बिहार पंचायत चुनाव : बदलाव की बयार

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बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले की बड़गांव पंचायत. पूरे बिहार की तरह वहां भी इन दिनों पंचायत चुनाव की सरगर्मी है. उस पंचायत से तीन बड़े नामदार ठाकुर उम्मीदवार मुखिया पद के लिए मैदान में उतरे हैं. इन तीनों मजबूत उम्मीदवारों के सामने शंभू डोम नाम का एक मामूली हैसियत वाला उम्मीदवार मजबूती से चुनौती दे रहा है. बड़गांव से ही कुछ दूरी पर एक और पंचायत है सलहा बरियरवा. सलहा बरियरवा पंचायत की कहानी और भी दिलचस्प है. आजादी के बाद से उस पंचायत का मुखिया मारकंडेश्वर सिंह के परिवार से होता आया है. इस बार भी उस परिवार का मुखिया एक बार फिर चुनाव मैदान में है जिसे पिछले 25 सालों से 224 एकड़ जमीन पर हकदारों को कब्जा दिलाने की लड़ाई लड़ रहे सोहन राम चुनौती दे रहे हैं. सोहन चर्चा में हैं. मारकंडेश्वर सिंह के परिवार को पहली बार मजबूत चुनौती मिल रही है.
जिन दोनों पंचायतों की बात की जा रही है वहां की सीट सामान्य है. यानी अनारक्षित लेकिन दोनों ही सीटों पर महादलित परिवार से आने वाले उम्मीदवार दिग्गजों को चुनौती दे रहे हैं. पश्चिमी चंपारण के ही बगहा इलाके से एक और कहानी है. बगहा इलाके में रहने वाले थारू आदिवासियों ने चुनाव के पहले ही मुखिया-सरपंच आदि का चयन चुनाव के पहले ही सर्वसम्मति से कर लिया है. इसी पश्चिमी चंपारण इलाके में कुछ और छोटे-छोटे किस्से सुनने को मिलते हैं. बताया जाता है कि इस बार बगहा, जोगापट्टी, गवनाहा, नवतन जैसे कई इलाकों में शराबबंदी का अभियान चल रहा है और पंचायत चुनाव में शराब और पैसे का इस्तेमाल न हो, इसके लिए लगातार आंदोलन भी हो रहे हैं. इस इलाके में सक्रिय लोक संघर्ष समिति के सदस्य व सामाजिक कार्यकर्ता पंकज बताते हैं, ‘इस बार महिलाएं कई इलाकों में नारे लगा रही हैं और उन नारों का असर भी हो रहा है. एक नारा है- जो बांटे चुनाव में दारू, उसको बहनो मारो झाड़ू… चुनाव में जो बांटे दारू-नोट, उसको कभी न देना वोट… वोट के नाम पर कभी नोट न लेना, जो बांटे उसे कभी वोट न देना…’
चंपारण से निकलते हैं. कुछ और जगहों पर बात होती है. तरह-तरह की सूचनाएं मिलती हैं. जानकारी मिलती है कि चंपारण के सोहन राम और शंभू डोम की तरह दर्जनों दलित नौजवान इस बार चुनावी मैदान में दमखम और रणनीति के साथ मैदान में हैं. अांबेडकर युवा मंच के बैनर तले राज्य के अलग-अलग हिस्सों से 25 महादलित युवाओं के चुनाव लड़ने की जानकारी मिलती है. अमूमन सभी स्नातक हैं. दलितों से इतर दूसरे समुदाय के नौजवानों के बारे में जानकारी मिलती है. खुसरूपुर के हैवतपुर पंचायत से सूचना मिलती है कि टाटा कंपनी के लेबर सुपरवाइजर पद पर काम करने वाले 27 वर्षीय नौजवान दिलीप कुमार वहां से चुनाव के मैदान में हैं. वे अपनी नौकरी छोड़ पंचायत चुनाव लड़ने आए हैं.

