अबकी बार, जनता का अधिकार

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विकास कुमार

दिसंबर के पहले हप्ते में देश के अलग-अलग इलाकों के तमाम जनसंगठन एक मंच के तले अपनी मांगों को लेकर जंतर-मंतर पर एकत्रित हुए. इस महाजुटान का मकसद केंद्र में बनी एक अतिशक्तिशाली सरकार को अनियंत्रित होने से रोकना और जन सरोकार से जुड़े मसलों पर सरकार को कायम रखना है

बचपन में दूरदर्शन पर देखी गई गणतंत्र दिवस की झांकी भला किसे याद नहीं होगी? देश के अलग-अलग प्रांतों, अलग-अलग हिस्सों की वह रंगबिरंगी झांकी जिसमें सबकुछ बहुत खुशहाल और हरा-भरा नजर आता है. मानो अगर कहीं स्वर्ग है तो बस यहीं है. लेकिन इसे देखने वाले भी जानते हैं कि यह सच नहीं है. दिसंबर की दो तारीख की सुबह जब हम राजधानी के प्रख्यात धरना स्थल जंतर-मंतर पहुंचे तो लगा मानों वहां भी पूरा देश ही उतर आया है. अपनी-अपनी बोली-बानी लिए बिहार, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड सब वहां आ जुटे थे. जो बात उसे गणतंत्र दिवस से अलग बना रही थी वह थी झांकी और खुशियों की कमी.

सुनहरी झांकी के बजाय पूरा जंतर-मंतर नारों से गूंज रहा था. अबकी बार, मोदी सरकार की तर्ज पर अबकी बार, हमारा अधिकार के नारे लग रहे थे. नारेबाजी और प्रदर्शन के बीच लोगों में गजब की एकता और तालमेल नजर आ रही थी. सब एकजुट थे क्योंकि सबके दिलों में चुभन एक सी थी. लोगों के हाथ में प्ले कार्ड लहरा रहे थे. जिनमें कोई जल, जंगल, जमीन पर अपने अधिकार के लिए दुखी था तो कोई और नरेगा में किए जा रहे बदलाव को लेकर असंतुष्ट. इस जुटाव के पीछे मुख्य तौर पर चार जनसंगठनों की भूमिका थी- जनआन्दोलनों का राष्ट्रीय समंवय (एनएपीएम),  राष्ट्रीय रोजगार अधिकार मोर्चा, पेंशन परिषद और रोजी रोटी अधिकार अभियान. इन संगठनों ने इसी साल अगस्त में तय किया था कि जन संगठनों का एक साक्षा मंच हो.

भीड़ में सबसे आगे की कतार में बैठे एक शख्स का नाम अर्जुन सिंह है, वे अपने कई साथियों के साथ राजस्थान से आए हैं. पचास की उम्र में पहुंच चुके सिंह से जब सवाल किया जाता है कि वे 400 किमी का सफर तय करके यहां क्यों आए हैं तो वे कहते हैं, ‘जब पेट पर मार पड़ने वाली हो तो शरीर के बाकी अंगों को समय रहते हरकत में आ जाना चाहिए. अगर जो ऐसा न किया जाए तो सारा शरीर बेकार हो जाएगा क्योंकि पेट भरेगा, तभी शरीर चलेगा.’ वो आगे कहते हैं, ‘हम गांव में रहते हैं. वहां यहां की तरह हर दिन काम तो होता नहीं है. खेती का काम भी कम ही होता है. पूरा देश जानता है कि राजस्थान के लोगों को नरेगा से कितना फायदा मिला है. नरेगा जैसी योजना को और बढ़ाने की जरुरत है लेकिन यह सरकार उल्टे उस योजना पर कैंची चलाने की बात कर रही है. जिन योजनाओं से हमारा पेट भरता है उनपर कैंची चल जाए और जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन है उसे उनसे लेकर बाकी का काम भी तमाम कर दिया जाए.’

अर्जुन सिंह की बात अभी खत्म हुई ही थी कि बिहार के मोतिहारी से आए 30 वर्षीय कुंदन पटेल बोल उठते हैं, ‘बिहार में नरेगा का काम ठप है. काम के लिए पूछते हैं तो पता चलता है कि केंद्र से फंड ही नहीं मिल रहा है. सरकारी दुकान से मिलने वाले तेल-राशन के बदले पैसा देने की बात हो रही है. गरीब के पेट में रोटी जाने का जुगाड़ नहीं है और बैंक अकाउंट खुलवा रहे हैं. क्या करेंगे बैंक अकाउंट का? भुख लगेगी तो चाटेंगे क्या?’ कुंदन अपने इलाके के एक कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं. बटाई पर खेती करते हैं और कॉलेज की पढ़ाई करते हैं. कुंदन उन युवाओं में से हैं जो खेती करके अपने जीवन और पढ़ाई को बड़ी मुश्किल से चला पा रहे हैं. इनके परिवार के कई लोग नरेगा से काम पाते रहे हैं. इनके घर में जन वितरण प्रणाली की सरकारी दूकान से चीनी और केरोसिन का तेल आता है और अब उन्हें डर लग रहा है कि कोटे की दुकान से मिलने वाला सामान बंद हो जाएगा और उसके बदले कुछ नगद पैसे पकड़ा दिए जाएंगे. नरेगा का काम पहले ही ठप है और अब सरकार जो बदलाव इस कानून में करने जा रही है उनसे इनके परिवार की आय का एक स्रोत भी बंद हो जाएगा.

बिहार के कुंदन और राजस्थान के अर्जुन सिंह की तरह यहां हजारों लोग हैं जिनकी लगभग-लगभग यही आशंकाएं हैं. ये लोग अपनी इन्हीं आशंकाओं को खत्म करने और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को यह याद दिलाने के लिए  यहां आए हैं कि भूख लगने पर पैसे नहीं, अन्न खाया जाता है. यहां इकट्ठा हुए कई लोग यह पूछते हैं कि जब सरकार हमारे बगल के सरकारी अस्पताल में आजतक दवाई नहीं पहुंचा सकी तो इसका भरोसा कैसे किया जाए कि वो सभी योजनाओं के बदले नकद पैसा अकाउंट में पहुंचा देगी? इनलोगों की चिंता और सरकार के प्रति इनकी शंकाओं ने ही इस बड़े प्रदर्शन की नींव रखी है.

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विकास कुमार

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