बात उन दिनों की है जब मै रांची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई कर था, दोस्तों के साथ विभाग के बाहर सामने बरगद पेड़ के पास बने चबूतरे पर रोज ‘छात्र संसद’ लगती थी. यहां हम मित्रों के बीच अंतरंग बातों के अलावा देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक हालात को लेकर जमकर चर्चा होती थी. इन्हीं बहसों में सांप्रदायिकता और जातिवाद पर भी अक्सर चर्चा होती थी लेकिन इसे संवेदनशील मुद्दा समझकर छोड़ दिया जाता था. मै इस मुद्दे पर हमेशा चर्चा जारी रखना चाहता था क्योंकि हम सब पत्रकारिता की दुनिया का हिस्सा होने जा रहे थे. हमारे लिए इसे समझना जरूरी था. हमारे मधुकर सर अक्सर इन सब मुद्दों पर क्लास में चर्चा करते थे लेकिन सारे लोगों की इस विषय पर उदासीनता को देखकर वे भी खामोश हो जाते थे. लेकिन कुछ दिन गुजरने के बाद ही हमें इस बात को समझने और इस विषय से रूबरू होने का आखिकार एक मौका मिल गया.
बाबरी मस्जिद और रामजन्म भूमि विवाद को लेकर इलाहबाद हाई कोर्ट का बहुप्रतीक्षित फैसला 30 सितंबर 2010 को आने वाला था. फैसले की तारीख जैसे-जैसे करीब आ रही थी गली, मोहल्लों और चौक-चौराहों पर इस बात की चर्चा थी कि फैसला किसके पक्ष में आएगा. हर तरफ माहौल में एक अजीब सी उत्सुकता और बेचैनी पसर गई थी.