पंचायत चुनाव तमाम बुराइयों के बावजूद बिहार को बड़े स्तर पर बदल रहा है. दलित-वंचित अपने राजनीतिक हक के लिए आगे आ रहे हैं

एक ऐसी ही जानकारी भतुहा के मामिनपुर पंचायत से मिलती है. उस पंचायत से 27 वर्षीय दिनेश कुमार मैदान में हैं. दिनेश आईसीआईसीआई बैंक में अधिकारी थे. नौकरी को छोड़कर वे पंचायत चुनाव लड़ रहे हैं.
मुजफ्फरपुर के कांटी इलाके की एक पंचायत में मुखिया पद के लिए 40 पुरुषों ने नामांकन करवाया तो रणनीति बनाकर 39 महिलाओं ने भी मुखिया पद के लिए नामांकन कर दिया, जबकि यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित नहीं है. जहानाबाद से सूचना मिलती है कि वहां की कई पंचायतों में, जहां सीटें अनारक्षित हैं, स्वयं सहायता समूह से जुड़ी महिलाएं गोलबंद होकर एक-एक पद के लिए चुनाव लड़ रही हैं.

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हालांकि उत्तर बिहार से दक्षिण और मध्य बिहार तक आते-आते सूचनाएं बदलने लगती हैं. परिदृश्य बदलने लगते हैं. मध्य बिहार के औरंगाबाद जिले में माहौल इतना खुशनुमा कहीं नहीं दिखता. इस इलाके में एक अप्रैल से शराबबंदी सबसे बड़ी चिंता की बात है और यहां बंदी से पहले शराब का स्टाॅक जमा कर लेने या होली में ही पंचायत चुनाव के कोटे की शराब बांट देने की होड़ मची हुई थी. भोजपुर के सासाराम इलाके में होली के अवसर पर पंचायत चुनाव में उतरे प्रत्याशियों द्वारा घर-घर शराब पहुंचा देने की सूचना मिलती है. आरा, बक्सर, सासाराम, गया जैसे कई इलाकों से शराब के साथ-साथ जाति के उन्माद में चुनाव के डूब जाने की सूचना मिलती है.
पंकज बताते हैं, ‘पूरे बिहार में ऐसी ही स्थिति है लेकिन कुछ इलाकों में, जहां लोग जागरूक हैं, वहां इन चुनौतियों से पार पाने की कोशिश भी हो रही है. इस बार यह हल्ला मच गया है कि केंद्र की सरकार अब सीधे पंचायतों को पैसा देगी, बीच में राज्य सरकार नहीं होगी. यह हवा फैल जाने से जो चुनाव लड़ रहे हैं, वे जान रहे हैं कि इस बार जो मुखिया बनेगा वह करोड़ों का खेल करेगा और यह बात जनता तक भी फैल गई है, इसलिए जनता भी जान रही है कि मुखिया बन जाने के बाद तो प्रत्याशी पकड़ में आएंगे नहीं इसलिए जो वसूल किया जा सकता है उसे अभी से ही वसूलने की कोशिश कर रहे हैं.’ वे बताते हैं, ‘मैंने पहली बार देखा कि होली में मुखिया पद के प्रत्याशियों द्वारा अंग्रेजी शराब और पांच-पांच सौ रुपये का नोट घर-घर भिजवाया गया.’ समाजशास्त्री प्रो. एस. नारायण कहते हैं, ‘बिहार में पंचायती राज व्यवस्था ने हिंसा को भी बढ़ावा दिया है और जनप्रतिनिधियों की लगातार हत्याएं हुई हैं, यह चलन खतरनाक है.’ लोगों को भी पता है कि जब 2001 में पंचायत चुनाव शुरू हुआ था तो करीब पांच दर्जन प्रत्याशियों की हत्या चुनाव के पहले ही हो गई थी और दहशत का माहौल बन गया था.
बिहार में 24 अप्रैल से पंचायत के चुनाव होने वाले है. 10 चरणों में चुनाव होना हैं. हर चरण में 53 प्रखंडों में चुनाव होंगे. कुल दो लाख 58 हजार 772 पदों के लिए यह चुनाव होने वाला है. बिहार में 1978 के बाद से पंचायत चुनाव रुक गए थे. 2001 से फिर से चुनाव का सिलसिला शुरू हुआ. उसके बाद से यह चौथा चुनाव होने वाला है. तीन चुनाव से बिहार में बहुत कुछ बदला है.

