सचिन और रेखा, कम ही देखा

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दो साल पहले जब क्रिकेट के दिग्गज सचिन तेंदुलकर राज्यसभा के लिए नामित हुए तो एक अखबार की टिप्पणी थी कि भगवान को नया घर मिल गया है. यह अलग बात है कि इस घर में उनकी मौजूदगी अब तक न के बराबर रही है. संसद की कार्रवाई पर नजर रखने वाली संस्था पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक इस साल संसद के किसी भी सत्र में तेंदुलकर ने एक दिन भी हिस्सा नहीं लिया. अब तक संसद में उनकी मौजूदगी का कुल आंकड़ा देखें तो यह सिर्फ तीन फीसदी रही है. अपने मनोनयन के मौके पर उन्होंने कहा था कि वे संसद में खेल से जुड़े मुद्दे उठाना चाहेंगे. लेकिन बात बात ही रह गई.

सचिन इस जमात में अकेले नहीं हैं. राज्यसभा सांसद और फिल्म अभिनेत्री रेखा का मामला भी कुछ ऐसा ही है. रेखा भी 2012 में राज्यसभा सदस्य बनी थीं. तब से अब तक सदन में उनकी हाजिरी महज पांच फीसदी है. वे सिर्फ सात मौकों पर संसद में दिखी हैं.

तेंदुलकर या रेखा जैसे सदस्यों को अपने-अपने क्षेत्रों में विशेष योगदान के चलते सांसद बनाया जाता है. खेल, साहित्य, कला, विज्ञान या समाज सेवा जैसी पृष्ठभूमियों से ताल्लुक रखने वाली इन हस्तियों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने ज्ञान और अनुभव के चलते इन क्षेत्रों की बेहतरी के लिए कोई दिशा तय करने में अपना योगदान देंगे. अलग-अलग स्रोतों के मुताबिक 1952 से अब तक क़रीब 200 ऐसे लोग नामांकित किए जा चुके हैं. इनमें विख्यात लेखक, पत्रकार, कलाकार और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं. लेकिन ऐसे सांसदों का प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा है. इसलिए स्वाभाविक ही है कि एक वर्ग की तरफ से यह मांग उठ रही है कि राज्यसभा में ऐसे सदस्यों को नामांकित किया जाए जो संसद में आएं, सत्र के दौरान कुछ बोलें और गंभीरता से वह जिम्मेदारी निभाएं जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है. जाने-माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा का मानना है कि सचिन को राज्यसभा जाने का प्रस्ताव मानना ही नहीं चाहिए था क्योंकि यह फैसला कांग्रेस ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के चलते लिया था. राज्यसभा सांसद और चर्चित शायर-गीतकार जावेद अख्तर कहते हैं कि संसद की सदस्यता कोई ट्रॉफी नहीं है कि आए और लेकर चले गए.

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