‘ये सीट विकलांगों के लिए आरक्षित है’

मनीषा यादव
मनीषा यादव
मनीषा यादव

बीते अगस्त का एक दिन था. जैसा कि होता है, दिल्ली के व्यस्ततम मेट्रो स्टेशन राजीव चौक पर तिल रखने की जगह नहीं थी. किसी तरह कोच में घुसने में कामयाब हुआ तो कानों में लगे इयरफोन में बेगम अख्तर  बेसाख्ता बोल उठीं- ये न थी हमारी किस्मत… बेगम साहिबा के लफ्जों से राहत पाता मैं एक कोने में जा खड़ा हुआ. सफर थोड़ा लंबा था इसलिए मैं अपने बैग में रखी ऐन फ्रैंक की किताब ‘द डायरी ऑफ ए यंग गर्ल’ के कुछ बचे हुए पन्ने पढ़ने में मशगूल हो गया. साथ ही मेट्रो के शीशों से बाहर झांकते हुए दिल्ली को भीगते देखना भी अच्छा लग रहा था.

सफर के दौरान अक्सर मैं उस सीट पर बैठने से परहेज ही करता आया हूं जो कि महिलाओं के लिए आरक्षित हो. किसी तरह की ‘शर्म’ की वजह से नहीं बल्कि इस बात के चलते कि अक्सर उस सीट पर बैठे हुए लोगों को (खासकर पुरुषों को) अगले एक दो स्टेशन पर उठते हुए देखता हूं. लेकिन, कई मर्तबा इसके उलट, उस सीट पर मैंने कुछ पुरुषों को जोंक की तरह चिपकते और जानबूझकर सोने का बहाना करते हुए भी देखा है. न जाने उस सीट पर बैठते ही उन्हें नींद अपने आगोश में कैसे ले लेती है, जिससे कई बार मजबूरन कुछ न बोल पाने वाली महिलाओं को खड़े-खड़े ही सफर तय करना पड़ता है. और सीट पर बैठे व्यक्ति अपनी नींद पूरी करने का बहाना करते पाए जाते हैं. लेकिन आज तो तमाम आरक्षित सीटें भी ‘घेरी’ जा चुकी थीं.

तभी, अचानक कोच से आ रही कुछ एक आवाजों और ठहाकों ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा. ये मेरे साथ राजीव चौक से चढ़े कुछ दोस्तों का ‘झुंड’ था, जो अपने साथ की एक महिला साथी से ‘दोस्ती के नामपर’ चुहल करने में लगा हुआ था. कभी उसके ऑफिस के दूसरे साथियों के नाम पर तो कभी उसके पति के नाम पर. इस बीच मैंने शोर के चलते किताब वापस बैग में रख ली. पर ये बात उस लड़की के चेहरे पर उमड़ रहे हाव-भाव से साफ थी कि कहीं न कहीं वह उन बातों को इतनी भीड़ में सुनना पसंद नहीं कर रही थी. असहज होते हुए भी वह चुप थी और बीच-बीच में झूठी मुस्कुराहट बिखेरने को मजबूर थी.

‘असल में हास्य के नाम पर ये समूह उस समाज की नुमाइंदगी कर रहा था जो शारीररक अक्षमता को हीन भावना और मजाक समझता है’

इस दौरान स्टेशनों पर लोगों के चढ़ने-उतरने का सिलसिला जारी रहा. मेरा भी गंतव्य स्थान नजदीक आ रहा था. तभी, वृद्ध एवं विकलांगों के लिए आरक्षित सीट खाली होने पर वह महिला बिना कोई मौका गंवाये जाकर बैठ गई, जिस पर उसके बाकी (पुरुष) साथियों ने चेहरे पर एक शातिर मुस्कान बिखेरते हुए उसे ये कहकर तंज दिया कि ‘तुम सही जगह पर बैठी हो, ये सीट विकलांगों के लिए ही आरक्षित है’ और अपना सामान उसकी गोद में थमा दिया. बाकी दोस्तों के साथ-साथ खुद उस लड़की ने इस बात पर हंसना जरूरी समझा. लेकिन मेरे जेहन ने मजाक के नाम पर इस ओछी और असंवेदनशील बात को सहन करना सही नहीं जाना. समझाइश के तौर पर मैंने ‘संभ्रांत’ दिखने वाले उस समूह को इस उम्मीद के साथ कि वे मेरी बात समझ सकेंगे ये कहते हुए टोका कि आप मजाक के नाम पर समाज के एक वर्ग के प्रति असंवेदनशील बर्ताव कर रहे रहे हैं, जो की आप जैसे ‘पढ़े-लिखे’ नौकरीपेशा लोगों को शोभा नहीं देता.

‘ये मेरी दोस्त है और मैं अपने दोस्त से ये कह रहा हूं’ समूह का वह शख्स अब मेरी ओर मुखातिब था जिसने अभी-अभी उस महिला पर ये असंवेदनशील तंज कसा था. असल में हास्य के नाम पर यह उनकी सोच का नमूना था. यह समूह उस समाज की नुमाइंदगी कर रहा था जो शारीरिक ‘अक्षमता’ को हीन भावना और मजाक समझता है. बहरहाल, मेरी उन बातों से मेट्रो में सवार लोगों को कुछ फर्क पड़ा कि नहीं ये मैं नहीं जानता.

शायद कोच से उतरने पर उन्होंने मुझे भी दूसरों के मामले में टांग अड़ाने वाले की संज्ञा दी हो, इसका भी मुझे इल्म नहीं. मेरा स्टेशन आ चुका था. कोच से उतरने के बाद मेरे लिए एक बात और पक्की हो गई थी कि ऐसे ही सोच के चलते यह वर्ग समाज का हिस्सा होते हुए भी काफी कम सामने आ पाता है. उन्हें हर बार छोटी-छोटी चीजों से इस बात का एहसास दिलाता है कि वे हमारे जैसे नहीं हैं. यहां तक कि कई मर्तबा अपने हास्य का ‘सामान’ बनाने में भी पीछे नहीं रहता. और ऐसी किसी घटना काे अपने आसपास होता देख मुखर होकर कुछ कहने, विरोध करने के बदले चुप रहता है.

-लेखक रेडियो जॉकी हैं और दिल्ली में रहते हैं.