वीर सावरकर ने अंग्रेजों से नहीं मांगी थी माफी

tgfesdहिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करनेवालों में सबसे अग्रणी नाम विनायक दामोदर सावरकर का है. वीर सावरकर के नाम से जाने-जानेवाले इस क्रांतिकारी के बारे में कहा जाता है कि कालापानी की सजा पाने के बाद उन्होंने ब्रिटिश सरकार से माफी मांगी थी. यह उनकी एक चाल थी, ताकि जेल से रिहा होकर वह स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले सकें. अंग्रेजों से उनकी माफी को लेकर भारतीय समाज में कई मत हैं. सावरकर समर्थकों का मानना है कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार से माफी नहीं मांगी थी.

सावरकर के लिखे साहित्य पर ब्रिटिश सरकार ने पाबंदी लगा रखी थी. सात अप्रैल 1911 को नासिक के तात्कालिक कलेक्टर एटीएम जैक्सन की हत्या के संबंध में उन्हें कालापानी की सजा के तौर पर अंडमान-निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में स्थित सेल्यूलर जेल (कालापानी) भेजा गया था. यहां कैदियों को जानवरों की तरह रखा जाता था और कठोर परिश्रम कराया जाता था. कहा जाता है कि इस जेल में कैदियों को नारियल से तेल निकालना पड़ता था. इसके लिए उन्हें कोल्हू के बैल की तरह जोत दिया जाता था. उनसे जंगलों को साफ रखने के लिए काम कराया जाता था. साथ ही दलदली और उबड़-खाबड़ जमीन को समतल करना होता था. कैदियों को लगातार काम करना होता था और रुकने पर कोड़े और बेंतों से पिटाई की जाती थी. उन्हें भरपूर खाना भी नहीं दिया जाता था. सावरकर 4 जुलाई 1911 से 21 मई 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहने के बाद रिहा हो गए.

सावरकर की रिहाई अब भी विवाद का विषय है. विवाद इसलिए, क्योंकि कालापानी के बारे में मशहूर था कि वहां से कोई भी जिंदा वापस नहीं लौटता था. सावरकर के जेल से छूटने की कहानी को लेकर समाज दो धड़ों में बंट गया. एक धड़े का मानना है कि सावरकर ने माफी मांगी थी, वहीं दूसरे धड़े की सोच इसके विपरीत है.


गौर फरमाएं

फ्रंटलाइन पत्रिका के मार्च 2005 के एक अंक में वह पत्र प्रकाशित हुआ था जो सावरकर की ओर से अंडमान के चीफ कमिश्नर को 30 मार्च 1920 को भेजा गया था. पत्रिका में छपी रिपोर्ट के मुताबिक चार जुलाई 1911 को सेल्यूलर जेल पहुंचने के छह महीने के भीतर सावरकर ने दया याचिका दाखिल की थी. अक्टूबर 1913 में वायसराय की कार्य परिषद के सदस्य सर रेगिनाल्ड क्रेडॉक जेल पहुंचकर सावरकर और कुछ दूसरे कैदियों से मिले थे लेकिन बात नहीं बनी. इसके बाद 14 नवंबर 1913 उन्होंने दूसरी दया याचिका दाखिल की थी. इसमें उन्होंने लिखा था, ‘मैं अपनी पूरी शक्ति के साथ सरकार की इच्छा के अनुसार सेवा करना चाहता हूं…’ पत्र के आखिर में उन्होंने खुद को सरकार का सबसे आज्ञाकारी मुलाजिम बताया था. यह पत्र भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार में संरक्षित रखा गया है.