
26 मई को केंद्र में नई सरकार का गठन हो जाने के बाद ‘नये युग का सूत्रपात’, ‘अब आएंगे अच्छे दिन’, और ‘नमो राज’ जैसी हेडलाइनों के बाद उन सुर्खियों की शुरुआत हुई जो मोदी सरकार के भावी कदमों की तरफ इशारा करती थीं. कई तरह के अनुमानों, आशंकाओं और संभावनाओं के बीच राज्यपालों के संबंध में भी एक भविष्यवाणी हुई. इसके मुताबिक बहुत जल्द ऐसे राज्यपालों की उलटी गिनती शुरू होने वाली थी जिनकी नियुक्ति पिछली यूपीए सरकार के कार्यकाल में हुई थी. अलग-अलग खबरों में दावा किया गया कि ऐसे सभी राज्यपालों को हटा कर मोदी सरकार अगले पांच सालों के लिए अपने ‘फ्लेवर’ वाले लोगों को राजभवनों में स्थापित करने वाली है. इसी बीच 17 जून को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. भविष्यवाणी सच होती दिखने लगी. जोशी के बाद अगले कुछ ही दिनों के अंदर तीन और राज्यपालों (पश्चिम बंगाल, नागालैंड, और छत्तीसगढ़) ने भी राजभवन छोड़ दिए. भूतपूर्व हो चुके इन राज्यपालों के स्थान पर केंद्र सरकार ने भाजपाई पृष्ठभूमि वाले चार वरिष्ठ नेताओं को महामहिम बना कर मीडिया के दावे पर पूरी तरह से मुहर लगा दी. इसके कुछ दिनों बाद केंद्र सरकार ने मिजोरम की राज्यपाल कमला बेनीवाल और पुडुचेरी के उप राज्यपाल वीरेंद्र कटारिया को बर्खास्त करके अन्य राज्यपालों को भी संकेत कर दिया कि जल्द से जल्द इस्तीफा देने में ही उनकी भलाई है. तबसे लेकर अब तक राज्यपालों के हटने का यह क्रम बदस्तूर जारी है. 24 अगस्त को महाराष्ट्र के राज्यपाल के शंकर नारायण और इसके दो दिन बाद केरल की राज्यपाल शीला दीक्षित के इस्तीफे के बाद यह संख्या आठ तक पहुंच गई है.
लेकिन इस्तीफों के इस पतझड़ के बीच उत्तराखंड के राज्यपाल अजीज कुरैशी ने राजभवन छोड़ने से साफ इंकार कर दिया. इतना ही नहीं, अंगद के पांव की तरह राजभवन में जमे कुरैशी ने खुद को हटाए जाने की आशंका जताते हुए उच्चतम न्यायालय में एक याचिका तक दायर कर दी. इस याचिका में उन्होंने केंद्र सरकार पर खुद को हटाये जाने के लिए दबाव डालने का आरोप लगाया. कुरैशी का आरोप है कि 30 जुलाई और आठ जून को गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने उन्हें फोन करके इस्तीफा देने के लिए कहा था. याचिका में यह भी कहा गया है कि इस अधिकारी ने कुरैशी से खुद इस्तीफा न देने की सूरत में उन्हें मजबूरन हटा दिए जाने की धमकी दी. कुरैशी की याचिका पर सुनवाई करने के बाद उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार को नोटिस देकर छह हफ्ते के अंदर जवाब मांगा है. भारत के इतिहास में यह पहली घटना है जब कोई राज्यपाल अपनी कुर्सी बचाने के लिए सीधे तौर पर केंद्र सरकार से टकराया है. इसके बावजूद जानकारों का मानना है कि आज नहीं तो कल, कांग्रेसी पृष्ठभूमि वाले अजीज कुरैशी को उत्तराखंड के राजभवन से रुखसत होना ही पड़ेगा.
