एक भूला-बिसरा कानून…

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इलस्ट्रेशनः मनीषा यादव

एक वैज्ञानिक अनुमान के मुताबिक दुनियाभर में जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की तकरीबन बीस लाख प्रजातियां पाई जाती हैं. इनमें से भी लगभग 200 से लेकर 2000 तक हर साल विलुप्त हो रही हैं. भारत का ही एक उदाहरण लें तो वर्ष 1965 की एक गणना के अनुसार देश में 1.10 लाख धान की किस्में अस्तित्व में थीं, जो आज घटकर 2000 रह गई हैं. ये तथ्य खुद ही नष्ट होती जैव विविधता की तस्वीर को स्पष्ट कर देते हैं. दुनिया भर में जैव विविधता पर इसी तरह का संकट है किंतु भारत में स्थिति भयावह इसलिए है कि इनको बचाने के लिए जो कानून बनाया गया उसको ही जिम्मेदार एजेंसियों ने भुला दिया है. इस बात पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है कि किसी कानून को कैसे भुलाया जा सकता है लेकिन वास्तविकता यही है. देश में बारह साल पहले जैव विविधता कानून बनाया गया लेकिन इसे लागू करने की दिशा में आजतक कुछ नहीं हुआ. इसलिए इसे भूला हुआ कानून कहा जाना बिलकुल जायज है. इस कानून के लागू न हो पाने से वनस्पतियों की दुर्लभ प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा तो बढ़ ही रहा है. इस पर अमल न करने से देश को सालाना करीब 1000 करोड़ रुपये के राजस्व का भी नुकसान हो रहा है. यदि पिछले दस सालों को जोड़ लिया जाए तो यह आंकड़ा दस हजार करोड़ रुपये से अधिक हो जाता है.

यह भी महत्वपूर्ण बात है कि जैव विविधता संरक्षण के लिए बनाए गए इस कानून के प्रति भारत ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबद्धता जाहिर की थी. वर्ष 1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में जलवायु परिवर्तन पर हुए अर्थ  सम्मेलन में जैव विविधता संरक्षण और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से लड़ने के लिए जो समझौता किया गया उस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किए थे. आज दुनिया के 194 देश इस पर अपनी सहमति जता चुके हैं.

भारत में इस समझौते के दस साल बाद, वर्ष 2002 में जैव विविधता अधिनियम बनाया गया था. इसके आधार पर नेशनल बायोडाइवरसिटी अथॉरिटी (एनबीए) का गठन किया गया और चेन्नई में इसका मुख्यालय बनाया गया. वर्ष 2004 में इसके लिए नियम बनाए गए और राज्यों में स्टेट बायोडाइवरसिटी बोर्ड का गठन हुआ. जैव विविधता अधिनियम में प्रावधान के अनुसार इसके अमल की जिम्मेदारी एनबीए और राज्य के जैव विविधता बोर्डों को दी गई है लेकिन वर्ष 2004 से लेकर वर्ष 2013 तक एनबीए ने इस बारे में कुछ नहीं किया. इसी तरह की स्थिति राज्य के बोर्डों की भी रही. यह मुमकिन था कि यही स्थिति आगे भी जारी रहती यदि मध्य प्रदेश में पिछले साल इस दिशा में पहल शुरू नहीं हुई होती (देखें बॉक्स).

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जैव विविधता कानून के दायरे में आने वाली कंपनियां
डिस्टलरी, चाकलेट, चीनी, हर्बल मेडिसिन, टेक्सटाइल, जूस, आनुवांशिक रूप से संशोधित बीज, खाद्य तेल, राइस ब्रान ऑयल (धान की भूसी से बना तेल) तथा कोका प्रयोग कर पेय पदार्थ बनाने वाली कंपनियों के साथ ही एंजाइम का प्रयोग कर उत्पाद बनाने वाली बायो टेक्नोलॉजी और फार्मा कंपनियां भी इस कानून के दायरे में आती हैं

सरकार को नुकसान
इस कानून के लागू होने पर सरकार को बीते दस सालों में तकरीबन 10 हजार करोड़ रुपये की आमदनी हो सकती थी

