हम मज़हबों की बात भी नहीं मानते

इधर के हैं, उधर के हैं?

ये अपराधी किधर के हैं?

इन्हें बस जेल में भेजो,

हैं अपराधी; जिधर के हैं।

मेरे कहने का सिर्फ इतना ही अर्थ है साहब! कि अपराधी, केवल अपराधी होता है। अपराधी का न कोई ईमान होता है, न कोई ज़ात होती है और न कोई मज़हब। सीधे-सीधे कहें, तो अपराधी इंसान होते हुए भी इंसान नहीं होते। कोई भी जगह हो; कोई भी समाज हो; कोई भी देश हो; यहाँ तक कि कोई भी मज़हब हो; तब तक आबाद नहीं हो सकते, जब तक एक भी अपराधी यहाँ होगा। दिल्ली में दंगे करने वाले भी अपराधी ही थे। ये अपराधी इधर के हों या उधर के? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अपराधियों की जगह जेल में ही होनी चाहिए। दिल्ली के दंगों में कौन जला? किसका घर जला? किसने जलाया? कौन लुटा? किसने लूटा? कौन बर्बाद हुआ? किसने बर्बाद किया? इन सवालों के जवाब में इतना कहना ही मुनासिब होगा- इन दंगों में केवल दिल्ली नहीं जली है साहब! बल्कि देश की धाॢमक एकता जली है; भाईचारा जला है; आपसी प्यार जला है और जली है देश की मज़बूती, अर्थ-व्यवस्था, अनगिनत ज़िन्दगियाँ, कारोबार और मोहब्बत के पैरोकारों के दिल।

अगर इन दंगों की जड़ में जाएँ, तो मज़हबी दीवारें ही आिखरकार इन दंगों का भी कारण बनीं। और दंगा कौन करता है? मज़हब के ठेकेदारों या सियासी लोगों के पाले हुए आपराधिक प्रवृत्ति के लोग; इन ठेकेदारों या सियासतदाँ लोगों पर आँखें मूँदकर भरोसा करने वाले भक्त या वे लोग, जो मज़हबों की नसीहतों को पढ़े और समझे बगैर ही कट्टरवाद की खाई में कूद जाते हैं।

दरअसल, हम अपने-अपने मज़हबों को एक किताब में कैद नियमों का पिटारा समझ लेते हैं। यही वजह है कि हम मज़हबों की शिक्षाओं पर न तो कभी गौर करते हैं और न अमल… और यही हमारी सबसे बड़ी भूल है। हमने मज़हबों की किताबों को अपने-अपने द्वारा बनाये धर्म-स्थलों की दीवारों में कैद कर दिया है। इन स्थलों पर अपने-अपने अनुसार पूजा-इबादत आदि करने और उनकी रक्षा करने को हम धाॢमकता समझते हैं और अपनी ज़िम्मेदारियों से इतिश्री कर लेते हैं। इन मज़हबों में प्यार बाँटने की सीख को तो जैसे हमने ताक पर उठाकर रख दिया है। ईश्वर एक है, इस बात से भी हमें कोई मतलब नहीं। हमें इससे भी मतलब नहीं कि हमारा मज़हब दूसरे मज़हब और दूसरे मज़हब को मानने वालों से प्यार करना सिखाता है। हमें इस बात से भी कोई सरोकार नहीं कि हमारा मज़हब हमें किसी से भी घृणा करने की इजाज़त नहीं देता। हमें इस बात से भी मतलब नहीं कि दुनिया के हर इंसान, हर प्राणी को उस एक ही ईश्वर ने पैदा किया है, जिसने हमें पैदा किया है। कितने मूर्ख हैं हम! न हम ईश्वर से डरते हैं। न ही उन मज़हबों की शिक्षाओं का पालन करते हैं, जिन्हें हम मानते हैं। न हम खुद को किसी से कम समझते हैं। न ही किसी की पीड़ा समझने को तैयार हैं और न ही सच के रास्ते पर चलना चाहते हैं। बस मज़हब की किताब बगल में दबाकर खुद को महान् और ज्ञानी सिद्ध करना चाहते हैं। अपनी गलतियों पर, अपने अपराधों पर सफाई देते हैं। मिथ्या ज्ञान, मिथ्याभिमान को अपनी अकड़ पर रखकर ढोते हैं। मज़हबों के हिसाब से हमारे द्वारा तय किये गये लिबास ओढ़ते हैं। धाॢमक प्रोपेगंडा करते हैं। मज़हबी नारों का शोर करके खुद को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करते हैं और अंत में इसी में मर जाते हैं। क्या लेकर जाते हैं? शायद नफरत और बुराई। क्या देकर जाते हैं? वही नफरत और बुराई। यानी हम स्वयं अपनी पीढिय़ों को फसाद, नफरत, डर की आग और धाॢमक कट्टरता की उसी अँधेरी खाई में धकेल रहे हैं, जिसने हमें कभी चैन से जीने नहीं दिया और न ही हमारी आने वाली पीढिय़ों को कभी चैन से जीने देगी।

