गुजरात में एक दशक से अधिक समय तक एकछत्र राज करने के बाद नरेंद्र मोदी ने दिल्ली कूच करने से पहले अपनी जिस राजनीतिक साथी आनंदीबेन पटेल को अपना उत्तराधिकारी चुना था, वह मुख्यमंत्री के तौर पर छह महीने का कार्यकाल पूरा कर चुकी हैं. ऐसे में यह जानना दिलचस्प होगा कि मोदी के जाने और आनंदीबेन द्वारा कमान संभालने के बाद उस गुजरात में क्या-क्या हुआ जिसके विकास का मॉडल उस दौरान हर क्षेत्र के लिए आदर्श बना हुआ था. सवाल यह है कि पिछले 180 दिनों में गुजरात किन बदलावों का गवाह बना है? या वहां अब भी सब कुछ वैसे ही चल रहा है जैसा मोदी छोड़कर गए थे?
राजनीतिक विश्लेषकों के एक समूह की राय यह है कि पिछले छह महीनों में प्रदेश सरकार ने कोई ऐसी नई नीति नहीं बनाई या कोई ऐसा काम नहीं किया, जिसे मोदी युग से अलगाव के रूप में देखा जा सके. पद्मश्री से सम्मानित वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र पटेल आनंदीबेन के पिछले छह महीने के कार्यकाल की चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘नरेंद्र मोदी ने जो स्टाइल शीट तैयार की थी, उसी के अनुसार आज भी काम हो रहा है. आज मोदी गुजरात में नहीं हैं, लेकिन सरकार वैसे ही चल रही है जैसे वह चलाया करते थे. प्रदेश का पूरा प्रशासन ठीक वैसा ही है जैसा मोदी के समय था.’
बतौर मुख्यमंत्री मोदी द्वारा बनाई गई योजनाओं को ही आनंदीबेन सरकार बीते छह महीने में लागू करती दिखाई देती रही. इसका एक कारण यह भी है कि मोदी गुजरात छोड़कर दिल्ली जाने के बाद भी सही अर्थों में गुजरात छोड़कर नहीं गए. प्रदेश के वरिष्ठ अधिकारियों से बात करने पर पता चलता है कि मोदी भले ही गुजरात छोड़कर दिल्ली चले गए हैं, लेकिन वह गुजरात पर लगातार नजर रखे हुए हैं.’
मोदी की तुलना सीसीटीवी से करते हुए पटेल कहते हैं, ‘मोदी प्रदेश में सीसीटीवी कैमरे की तरह हैं, जो पूरे राज्य में हर जगह लगा हुआ है. हो सकता है वह काम न कर रहा हो, लेकिन उसके लगे होने मात्र से लोगों के भीतर यह डर हमेशा बना रहता है कि उनकी सारी हरकतें रिकॉर्ड हो रही हैं.’
बीते छह महीनों में प्रदेश के अधिकारियों की गतिविधियों की बात करें तो उनकी स्थिति यह है कि वरिष्ठ अधिकारी आज भी दिल्ली जाकर सीधे मोदी को रिपोर्ट करते हैं. प्रदेश के एक वरिष्ठ नौकरशाह कहते हैं, ‘सर (मोदी) को रिपोर्ट करने की बात नहीं है. आज वह पीएम हैं, लेकिन वे यहां 13 सालों तक सीएम थे, आनंदीबेन आज सीएम बनी हैं. ऐसे में सर से हम मार्गदर्शन लेते रहते हैं. सभी जानते हैं कि गुजरात उनके लिए एक राज्यभर नहीं है.’
‘आनंदीबेन भले ही सीएम बन गई हैं, लेकिन आज भी मोदी ही गुजरात चला रहे हैं. उनकी इच्छा के बिना यहां पत्ता तक नहीं हिलता.’
देवेंद्र कहते हैं, ‘मोदी किस कदर छाए हुए हैं और गुजरात कैसे उनकी प्राथमिकता में है, इसका पता इससे भी चलता है कि चीनी राष्ट्रपति जब भारत के दौरे पर आए तो उन्हें काफी धूम-धड़ाके के साथ गुजरात ले जाया गया. इसके अलावा अगला वाइब्रेंट गुजरात समिट पूरी तरह से मोदी की देखरेख में ही होने जा रहा है. पहले वह बतौर मुख्यमंत्री वाइब्रेंट गुजरात का आयोजन करते थे, इस बार वह बतौर प्रधानमंत्री इसका आयोजन करेंगे.’
मोदी का गुजरात में आज भी किस कदर राज है, इसका पता इससे भी चलता है कि मोदी की सहमति के बिना प्रदेश सरकार कोई भी निर्णय नहीं लेती. गुजरात में यह माननेवालों की कमी नहीं है कि प्रदेश सरकार ने पिछले छह महीनों में जो भी फैसले किए हैं, वे सभी मोदी की सहमति या उनके आदेश पर ही किए गए हैं.
मोदी गुजरात के कैसे अभी भी सुपर सीएम बने हुए हैं, तब भी दिखा जब प्रदेश सरकार ने मंत्रिमंडल के विस्तार का फैसला किया. अभी आनंदीबेन पटेल मंत्री बनाए जानेवाले लोगों की सूची को अंतिम रूप देकर मोदी और अमित शाह की सहमति के लिए दिल्ली भेजने ही वाली थीं कि दिल्ली से एक सूची उनके पास आ गई. गुजरात भाजपा के एक नेता उस घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘आनंदीबेन के सूची भेजने से पहले ही दिल्ली से मोदी जी और अमित भाई ने ही नए मंत्रियों के नामों की सूची प्रदेश सरकार के पास भेज दी. वह सूची अंतिम थी. उस सूची में जिन लोगों के नाम थे, वे लोग मंत्री बन गए.’