‘द हंगर प्रोजेक्ट’ की कार्यक्रम अधिकारी शाहीना परवीन कहती हैं, ‘आपको पिछले तीन चुनाव काे देखना हो तो यही देखिए कि नीतीश कुमार लगातार मुख्यमंत्री बन रहे हैं. नीतीश जान गए थे कि पंचायत चुनाव सिर्फ कोरम पूरा करने से नहीं होगा, इसलिए उन्होंने महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया, पिछड़ों, अतिपिछड़ों, दलितों को अलग से आरक्षण दिया और उसका ही नतीजा निकला कि सामाजिक स्तर पर राजनीति में कई बदलाव हुए और नीतीश कुमार खुद को लंबी पारी के लिए तैयार कर पाए.’
शाहीना जो बात कहती हैं उसका असर पूरे बिहार में देखा जा सकता है. पिछले कुछ दशकों मंे दो चीजों ने ही बिहार की राजनीति और समाज को पूरी तरह से बदला है. एक 90 के दशक के आरंभ में मंडल राजनीति का उभार और दूसरा 2001 के बाद शुरू हुआ पंचायत चुनाव. मंडल की राजनीति ने लालू प्रसाद यादव को बड़े नेता के तौर पर स्थापित किया. इस वजह से कई लोग लालू को परिस्थितियों की देन वाला नेता भी मानते हैं लेकिन उसके बाद 2001 में जब पंचायत चुनाव शुरू हुआ और 2005 में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री चुने गए तो उन्होंने इसका भरपूर राजनीतिक इस्तेमाल किया. नीतीश कुमार ने पंचायत की राजनीति को राज्य की राजनीति को बदलने वाले तत्व की तरह विकसित किया और नतीजा यह हुआ कि अतिपिछड़ों, महादलितों के साथ महिलाएं एक अलग और स्वतंत्र समूह के तौर पर उभरीं और वे नीतीश के खास वोटबैंक में बदल गईं.

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पंचायत चुनावों का कोई मतलब नहीं, इसने बिहार की संस्कृति का क्षरण किया है:  डाॅ. विजय

Vijay-fFwebदेश में जो व्यवस्था है उसमें पंचायत चुनावों को और उससे बनने वाली व्यवस्था को तीसरी सरकार के रूप में देखा गया. लेकिन बिहार में होने वाले पंचायत चुनाव में तीसरी सरकार की जो मूल अवधारणा है उसकी ही कमी दिखती है. बिहार में पंचायत चुनाव में सबसे मजबूत सवाल स्वायत्तता का है. न पंचायत की सरकार को अब तक अपनी योजना बनाने का अधिकार मिल सका है, न उसके अपने कर्मचारी हैं, न अपना भवन है. तो तीसरी सरकार जैसी अवधारणा कहां कारगर हो पा रही है. मैं तो यह मानता हूं कि संविधान में 73वां संशोधन हुआ, वही एक बड़ी भूल जैसा था या कहिए कि बेईमानी की गई थी. पंचायत और नगर निगम को लिस्टेड ही नहीं किया गया. संविधान के नीति निर्देशक तत्व में जो 40 क है, उसके अनुसार पंचायतों को या इस तीसरी सरकार को राज्य के भरोसे छोड़ दिया गया. इसलिए गौर कीजिए कि 23 सालों के बाद जब 2001 में बिहार में फिर से पंचायत चुनाव शुरू हुआ तो उसमें उत्साह दिखा. सामाजिक न्याय का नजरिया भी दिखा लेकिन उसके बाद पंचायत की व्यवस्था और उसके चुने हुए प्रतिनिधि सिर्फ राज्य सरकार के एजेंसी भर बनकर रह गए और ब्यूरोक्रेसी ने इसे चंगुल में ले लिया. नतीजा यह हुआ कि पंचायत के प्रतिनिधि दलाल हो गए और वे उसी तर्ज पर चुनाव लड़ने लगे, जिस तरह से लोकसभा-विधानसभा के चुनाव लड़े जाते हैं. जो लोग लोकसभा-विधानसभा मंे चुकते गए, वे पंचायत चुनाव में मुखिया बनने के लिए लड़ने लगे. लोकसभा या विधानसभा सदस्य बनकर लूट सकने की संभावना खत्म हुई तो मुखिया बनकर लूटने लगे. और राज्य सरकारों ने भी मुखियाओं को पैसे में उलझा दिया क्योंकि पैसे में अगर नहीं उलझाया जाता तो फिर पंचायतें अपने अधिकार की मांग करतीं और पंचायतों को अधिकार देने को और स्वायत्त करने को कोई तैयार नहीं है. मुखिया राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए वोट मैनेज करने का टूल बन गए, इसे आप बिहार में सभी जगह देख सकते हैं और यह भी देख सकते हैं कि कैसे अधिकाधिक पैसे खर्च कर चुनाव लड़े जा रहे हैं. मैं तो साफ मानता हूं कि बिहार में पंचायत चुनावों ने राज्य की संस्कृति का क्षरण किया है और इस तरह से चुनाव कराने का कोई खास फायदा नहीं.

