
‘क्या कभी राजनीति में आएंगी?’ तकरीबन तीन साल पहले मिली थीं, तो पूछा था. जवाब था, ‘नहीं कभी नहीं. मगर हम राजनीति को प्रभावित करते रहेंगे.’ उन्होंने और उनकी विचारधारा वाले उनके अनेक साथियों ने इन चुनावों में कितना राजनीति को प्रभावित किया है, उस पर राजनीतिक विश्लेषक अब तक लेख लिख रहे हैं. तीन साल बाद जब इस साल 26 मई की गर्म दोपहर को साध्वी ऋतंभरा को प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण समारोह में देखा था, तो इस बार भी सवाल वही पूछना था, बस कुछ अलग-से शब्दों का चयन कर रखा था ताकि जवाब देने में ऋतंभरा को भी उकताहट न हो, ‘क्या आप अब भी उमा भारती द्वितीय नहीं बनेंगी?’
लुधियाना के एक हलवाई परिवार से ताल्लुक रखनेवाली निशा को ऋतंभरा, साध्वी ऋतंभरा और दीदी मां ऋतंभरा बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जिस तेजी से उमा भारती और ग्वालियर की राजमाता सिंधिया राष्ट्रीय फलक पर चमकी थीं, उतनी ही तेजी से ऋतंभरा भी लोगों की निगाहों में आईं. भड़काऊ भाषण हो या केसरिया वस्त्र या फिर विश्व हिंदू परिषद और दुर्गा वाहिनी से जुड़ाव, उन दिनों उनकी तेजतर्रार छवि उमा भारती की छवि से कंधा सटाए खड़ी रहती थी. विदेशी पत्रकार उन दिनों जब उमा भारती के प्रेम संबंध और बार्बी डाल के प्रति उनके प्रेम पर खूब लिख रहे थे और हमें यह भी बता रहे थे कि उमा भारती लास एंजिल्स से बार्बी डाल खरीदती हैं, तब भी ऋतंभरा तब भी कुछ खास मुद्दों पर ही बात करती थीं. हिंदुत्व के जागरण और राष्ट्रीयता पर, राम लला पर और हिंदू धर्म पर. कम इंटरव्यू देती थीं और खुद के बारे में कम ही बोलती थीं. लेकिन दुनिया उन्हें जानने के लिए उत्सुक थी, इसलिए उन पर खूब लिखा, बोला और दिखाया गया. बावजूद इस प्रसिद्धि के, उस तरह की प्रसिद्धि जिसे उसी वक्त भुनाया जाना नियम है जिस वक्त वह मिली हो, ऋतंभरा कुछ समय बाद ही राष्ट्रीय परिदृश्य से अदृश्य हो गईं. वहीं उमा भारती नियम का पालन करती रहीं और उस प्रसिद्धि के तयशुदा रास्तों पर चलती गईं. कुछ वक्त के लिए पड़ावों ने उन्हें रोका जरूर, पर वे आगे
बढ़ती रहीं, राजनीति करती रहीं, मंत्री बनती रहीं, गंगा साफ करने के लिए तैयार होती रहीं.