प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शंकर सिंह वाघेला कहते हैं, ‘आनंदीबेन भले ही सीएम बन गई हैं, लेकिन आज भी मोदी ही गुजरात चला रहे हैं. उनकी इच्छा के बिना यहां पत्ता तक नहीं हिलता. कौन मंत्री बनेगा, कौन-सा प्रस्ताव पारित होगा, यह सब कुछ वही तय कर रहे हैं. आज भी वही अधिकारी प्रदेश चला रहे हैं जो उनके चहेते थे.’
आनंदीबेन को इस स्थिति का शायद पहले से ही आभास था. शायद यही कारण था कि उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने पहले भाषण में ही यह कह दिया था कि उन्हें प्रदेश के संचालन में कोई दिक्कत नहीं होनेेवाली, क्योंकि मोदी 2030 तक का ब्लूप्रिंट तैयार कर गए हैं.
तो क्या गुजरात में आनंदीबेन की स्थिति एक रबर स्टैम्प की हो गई है? देवेंद्र कहते हैं, ‘वह खुद मोदी भक्त हैं. ऐसा नहीं है कि वह मजबूरी में कुछ कर रही हैं. उन्हें कुछ भी अजीब नहीं लगता क्योंकि वह खुद मोदी के अनुसार ही सब कुछ करने में विश्वास रखती हैं.’
फिर क्या बदला गुजरात में?
क्या पिछले 6 महीनों में गुजरात में कुछ नहीं बदला है? देवेंद्र कहते हैं, ‘बदला है. मोदी के कार्यकाल में जिस तरह का खौफ अफसरों में रहा करता था, वह जरूर कम हुआ है.’
प्रदेश के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि लोग काम में कोई कोताही बरत रहे हैं, लेकिन यह सही है, सर (मोदी) के जाने के बाद नौकरशाह थोड़ा रिलैक्स हुए हैं.’
विश्लेषक बताते हैं कि जब तक मोदी प्रदेश में थे, तब तक प्रशासन लगातार वार मोड में रहता था. कोई भी अधिकारी एक सेकेंड के लिए भी ढीला नहीं पड़ सकता था. मोदी की उपस्थिति ही कुछ ऐसी थी. लेकिन उनके जाने के बाद प्रशासन थोड़ा सहज हुआ है.
देवेंद्र कहते हैं, ‘वरिष्ठ अधिकारियों के स्तर पर कोई बदलाव नहीं है, लेकिन जैसे आप छोटे स्तर पर जाएंगे, दूसरी और तीसरी श्रेणी के अधिकारियों के व्यवहार में अंतर जरूर महसूस कर लेंगे. उनके अंदर मोदी का खौफ जरूर कम हुआ है. यही कारण है कि राज्य में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद का हौसला थोड़ा मजबूत हुआ है.’
आनंदीबेन के छह महीनों के कार्यकाल का आकलन करते हुए वाघेला कहते हैं, ‘देखिए बदलाव यही है कि मोदी कुर्ता-पायजामा पहनते थे और आनंदीबेन साड़ी पहनती हैं. वह अलग तरह का मेकअप करते थे, यह अलग तरह का करती हैं. वह पुरुष थे, यह महिला हैं. चेहरे का अंतर है. पहले पुरुष की फोटो थी, उसकी जगह महिला की फोटो आ गई है. इसके अलावा मोदी और आनंदीबेन में कोई फर्क नहीं है.’
तो क्या मोदी और आनंदीबेन के व्यक्तित्व में वाघेला कोई फर्क नहीं देखते? वह कहते हैं, ‘दोनों के ईगो में जरूर अंतर है. मोदी के अंदर बहुत ईगो था, आनंदीबेन के अंदर थोड़ा कम है.’
वाघेला को भले ही दोनों के बीच केवल ईगो का अंतर दिख रहा हो, लेकिन देवेंद्र दोनों के बीच एक बड़े राजनीतिक अंतर की तरफ इशारा करते हैं. वह कहते हैं, ‘बतौर मुख्यमंत्री मोदी मजबूत तो थे ही, इसके साथ ही वह आम लोगों में काफी लोकप्रिय भी थे. वह आम लोगों से खूब मिला करते थे, उनसे संवाद किया करते थे, लेकिन आनंदीबेन का स्वभाव मिलनसार नहीं है. वह जरूरत से ज्यादा सख्त हैं.’
वह कहते हैं, ‘स्थिति को आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि अगर मोदी गुजरात में कोई रैली करते हैं, तो बिना किसी प्रचार के लाखों लोग वहां उमड़ पड़ेंगे, लेकिन अगर आनंदीबेन रैली करती हैं, तो फिर भीड़ को वहां जुटाना पड़ेगा.’
हाल ही में विधानसभा उपचुनाव को लेकर आनंदीबेन ने लोक संवाद सेतु की शुरुआत की थी. स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता बताते हैं कि इस संवाद सेतु में भीड़ जुटाने के लिए उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ी थी.