केन मेरे लिए केदारनाथ की कविताओं की तरह थी, लेकिन उस दिन इस नदी से जुड़े सारे ‘भ्रम’ टूट गए

Tarangire_River_Tanzania_in_July_(Dry_season)

इस बार दिल्ली में ठंड सिर्फ नाम के लिए आई. फरवरी आते-आते गायब. उस रात हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से ट्रेन पकड़ते वक्त भी ठंड का एहसास नहीं हुआ. यह बुंदेलखंड की मेरी पहली यात्रा थी, जिसका पहला पड़ाव बांदा था. आम तौर पर ट्रेन में घुसते ही मुझे नींद आ जाती थी, लेकिन उस रात ऐसा नहीं हुआ. 10 से 11 घंटे की यात्रा में अधिकांश समय टकटकी में गुजर गया. सिर्फ चार घंटे ही सो पाई और वह नींद भी किस्तों में नसीब हुई. ऐसा शायद बांदा पहुंचने की उत्सुकता की वजह से हुआ था. खैर, सुबह-सुबह संपर्क क्रांति एक्सप्रेस बांदा स्टेशन पहुंच चुकी थी.
सफर पर निकलने से पहले ही दोस्तों और परिचितों ने घूमने-फिरने की एक लंबी लिस्ट पकड़ा दी थी, ‘देखो! बांदा जा रही हो तो कालिंजर का किला जरूर देखना, भूरागढ़ का किला भी, वहां पहाड़ों के ऊपर एक मंदिर बना है, वहां जरूर जाना. जामा मस्जिद देख आना और हां, अगर समय हो तो केन नदी भी देख आना और केदारनाथ अग्रवाल ने जो लाइब्रेरी बनाई है, वो भी.’

गंगा किनारे की लड़की होने के नाते बचपन से ही नदियों से एक स्वाभाविक प्रेम रहा है. इसलिए स्टेशन से बाहर निकलते ही रिक्शा वाले भइया से केन नदी ले जाने को कहा. केन यमुना का अभिन्न अंग है. केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन की कविताओं में केन के बारे में बहुत पढ़ा था. दूर से ही नदी की छोटी पहाड़ियां दिखने लगी थीं. सोचने लगी शायद केन भी नर्मदा जैसी ही पहाड़ियों के ऊपर से बहती होगी. मेरी उत्सुकता अपने चरम पर थी. धीरे-धीरे रिक्शे की गति कम हो रही थी और फिर रिक्शा रुक जाता है. मैं रेलवे लाइन पार कर केवटों के एक छोटे-से मोहल्ले से होते हुए केन किनारे पहुंच गई. किनारे पर पहुंचते ही मानो आंखों ने विद्रोह करना शुरू कर दिया. इस नदी से जुड़े कई भ्रम टूट चुके थे. ‘नहीं-नहीं! ये केन नहीं हो सकती.’

आपत्तियों के बावजूद यमुना किनारे हुए एक कार्यक्रम में शीर्ष नेताओं का पहुंचना बताता है कि वे नदियों को लेकर कितने सजग हैं

दरअसल केन मेरे लिए केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं की तरह थी. बांदा जिले के कमासिन में जन्मे केदारनाथ अग्रवाल अपनी एक कविता में लिखते हैं, ‘मैं घूमूंगा केन किनारे/यों ही जैसे आज घूमता/लहर-लहर के साथ झूमता/संध्या के प्रिय अधर चूमता/दुनिया के दुख-द्वंद्व बिसारे/मैं घूमूंगा केन किनारे.’ लेकिन केन किनारे ऐसा कुछ नहीं था जहां घूमा जा सके, जिसे निहारा जा सका. यहां न तो पेड़ दिख रहे थे, न ही नदी की धार. नजर आ रहे थे तो सिर्फ बालू के पहाड़ जो केन का सीना खोदकर निकाले जा रहे थे. नदी का पाट गंदगी से भरा था. पास में ही एक व्यक्ति फावड़ा लिए नदी से बालू निकाल रहा था. उसे टोकने पर वह सिर्फ इतना बताता है कि वह लोगों के हित के लिए काम कर रहा है. इसके आगे कुछ भी बताने से वह इनकार कर देता है और वापस बालू खोदने के अपने काम में लग जाता है. नदियों से बालू का अवैध खनन आम बात है. बांदा से दिल्ली लौटने के बाद अक्सर केन की हालत आंखों के सामने नजर आने लगती है.

केन नदी को लेकर मैं शायद कुछ ज्यादा ही भावुक हो गई थी, तभी उसकी हालत देखकर इतना धक्का लगा था. हमारे देश में अधिकांश नदियों की हालत कमोबेश ऐसी ही है. केन की हालत देखकर यमुना की याद आ गई. हाल यह है कि नदियों के नाम पर हमारी याद सिर्फ गंगा-यमुना पर आकर टिक जाती है. दूसरी नदियों की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाता. बीते मार्च में यमुना के खादर में आयोजित विश्व स्तर के एक कार्यक्रम ने इस बात की ओर ध्यान खींचा कि नदियां अब हमारी प्राथमिकता में नहीं हैं. नदियों को लेकर हमारे राजनीतिज्ञ बड़ी-बड़ी बातें करते हैं. बड़ी योजनाएं चलाते हैं, लेकिन होता कुछ नहीं है. तमाम आपत्तियों और जुर्माना लगाने के बावजूद वह कार्यक्रम यमुना किनारे होता है और हमारे शीर्ष नेता इसमें शामिल होकर इस बात का सबूत पेश करते हैं कि नदियों की हालत सुधारने को लेकर वे कितने सजग हैं.

(लेखिका पत्रकार हैं और दिल्ली में रहती हैं)