राज्यपालों पर पार्टी विशेष के पक्ष में काम करने के आरोप लग रहे हैं. उनकी नियुक्ति में भी केंद्र सरकारों द्वारा किया जा रहा पक्षपात साफ दिखता है
जानकारों ने ऐसा क्यों कहा, इसे समझने के लिए आज से 10 साल पहले हुआ इसी तरह का एक घटनाक्रम याद करना जरूरी है. 3 जुलाई, 2004 को अचानक खबर आई थी कि केंद्र सरकार ने चार राज्यों के राज्यपालों को बर्खास्त कर दिया है. दक्षिणपंथी पृष्ठभूमि वाले इन राज्यपालों की नियुक्ति अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के कार्यकाल में हुई थी. इनको हटाने की वजह बताते हुए तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने तब इतना ही कहा था कि, ‘इनके साथ तालमेल बिठाने में केंद्र को दिक्कतें आ सकती हैं.’ भारतीय जनता पार्टी उस वक्त विपक्ष में थी और उसने केंद्र के इस कदम का विरोध करते हुए इसे लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया था. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का तब कहना था कि ‘पूर्ववर्ती सरकार के कार्यकाल में नियुक्त किए गए राज्यपालों को हटाना गलत परंपरा की शुरुआत है.’ मगर अपने फैसले पर अड़े केंद्र ने तब भाजपा की एक न सुनी.
वक्त का पहिया आज 180 डिग्री घूम चुका है. उस वक्त अपने फैसले की तरफदारी करने वाली कांग्रेस आज भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार द्वारा राज्यपालों को हटाए जाने का विरोध कर रही है. उधर, तब इसे ‘गलत परंपरा की शुरुआत’ बताने वाली भाजपा आज उसी परंपरा को आगे बढ़ा रही है.
ऐसे में राज्यपालों को उनके पद पर बनाए रखने, हटाए जाने और नियुक्त किये जाने को लेकर कई तरह के सवाल खड़े हो गए हैं. इन सवालों का संबंध इस पद की संवैधानिकता, प्रासंगिकता और उपयोगिता से जुड़ता है. पूछा जा रहा है कि अतीत में जैसा कांग्रेस ने किया, उसी तरह इस पद पर अपने अनुकूल चलने वाले लोगों को नियुक्त कर मोदी सरकार भी कहीं राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच टकराव की जमीन तो तैयार नहीं कर रही.
सवाल यह भी है कि इस संवैधानिक पद के इस हद तक राजनीतिकरण के बाद इसका क्या औचित्य बचता है. यानी ऐसे राज्यपाल का क्या मतलब जिसकी शानो-शौकत में जनता की गाढ़ी कमाई खर्च हो रही हो, लेकिन वह जनता से ज्यादा किसी पार्टी के हितों को समर्पित हो ?
इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए संविधान के उन पन्नों को टटोलने से शुरुआत करनी होगी जिनमें राज्यपाल पद का जिक्र किया गया है. संविधान निर्माताओं ने केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन साधने वाले सेतु के रूप में राज्यपाल पद को संवैधानिक मान्यता दी थी. इसके पीछे यही उद्देश्य था कि राज्यपाल नियुक्त होने वाला व्यक्ति राज्य में केंद्र के प्रतिनिधि के तौर पर इस तरह का समन्वय बनाएगा ताकि भारत के संघीय ढांचे की अवधारणा किसी भी स्थिति में बिगड़ने न पाए. इस लिहाज से राज्यपाल के पद को विशेष सम्मान और गरिमा प्रदान की गई थी. लेकिन धीरे-धीरे यह गौरवमयी संस्था अपने उद्देश्यों के उलट नकारात्मक भूमिका के चलते आलोचना के दायरों में आने लगी है. संसद से लेकर राज्यों की विधान सभाओं और सार्वजनिक मंचों से लेकर व्यक्तिगत मोर्चों पर इसकी उपयोगिता को लेकर कई तरह के सवाल खड़े किए जाने लगे हैं. यहां तक कि इस पद को भविष्य में बरकरार रखे जाने पर तक असंतोष के स्वर उठने लगे हैं.
