आपातकाल की आपबीती

Indra gandhi on emergency

1975 में इंदिरा गांधी के खिलाफ जब चुनावों में धांधली के आरोप के बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आने वाला था तब जगमोहनलाल सिन्हा जज थे. मैं तब ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में काम किया करता था. हम सब, जो जयप्रकाश नारायण या जेपी आंदोलन से जुड़े थे वो तो यही चाहते थे कि फैसला इंदिरा जी के खिलाफ ही हो पर मन ही मन हम ये भी समझते थे कि उस वक्त इतनी मजबूत और ताकतवर इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला देने की हिम्मत आखिर किस न्यायाधीश में होगी! 1971 में जब उन्होंने पाकिस्तान के दो हिस्से किए थे तब अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें ‘दुर्गा’ कहा था. इंदिरा के खिलाफ जब फैसला आया तब जाहिर है हम सब खुश हुए पर तब तक कभी सोचा ही नहीं था कि इसके क्या परिणाम हो सकते हैं. जेपी का हेडक्वार्टर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ हुआ करता था, जब भी वे दिल्ली आते तो विभिन्न संस्करणों के संपादकों से मिलते थे.

फैसला आने के एक या दो दिन बाद जब जेपी दिल्ली आए तो उन्होंने हम सभी को बुलाया. उन्होंने पूछा, ‘अब क्या करना चाहिए?’ सभी ने कहा कि अब जब वो (इंदिरा गांधी) सुप्रीम कोर्ट में अपील करने वाली हैं तो हम बस इंतजार कर सकते हैं. पर फिर भी हम ये चर्चा करने लगे कि मान लो अगर उन्हें पद से हटाया जाता है तब चुनाव होंगे. जेपी का कहना था कि चुनाव के बारे में बात करना फिजूल है क्योंकि वो वापस सत्ता में आ ही जाएंगी. असल में उनके शब्द थे, ‘मैं सोचता हूं कि यदि चुनावों की घोषणा होती है तो हमें इसमें भाग लेना चाहिए या नहीं न सोचकर, इनका बहिष्कार क्यों नहीं कर देना चाहिए?’ उस समय हम में से कुछ ने जवाब दिया, ‘जेपी हो सकता है कि आप सही हों पर रिपोर्टरों, संपादक को आ रहे पत्रों से मिले फीडबैक के आधार पर हम ये तो कह सकते हैं कि लोगों में बहुत गुस्सा है, भले ही वो इसे जाहिर करे या न करें.’ यहां डर एक महत्वपूर्ण पहलू था. फिर प्रस्ताव रखा गया कि लोगों का मिजाज भांपने के लिए हम अगले दिन के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में एक प्रविष्टि छापेंगे कि उसी दिन शाम के 5 बजे रामलीला मैदान में जेपी एक जनसभा को संबोधित करेंगे.

पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने उन्हें आपातकाल लगाने की सलाह दी. आपातकाल के पीछेे असली मास्टरमाइंड रे ही थे

और फिर जो हुआ वो अविश्वसनीय था. रामलीला मैदान को छोड़िए, कनाॅट प्लेस तक लोगों का हुजूम ही हुजूम था. उस समय रामनाथ गोयनका ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के मालिक थे, और तब उन्होंने मुझसे कहा कि अब हमें इस मुद्दे के साथ आगे बढ़ना चाहिए. मैं तब फील्ड में काम किया करता था. मैं सबसे पहले जगजीवन राम से मिला. वहां मैंने देखा कि उन्होंने अपने फोन का रिसीवर उठा के अलग रखा हुआ था. मैंने पूछा कि ऐसा क्यों तो उन्होंने कहा, ‘हमें नहीं पता पर हो सकता है वे (इंदिरा गांधी) मेरे फोन कॉल टैप करवा रही हों. और मुझे ऐसा भी लगता है कि किसी भी वक्त मुझे गिरफ्तार किया जा सकता है.’ फिर मैं कमलनाथ के पास गया. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के बोर्ड का तब पुनर्गठन हुआ था और रामनाथ गोयनका की जगह केके बिरला अध्यक्ष बनाए गए थे. कमलनाथ बोर्ड के सदस्य थे. मैं कमलनाथ को जानता था.. वो मुझे पंजाबी में हैलो कहा करते थे, मैं उनसे एक बार मिला भी था. वे संजय गांधी के करीबी थे. उन्होंने मुझसे कहा, ‘तुम संजय गांधी से क्यों नहीं कहते कि वो हमारे लिए लिखें?’ मैंने कहा कि हां अगर वो कुछ करते हैं तब मैं जरूर ऐसा करूंगा. उन्होंने पूछा, ‘क्या तुम उनसे मिलना चाहते हो?’ मैंने जवाब दिया, ‘अभी तो नहीं पर हां कभी तो मिलूंगा.’ आपातकाल के बाद मैंने उन्हें उनका वादा याद दिलाया और संजय गांधी से मिलने मैं श्रीमती गांधी के घर पहुंचा. मुझे आज भी याद है कि वो बरामदे में थीं.