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जैव विविधता अधिनियम के अनुसार जैव संसाधनों का व्यावसायिक प्रयोग करनेवाली किसी भी विदेशी कंपनी को भारत में अपना काम शुरू करने से पहले एनबीए से पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य है. विदेशी कंपनी या व्यक्ति जैव संसाधन को देश से बाहर भेजते हैं तो इसकी भी अनुमति लेना जरूरी है. देश में कोई भी पेटेंट कराने के लिए एनबीए की पूर्व अनुमति अनिवार्य है. भारतीय कंपनी यदि जैव संसाधनों का व्यावसायिक उपयोग कर रही है तो उसे एनबीए या राज्य के जैव विविधता बोर्ड को पूर्व जानकारी देना अनिवार्य होता है. इस कानून के प्रावधानों के मुताबिक जैव संसाधनों का व्यावसायिक उपयोग करनेवाली सभी कंपनियों को बेनीफिट शेयरिंग (लाभ में हिस्सेदारी) करनी होगी. विदेशी कंपनी के लिए प्रावधान है कि वह अपने सालाना कारोबार का दो फीसदी राजस्व बेनीफिट शेयरिंग के रूप में एनबीए को देगी. विदेशी कंपनी से आशय है कि कंपनी में यदि एक फीसदी हिस्सेदारी भी विदेशी है तो वह इस श्रेणी में आएगी. भारतीय कंपनियों को भी बेनीफिट शेयरिंग करनी है किंतु इसके लिए विस्तृत दिशा निर्देश बनाए जाने थे जो आज तक नहीं बने हैं. इस तरह के स्पष्ट प्रावधानों के होते हुए भी एनबीए ने इनके अमल को लेकर कुछ भी नहीं किया है. एनबीए के एक सदस्य आरएस राणा इस मामले पर फिलहाल कोई प्रतिक्रिया नहीं देना चाहते. राणा कहते हैं कि एनबीए से जुड़े विवाद इस समय न्यायालय में चल रहे हैं इसलिए वे अभी कुछ नहीं कह सकते.

जैव विविधता संरक्षण के लिए बनाए गए इस कानून के प्रति भारत ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबद्धता जाहिर की थी

भारत में काम कर रही और जैव संसाधनों का प्रयोग करनेवाली किसी भी विदेशी कंपनी ने अभी तक एनबीए से अनुमति नहीं ली है. पर्यावरण और जैवसंसाधनों से जुड़े मामलों पर सुनवाई करने के लिए बने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की सेंट्रल ब्रांच में चल रहे मामलों में यह तथ्य सामने आया है कि एनबीए के पास यह जानकारी नहीं है कि देश में कितनी कंपनियां है जो जैव संसाधनों का व्यावसायिक प्रयोग कर रही हैं. जब यह मूल जानकारी ही नहीं है तो बेनीफिट शेयरिंग के अंतर्गत शुल्क वसूली की बात ही संभव नहीं है. इस तरह से एक बहुत बड़े राजस्व से देश को हाथ धोना पड़ा है. यह राशि कितनी है इसके बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है किन्तु अनुमान लगाया गया है कि यह राशि सालाना 10,000 करोड़ रुपये से अधिक है. इस कानून  के दायरे में डिस्टलरी, चॉकलेट, चीनी, हर्बल मेडिसिन, टेक्सटाइल, जूस, आनुवांशिक रूप से संशोधित बीज, खाद्य तेल, राइस ब्रान ऑयल (धान की भूसी से बना तेल) तथा कोका प्रयोग कर पेय बनानेवाली कंपनियां शामिल है. इस तरह से पेप्सी और कोकाकोला बनाने वाली कंपनियां भी इस कानून के दायरे में आ रही हंै. एंजाइम का प्रयोग कर उत्पाद बनानेवाली बायो टेक्नोलॉजी और फार्मा कंपनियां भी इस कानून के दायरे में आती हैं. इसके अलावा कोयला और गैस जैसे हाइड्रेकार्बन को भी जैव संसाधन में शामिल किया जा रहा है. हालांकि फिलहाल इनके जैव संसाधन होने पर स्पष्टता नहीं है. इससे संबंधित मामला भी न्यायालय में चल रहा है.

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आरजी सोनी, पूर्व सदस्य सचिव, जैव विविधता बोर्ड (मप्र)
आरजी सोनी
पूर्व सदस्य सचिव,
जैव विविधता बोर्ड (मप्र)

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