आखिर ऐसा क्या हुआ कि यह सम्मानजनक पद आलोचना की श्रेणी में आ गया? जानकारों की मानें तो राज्यपाल के पद को लेकर पिछले लंबे अर्से से की जाने वाली खास तरह की राजनीति ही इसकी सबसे बड़ी वजह है. वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘इसमें कोई दो राय नहीं है कि केंद्र सरकार की सिफारिश के बाद राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति की जाती है, लेकिन पिछले लंबे समय से इस संवैधानिक पद का जिस तरह से राजनीतिकरण किया गया है उसके चलते इसकी छवि लगातार धूमिल होती जा रही है.’ अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए वे कहती हैं, ‘राज्यपाल पद पर बैठे व्यक्तियों से अपेक्षा की जाती है कि वे दलगत भावना से ऊपर उठकर काम करेंगे, लेकिन पिछले कुछ सालों में ही ऐसी कई घटनाएं घट चुकी हैं जिनमें राज्यपालों पर पार्टी विशेष के पक्ष में काम करने के आरोप लगे हैं. इसके अलावा राज्यपालों को नियुक्त करने में भी सरकारों ने अब तक जिस तरह का पक्षपात किया है उससे भी इस पद की निष्पक्षता संदेहास्पद हो गई है.’
राजनितक विश्लेषक प्रोफेसर विवेक कुमार भी नीरजा चौधरी की बातों से पूरी तरह सहमति जताते हैं. वे कहते हैं, ‘सत्ता के विकेंद्रीकरण की व्यवस्था के तहत हमारे देश में केंद्र सरकार के अलावा राज्य सरकारों का प्रावधान भी बनाया गया है. इसी के तहत केंद्र तथा राज्यों के बीच कामकाज तथा अधिकारों का बंटवारा भी तय किया गया है. इस लिहाज से राज्यपाल के पद की अवधारणा महत्वपूर्ण मानी गई है, ताकि इन दोनों के बीच किसी भी तरह के विवाद से निपटने में उसकी अहम भूमिका हो. लेकिन वर्तमान में राज्यपाल पद पर मनमुताबिक लोगों की नियुक्ति करके केंद्र सरकारों ने इसके महत्व को पूरी तरह कम कर दिया है.’ वे आगे कहते हैं, ‘राज्यों में अपना एजेंडा चलाने के लिए केंद्र सरकारों द्वारा राज्यपालों को इस्तेमाल किया जाने लगा है. यही वजह है कि पहले कांग्रेस और अब भाजपा राज्यों में अपने हिसाब से चलने वाले वाले लोगों को राज्यपाल बनाने में लगी हुई है. आगे चलकर ये राज्यपाल वही करते हैं जो उनसे करवाया जाता है.’
‘अगर राज्यपालों का काम सिर्फ केंद्र के इशारों पर अमल करना रह गया है तो इससे न तो आम आदमी का कुछ भला हो सकता है और न ही राजनीति का’
राज्यपालों के दलगत भावनाओं से ऊपर न उठने और पार्टी विशेष की तरफदारी या मुखालफत करने वाले जिस आचरण की ओर नीरजा चौधरी और विवेक कुमार का इशारा है, उसकी पड़ताल करने पर ऐसे मामलों की एक लंबी फेहरिस्त सामने आती है जिससे पता चलता है कि राज्यपालों ने केंद्र और राज्यों के बीच सेतु का काम करने वाली अवधारणा को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. इतिहास के पन्ने टटोलने पर पता चलता है कि भारत की आजादी के एक दशक के अंदर ही राज्यपालों द्वारा केंद्र के पक्ष में काम करने वाली परिपाटी शुरू हो गई थी. 1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार को राज्यपाल की सिफारिश के बाद बर्खास्त कर दिया गया था. इससे पहले 1952 में भी मद्रास प्रेसीडेंसी के राज्यपाल द्वारा सत्ताधारी दल के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन किया जा चुका था. उस वक्त राज्यपाल ने कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत न मिल पाने के बावजूद सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया था. इसके बाद सी राजगोपालाचारी वहां के मुख्यमंत्री बने थे. इसके अलावा अन्य राज्यों में भी राज्यपालों द्वारा कांग्रेस के प्रति सहानुभूति साफ देखी जा सकती थी. लेकिन तब ये बातें उतना जोर नहीं पकड़ पाईं. इसकी वजह पुडुचेरी के उपराज्यपाल पद से हाल ही में हटाए गए वीरेंद्र कटारिया की बातों से स्पष्ट होती है. कुछ दिन पहले एक टीवी कार्यक्रम में उनका कहना था कि उस वक्त केंद्र के साथ ही अधिकांश राज्यों में भी कांग्रेस पार्टी की सरकार होती थी लिहाजा राज्यपाल के कामकाज को लेकर किसी तरह का विवाद कम ही देखा सुना जाता था.