वो हार चुकी थीं, सब जगह कागज बिखरे हुए थे, ये घर उस समय प्रधानमंत्री आवास ही था. संजय गांधी एक पेड़ के नीचे बैठे थे. मुझे देख कर वो आईं पर मैंने उनसे कहा, ‘नहीं आज मैं आपका नहीं संजय का इंटरव्यू लेने आया हूं.’ मैंने संजय से पूछा, ‘आपको कैसे लगा था कि इतना सब कर के आप आगे जा पाएंगे?’ उन्होंने कहा, ‘इसमें परेशानी ही क्या थी? बंसीलाल की मदद के साथ हम अच्छा ही कर रहे थे. (बंसीलाल उस समय रक्षा मंत्री थे, इससे पहले वो हरियाणा के पहले मुख्यमंत्री रह चुके थे पर बाद में संजय उन्हें दिल्ली ले आए). शायद मुझे कहीं कोई और बंसीलाल भी मिल सकता.’ उन्होंने आगे कहा, ‘मैंने जो स्कीम बनाई थी उसमें आने वाले 30 सालों तक कोई चुनाव नहीं था, मैंने एक नोट भी बनाया था.’ उन्होंने उस नोट की एक प्रति मुझे भी दी जिसमें एक ऐसी नई व्यवस्था थी जो संसदीय नहीं बल्कि अध्यक्षीय थी यानी समग्र शक्तियां एक व्यक्ति पर ही केंद्रित थीं. यहां चुनाव प्रत्यक्ष नहीं बल्कि अप्रत्यक्ष थे. यानी सभी चीजें अप्रत्यक्ष रूप से ही ‘मैनेज’ की जा सकती थीं.

न्यायाधीश

इन सब के बीच मैंने सोचा कि मुझे इलाहाबाद जाकर उन जज (जगमोहन सिन्हा) से तो जरूर मिलना चाहिए. वहां पहुंच कर मैंने उनके घर के बारे में पता किया और उनके पास पहुंच गया. जब वे मुझसे मिले तब मैंने उनसे कहा कि जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा अचरज में डाला वो थी आपका फैसला आने से पहले उसके बारे में किसी को अंदाजा तक नहीं हुआ कि वो क्या होगा. ‘आपने ये कैसे किया?’ उनसे मिलने पर मैंने सबसे पहले यही सवाल पूछा. उन्होंने बताया कि उन्होंने केस के इतिहास आदि से जुड़े हिस्से अपने स्टेनो को बोलकर लिखवाए थे पर बाकी पूरा फैसला उन्होंने अपने हाथ से लिखा था. स्टेनो को भी फिर छुट्टी पर भेज दिया. उनके एक साथी जज ने सिन्हा को ये भी बताया कि उन्होंने किसी से ये भी सुना है कि धवन (आरके धवन, इंदिरा गांधी के निजी सचिव) सिन्हा को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने की सोच रहे हैं. ऐसा मुझे सिन्हा ने बताया कि वो साथी उन्हें कुछ और ही संदेश देना चाह रहे थे. और जैसा मैंने अपनी किताब ‘द जजमेंट: इनसाइड स्टोरी ऑफ द इमरजेंसी इन इंडिया’ में भी लिखा है कि चरण सिंह ने सिन्हा का पता लगाया और उन्हें सजा भी दी. सिन्हा ने मुझे बताया कि वे साधु-संतों को बहुत मानते थे तो उन्होंने (श्रीमती गांधी के मददगारों ने) कुछ साधु-संतों के मेरे पास भेजा जिससे कि वो मेरे फैसले के बारे में कुछ जान सकें. सिन्हा ने आगे बताया, ‘जब मैंने उनका पूरा गेम प्लान देखा और उस केस की सभी बहसों को पढ़ने के बाद नतीजे पर पहुंचा तो मेरे दिमाग में ये साफ हो चुका था कि उन्होंने (इंदिरा गांधी ने) अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया है और मैं उन्हें इसकी सजा दूंगा’. सिन्हा पर काफी दबाव डाला गया… उनके परिवार को परेशान किया गया पर न ही वे नरम पड़े न ही अपने फैसले से डिगे.