कितने स्वार्थी हैं हम! हम हमारे ही हाथों से हमारे मानव धर्म का गला घोंट रहे हैं। केवल सत्ता-सुख के स्वार्थ में अन्धे होकर बनावटी होते जा रहे हैं।  हर जगह, हर चीज़ में दिखावा करने की हमारी आदत हो चुकी है। इस दिखावे की होड़ में हम अपने जमीर से इतने नीचे गिर चुके हैं कि अब अगर हमें कोई उठाना भी चाहे, तो वह सिर्फ और सिर्फ शत्रु ही नज़र आता है। दु:ख की बात यह है कि हम जिसके प्रति मन में बैर पाल लेते हैं, उसे अपना नहीं, बल्कि अपने मज़हब का, देश का और कानून का शत्रु घोषित कर देते हैं, ताकि हम जिससे नफरत करते हैं, उसका हम जैस सोच वाले लाखों लोग विरोध करें और उसे गलत साबित करके ही दम लें। मज़हबों की आड़ में हमने यही तो किया है आज तक। कभी मज़हब के नाम पर, तो कभी जातिवाद के नाम पर दूसरे को गलत या कमतर साबित करके उसका विरोध विरोध किया है, उस पर अत्याचार किये हैं।

इससे भी दु:खद यह है कि अब हम अपने-अपने मज़हबों के आधार पर रखे गये ईश्वर के नामों का सहारा लेकर, उसके नाम के जयकारे लगाकर ङ्क्षहसा करते हैं। कितने बड़े मूर्ख हैं हम लोग? अपने पागलपन के चलते उस एक परमेश्वर को, एक शक्ति को न केवल कई रूपों में देखते हैं, बल्कि उसके दूसरे रूप-स्वरूप या नाम से इतनी घृणा करते हैं कि अभद्रता करने और वह सब करने से भी नहीं चूकते, जिसे हमारे धर्म-ग्रन्थ भी हैवानियत कहते हैं; पाप कहते हैं। इसका मतलब यही तो हुआ कि हम जाने-अनजाने पाप कर रहे हैं। वह भी ऐसा पाप, जो हमारे विनाश का कारण बन रहा है। मानव जाति के साथ-साथ दूसरे प्राणियों और हमारे द्वारा बनायी गयी सुविधाजनक चीज़ों को बर्बाद कर रहा है। क्या अजब हाल है हम लोगों का? हम यह भी नहीं समझ सके कि हमारी खुशी और हमारा सुख किस तरह जीने में है? केवल चंद बुरे लोगों के कहने पर हम वह सब कुछ कर डालते हैं, जिसका परिणाम कभी अच्छा हो ही नहीं सकता। हम वह कर रहे हैं, जिसका परिणाम हम ही नहीं हमारी पीढिय़ाँ भी भुगतेंगी, लेकिन हमें कोस-कोसकर!