लेकिन जैसे-जैसे राज्यों में दूसरी पार्टियां राजनीतिक रूप से और ताकतवर होने लगीं, राज्यपालों की भूमिका भी असल मायनों में समीक्षा के दायरे में आने लगीं. 1980 के दशक तक आते-आते तो आलम यह हो गया था कि केंद्र सरकार के इशारों पर राज्यपालों द्वारा ‘जो हुक्म मेरे आका’ की तर्ज पर अंजाम दिए जाने वाली करामातें खुल कर दिखने लगीं थी. 1984 में एनटी रामाराव के नेतृत्व वाली तेलगू देशम पार्टी नें आंध्र प्रदेश विधान सभा के चुनाव में कांग्रेस पार्टी की करारी मात देते हुए जोरदार बहुमत हासिल किया था. इसके बावजूद वहां के राज्यपाल रामलाल ने कुछ समय बाद ही रामाराव की सरकार को बर्खास्त कर दिया. कई दिनों तक जोड़-तोड़ करने के बाद भी कांग्रेस जब सरकार बनाने में कामयाब नहीं हो पाई तो आखिरकार राष्ट्रपति ने हस्तक्षेप किया और एनटी रामाराव फिर से मुख्यमंत्री बन गए. यह घटना किसी राज्यपाल द्वारा केंद्र सरकार के इशारों पर काम करने के लिए आज भी कुख्यात उदाहरण के तौर पर गाहे-बगाहे याद की जाती है. इसी तरह की एक और घटना उत्तर प्रदेश में भी हुई जब वहां के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने विश्वास मत हासिल कर चुकी कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश कर दी थी. भंडारी को कांग्रेस ने राज्यपाल बना कर उत्तर प्रदेश भेजा था. केंद्र के इशारों पर राज्यपालों का राज्य सरकारों से टकराने का यह सफरनामा इतना लंबा है कि इसकी पदचाप बिहार, झारखंड और कर्नाटक से होते 2005 में गुजरात तक से सुनाई पड़ने लगी थी. राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच टकराव की इन अलग-अलग कहानियों के बीच एक दिलचस्प बात यह है कि जिन-जिन राज्य सरकारों के साथ अब तक राज्यपालों का टकराव हुआ उन सभी राज्यों में ऐसी पार्टियों की सरकार थी, जो केंद्र की सत्ता पर काबिज पार्टी की विरोधी थी. इस बार भी, यानी मोदी सरकार के बनने के बाद जिन राज्यों से राज्यपालों की विदाई हुई है उनमें भी छत्तीसगढ को छोड़ कर बाकी सभी जगहों पर गैर भाजपा की सरकार है.
इसीलिए आशंका जताई जा रही है कि इन राज्यों के राज्यपालों को हटाने और इनके स्थान पर अपने अनुकूल चलने वाले लोगों को नियुक्त कर मोदी सरकार भी कहीं राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच टकराव की जमीन तो तैयार नहीं कर रही.