( लेखक गांधीवादी विचारक हैं )
(निराला से बातचीत पर आधारित) [/symple_box]

शाहीना बताती हैं, ‘लड़कियों को साइकिल देने वाली योजना और पंचायत में महिलाओं को आरक्षण देने की घोषणा, नीतीश कुमार के ये दो काम ही ऐसे रहे जिससे वे जाति की राजनीति को पार कर समूह की राजनीति करने वाले नेता बन गए और बड़ी से बड़ी चुनौतियों से पार पाकर तीसरी बार मुख्यमंत्री बन गए.’ जन जागरण शक्ति संगठन के प्रमुख आशीष रंजन कहते हैं, ‘बिहार पंचायत चुनाव में आपको तमाम बुराइयां दिखेंगी. सरकार की मंशा मंे भी खोट दिखेगा. कहने को पिछले तीन बार से पंचायत चुनाव हो गए हैं. मुखिया करोड़पति हो गए हैं. लाखों में अब कोई बात नहीं करता. कहीं पर पंचायत सरकार का काम फंक्शनल नहीं दिखेगा. कायदे का पंचायत भवन नहीं दिखेगा. टेक्निकल स्टाफ नहीं दिखेंगे. ऐसी तमाम शिकायतें आप कर सकते हैं लेकिन इन तमाम शिकायतों को अभी परे कर सकते हैं, क्योंकि यह पंचायत चुनाव तमाम बुराइयों के बावजूद बिहार को बड़े स्तर पर बदल रहा है. दलित-वंचित अपने राजनीतिक हक के लिए आगे आ रहे हैं. वे चुनाव लड़ रहे हैं, जीत रहे हैं और फिर राजनीति में आगे बढ़कर अपनी हिस्सेदारी पाने के लिए बेताब हैं. आप कह सकते हैं कि मुखियापति और सरपंचपति का जमाना है, महिलाएं सिर्फ मोहरा रहती हैं लेकिन उसका दूसरा पहलू यह देखिए कि इस पंचायत चुनाव के पहले बिहार में स्थिति ऐसी भी नहीं थी. यह तो तय है न कि जो महिला पंचायत चुनाव लड़ेगी उसे स्टूडियो जाकर कटआउट के लिए अपनी तस्वीर खिंचवानी होगी. उसे गलियों में घूमना होगा. सभाओं में कभी-कभार ही सही जाना होगा. यह क्या कम है. बिहार के एक बड़े हिस्से में यह होना भी तो असंभव-सा ही दिखता था.’
शाहीना और आशीष रंजन की तरह ही तमाम लोगों की यही राय है कि पंचायत चुनाव बिहार को बदल रहा है. उसका काला पक्ष है लेकिन उस काले पक्ष पर संभावनाएं भी हावी दिखती हैं. इस बात को बिहार के मुखिया नीतीश कुमार भी अपने तरीके से कहते हैं. 30 मार्च को जब वे शराबबंदी की पुनर्घोषणा करके आदेश दे रहे होते हैं तो खुलकर कहते हैं, ‘यह कड़ा फैसला है लेकिन यह फैसला हमने महिलाओं के कहने पर लिया है. उन महिलाओं के कहने पर जो अब राजनीति और समाज को समझने लगी हैं. उन महिलाओं ने ही हमसे कहा था कि शराब बंद करवा दीजिए. हमने उनकी बात मानकर चुनाव के पहले ही घोषणा कर दी कि अगर सरकार में आए तो शराब बंद करवा देंगे.’ सरकार में आने के बाद उन्होंने पहला फैसला शराबबंदी का ही लिया. नीतीश कुमार यह कहकर बता रहे होते हैं कि बिहार की राजनीति में महिलाओं का क्या महत्व है. और बिहार में महिलाओं का राजनीतिक महत्व बढ़ाने में इस पंचायत चुनाव की भूमिका क्या रही है, यह सब जानते हैं.

