास को बढ़ावा देने के आधार पर प्रतिबंधित कर दिया था. विवाद इतना बढ़ा कि उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा. बाद में पहलाज निहलानी अध्यक्ष बनाए गए और फिल्म को नए नाम ‘एमएसजी : द मैसेंजर’ के साथ सिनेमाघरों में प्रदर्शित किया गया.

‘बॉम्बे’ से बवाल :  पिता और बेटी की बातचीत पर आधारित एक गाने के वीडियो से ‘बॉम्बे’ शब्द को हटाने के लिए सेंसर बोर्ड ने आदेश दिया है. इस गाने को मिहिर जोशी ने आवाज दी है. जोशी ने पिछले साल अपना एक एलबम ‘मुंबई ब्लूज’ जारी किया था. हाल ही में एक एंटरटेनमेंट फर्म ने एलबम के इस गाने का वीडियो बनाने की मंजूरी के लिए सेंसर बोर्ड से आग्रह किया था. बोर्ड ने अनुराग कश्यप की फिल्म ‘बॉम्बे वैलवेट’ के बॉम्बे शब्द पर भी आपत्ति उठाई लेकिन पीरियड फिल्म होने के कारण इस फिल्म को बरी कर दिया गया.

प्रतिबंधित शब्दों की सूची :  अध्यक्ष बनने के बाद पहलाज निहलानी ने 36 शब्दों की सूची बनाई जिसे फिल्मों में शामिल करने पर प्रतिबंध किया जाना था. बाद में विवाद बढ़ा तो शब्दों की संख्या घटाकर 28 कर दी गई. शब्दों की सूची लीक हो जाने के बाद विवाद काफी बढ़ गया. निर्माता और निर्देशक इसके खिलाफ एकजुट होने लगे तो इसे प्रभावी नहीं किया गया है. दरअसल प्रतिबंध के नियमों को लेकर बोर्ड के सदस्य दो फाड़ हैं. बोर्ड सदस्य अशोक पंडित और डॉ.  चंद्रप्रकाश द्विवेदी निहलानी की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा चुके हैं.

इंडियाज डॉटर :  वर्ष 2012 में हुए दिल्ली गैंगरेप पर आधारित फिल्म ‘इंडियाज डॉटर’ पर भारत में प्रतिबंध लगा दिया गया. इसे ब्रिटिश फिल्मकार लेस्ली उडविन ने बनाया है. फिल्म को इस साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर प्रदर्शित किया जाना चाहिए था. फिल्म में घटना के चार दोषियों में से एक मुकेश सिंह का इंटरव्यू भी शामिल किया गया था. लेस्ली ने मुकेश का इंटरव्यू तिहाड़ जेल में किया था. एक दोषी को महिमामंडित करने के नाम पर मीडिया ने इसे इतना तूल दिया कि कोर्ट के आदेश के बाद चार मार्च को इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया.

 

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