JP
आपातकाल के विरोधी देश में आपातकाल लागू होने से पहले एक रैली को संबोधित करते जयप्रकाश नारायण

सलाहकार

फैसले के बाद जब इंदिरा गांधी को पद से हटा दिया गया था तब वे दिल्ली में ही थीं और एक समय पर उन्होंने गंभीरता से राजनीति को छोड़ने का सोचा था. पर तब संजय ने मोर्चा संभाला. वो रैलियां आयोजित करते जिसमें धवन सारी जिम्मेदारियां और व्यवस्था देखते, जिससे श्रीमती गांधी को ऐसा लगे और विश्वास हो जाए कि जनता इस निर्णय को जजों के द्वारा की गई एक साजिश के रूप में देख रही है. इस निर्णय के बाद और आपातकाल के पहले प्रेस स्वतंत्र था. प्रेस पर दबाव तो था पर इंदिरा गांधी की परेशानी का सबब था कि प्रेस लगातार इस बारे में लिख रहा था, लोग भले ही डरे हुए थे पर वो अब इस बारे में बात करने लगे थे कि अब वो क्या कर सकती थीं? या तो वो ये सब छोड़ देती या इससे निपटने का कोई और रास्ता तलाशतीं. ऐसे में सिद्धार्थ शंकर रे (पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री) ने उन्हें आपातकाल लगाने की सलाह दी. यानी आपातकाल के पीछे के असली मास्टरमाइंड सिद्धार्थ शंकर रे ही थे. मुझे याद है उस रात या अगली सुबह मुझे कलकत्ता जाना था और रे और मैं एक ही फ्लाइट में सफर कर रहे थे. वो बार-बार कॉकपिट में जा रहे थे. ये मुझे बाद में पता चला कि वो इस बारे में पूछ रहे थे कि आपातकाल की आधिकारिक घोषणा हुई या नहीं! नियमानुसार आपातकाल कैबिनेट से सलाह लेने के बाद ही लगाई जा सकती है पर यहां ऐसा कुछ नहीं हुआ था. उन्होंने (इंदिरा गांधी) कैबिनेट की मीटिंग बाद में बुलाई यानि ये घोषणा और बाकी सब निर्णय पूर्वव्यापी थे.

कमलापति त्रिपाठी

मुझे याद है दिल्ली में एक समय था जब जगजीवन राम को लगता था कि आपातकाल अस्थायी होगा और शायद श्रीमती गांधी उन्हें अगले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए चुनेंगी पर उनके (श्रीमती गांधी) दिमाग में कोई और ही नाम था, पुराने वफादार और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी.

शाह कमीशन

1977 में भारत सरकार द्वारा शाह कमीशन का गठन किया गया. इसका मूल उद्देश्य आपातकाल के दौरान यानी 1975 से 1977 के बीच हुई ज्यादतियों के बारे में पता करना था. इसके अध्यक्ष जस्टिस जेसी शाह थे जो इससे पहले देश के चीफ जस्टिस रह चुके थे. उन्होंने जांच की और बताया कि आपातकाल घोषित होने के पीछे कोई खुफिया रिपोर्ट या सूचना नहीं थी. न लॉ और आर्डर को कोई खतरा था, न ही उसकी कार्यप्रणाली में कोई व्यवधान पड़ रहा था. ऐसा कहीं कुछ गड़बड़ नहीं था, कहीं नही. शाह कमीशन के अनुसार आपातकाल सिर्फ इंदिरा गांधी के उनके खिलाफ आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से खुद को बचाने का प्रयास था, जिसमें उन्हें छह साल के लिए चुनावों के लिए अयोग्य ठहराया गया था. पर श्रीमती गांधी का असली बचाव जस्टिस कृष्णा अय्यर ने किया, जिन्होंने कहा था कि हां, इंदिरा गांधी संसद में भाग ले सकती हैं, उनके पास सभी अधिकार होंगे बस वो केवल मतदान नहीं कर सकतीं. तो इस तरह असली मदद तो जस्टिस कृष्णा अय्यर ने ही की हालांकि वो एक वामपंथी थे.

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