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कोई कैसे भी देखे इस चुनाव को, सच ये है कि महिलाओं की स्थिति और बिहार के हाल को पंचायत चुनावों ने ही बदला है : शाहीना परवीन

Shahina Perweenweb

पिछली बार जब पंचायत चुनाव हुआ था तो महिलाओं ने आरक्षित सीटों से ज्यादा पर अपनी जीत दर्ज की थी. 50 प्रतिशत सीटें उनके लिए आरक्षित हैं, इससे ज्यादा प्रतिशत सीटों पर महिलाओं की जीत हुई थी लेकिन उस जीत में एक और बात हुई थी. मुखिया की सीट पर महिलाएं करीब उतनी ही जीत पाई थीं, जितनी सीटें उनके लिए आरक्षित थीं. इसके अलावा एक या दो प्रतिशत के करीब सामान्य सीट पर महिलाएं मुखिया के लिए चुनी जा सकी थीं. ऐसा इसलिए हुआ था कि पुरुष बाकी पदों को तो महिलाओं के हवाले कर देने को तैयार भी हैं लेकिन मुखिया पद को अब भी नहीं देना चाहते. ऐसा इसलिए कि यह पद सीधे-सीधे आर्थिक मसले से जुड़ा हुआ है.
जो महिलाएं आरक्षित पद होने के कारण मुखिया पद के लिए चुन भी ली गईं, उनमें से भी कई को पांचों साल तक कई किस्म की प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ा. अध्ययन के दौरान कई केस ऐसे आए जिससे यह साफ हुआ. मुखिया बनने के बावजूद कई महिलाओं को घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ा. अधिकांश मामले साइन करने को लेकर हुए. पुरुषों का एक हिस्सा चाहता है कि उनके घर की महिलाएं आरक्षण का लाभ लेकर मुखिया तो बनें लेकिन वे सिर्फ मुखिया ही बनी रहें. इसके अलावा अपने दिमाग या विवेक का इस्तेमाल न करें लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा क्योंकि कई जगहों से ये खबरें आ रही हैं कि महिलाएं गोलबंद होकर चुनाव लड़ रही हैं. इस गोलबंदी का रूप-स्वरूप ऐसा है कि कई महिलाएं आपस में तय कर रही हैं कि उनमें से कौन महिला पंचायत समिति सदस्य के लिए चुनाव लड़ेगी, कौन सरपंच के लिए और कौन दूसरे पदों के लिए. इतना ही नहीं, कौन उपमुखिया बनेगी, यह तक इस बार कई जगहों पर तय कर रही हैं.
मुजफ्फरपुर के कांटी इलाके से खबर आई कि वहां एक सीट पर 40 पुरुषों और तकरीबन 39 महिलाओं ने मुखिया पद के लिए नामांकन कर दिया है, जबकि वह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित भी नहीं है. यह गोलबंदी का ही असर है. ऐसा कर वे आपस में सहमति बना रही हैं. महिलाएं अब पुरुषों की तरह दांव-पेंच अपना रही हैं. यह सीमित क्षेत्र में ही है लेकिन यह एक बेहतर संकेत है. आने वाले दिनों में इसका असर दिखेगा और यह बिहार जैसे राज्य के लिए बेहतर ही होगा. यह क्यों अच्छा होगा, इसे इस रूप में देख-समझ सकते हैं.
महिलाएं जिन पदों के लिए चुनी गईं, उसका असर पूरे बिहार में व्यापक रूप में देखा गया. महिलाएं वार्ड सदस्य के लिए चुनी गईं, सरपंच पद के लिए चुनी गईं और उन पदों पर रहते हुए खुलकर काम किया. वार्ड सदस्यों को ही देखें. वार्ड सदस्य चुनकर जब महिलाएं आईं तो उसका असर यह हुआ कि बिहार में कई ऐसे मसले उठने लगे जो कभी उठते ही नहीं थे और यह मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रही हूं कि वे मसले पुरुष प्रतिनिधि कभी उतनी शिद्दत से नहीं उठाते. आंगनबाड़ी चल रहा है या नहीं, मध्याह्न भोजन सही समय और सही क्वालिटी के साथ मिल रहा है या नहीं, सैनिटरी नैपकिन का बंटवारा सही से हो रहा है या नहीं, स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय है या नहीं, इन सभी मसलों को पिछले 15 साल में वार्ड और पंचायत स्तर पर महिला प्रतिनिधियों ने ही उठाया है.

(लेखिका द हंगर प्रोजेक्ट में कार्यक्रम अधिकारी हैं )

(निराला से बातचीत पर आधारित) [/symple_box]