बदलाव का संदेश

मैत्रेयी पुष्पा की औपन्यासिक यात्रा जितनी बहुरंगी है उतनी ही मार्मिक भी. उनका नवीनतम उपन्यास ‘फरिश्ते निकले’ हाशिये की स्त्री का महाकाव्यात्मक आख्यान है. दस शीर्षकों में विस्तृत उपन्यास में दो आख्यान प्रमुख हैं. एक में कथा-नायिका बेला बहू की संघर्ष गाथा है, जिसके पिता की बचपन में मृत्यु हो जाती है. आर्थिक विपन्नता के कारण उसकी मां उसके स्वर्गीय पिता से भी अधिक आयु के व्यक्ति के साथ उसका विवाह कर देती है. बालिका वधू पर उसके पति का अत्याचार, कालान्तर में उसका सौदा, छद्म प्रेमी तथा उसके भाइयों द्वारा उसका शोषण कहानी की विषय वस्तु है. दूसरी कहानी बुन्देलखण्ड के ग्रामीण परिवेश में लोहापीटा परिवार की लड़की उजाला और गांव के जमींदार के बेटे वीर की प्रेम कहानी है जिसका मूल्य उसे अपने ऊपर जानलेवा यौन हमला झेलकर चुकाना पड़ा. उपन्यास में अनेक ऐसे पात्र भी हैं जिनकेे जीवन संघर्ष, द्वन्द्व, संघात और उनके अन्तर्विरोध इस उपन्यास को एक क्लासिक गरिमा प्रदान करते हैं. परिवेश और चरित्र दोनों ही इतने प्रभावी हैं कि न तो परिवेश चरित्रों पर हावी होने पाता है और न ही चरित्र परिवेश को कमजोर होने देते हैं.

उपन्यास की कथावस्तु का कालखण्ड विगत चार दशकों के ग्रामीण भारत के उपेक्षित, वंचित और सताए हुए स्त्री-पुरुषों का वह आख्यान है जो अपराध की दुनिया में प्रवेश करने को विवश होते हैं, लेकिन इसके बावजूद हमारी संवेदना के पात्र बनते हैं. ये कालान्तर में न सिर्फ मुख्य धारा में लौटते हैं, वरन शिक्षासेवी और समाजसेवी का दायित्व भी निभाते हैं.

पुस्तकः फरिश्ते निकले लेखक  ः मैत्रेयी पुष्पा मूल्यः 395 रुपये  पृष्ठः 240 प्रकाशन ः राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
पुस्तक: फरिश्ते निकले
लेखक: मैत्रेयी पुष्पा
मूल्य: 395 रुपये
पृष्ठ: 240
प्रकाशन: राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

मैत्रेयी का यह उपन्यास स्त्री के शोषण और उसके उत्पीड़न की एक ऐसी महागाथा है, जिसे पढ़ते हुए हम दुःख की एक विशाल नदी को पार करते हैं और राजसभा में अपमानित हो रही महाभारत की द्रौपदी से लेकर आज की निर्भया हमारे सामने प्रत्यक्ष हो जाती है.

उपन्यास में लोहापीटा परिवारों का जैसा सजीव चित्रण हुआ है, वह अनूठा है. उनकी परम्परा, रीति-रिवाज, रहन-सहन और विकास के इस आधुनिक युग में उनकी आजीविका पर आये संकट को जिस प्रकार मैत्रेयी ने अभिव्यक्त किया है, वैसा पहले किसी उपन्यास में नहीं हुआ.

यह उपन्यास मानव सभ्यता के विकास क्रम को लेकर एक बड़ा सवाल छोड़ जाता है. एक पूर्व डकैत अजय सिंह द्वारा बेला को लिखी चिठ्ठी देखिए, ‘अखबार में हम क्या पढ़ें? हत्याओं, बलात्कारों और औरतों को जलाने की वारदातों से पटा पड़ा रहता है. हमें अजूबा लगता है बिन्नू कि हमें लोग डकैत, हत्यारा क्यों मान रहे हैं? औरतों और लड़कियों की गुहार ऐसी कि रास्ता न सूझे… क्या वे बाहर निकलना छोड़ दें, सड़क उनके लिए नहीं है, विश्वविद्यालय खूनी जंगल हैं, बसें बलात्कारियों के लिए सेफ जगह…’ के उत्तर में बेला क्या लिखे? क्या यही कि, ‘कैसा विधान है कि नागरिक डाका डाल रहे हैं, हत्या कर रहे हैं, बलात्कारों के क्षेत्र बनाते जा रहे हैं और एक डाकू तथाकथित अपराधी, समाज का कलंक इस स्थिति पर विलाप कर रहा है, सज्जनता की रस्सियों में बंधा छटपटा रहा है.’ निश्चय ही यह उपन्यास बहुत सारी अमानवीयता के विरुद्ध न सिर्फ खड़े होने का साहस प्रदान करता है वरन सामाजिक बदलाव का संदेश भी देता है.

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