कृष्णा सोबती नहीं रहीं

साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित

अपनी कृति ”जिंदगीनामा” के लिए १९८० में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित ख्यात साहित्यकार कृष्णा सोबती का शुक्रवार निधन हो गया। वे ९४ वर्ष की थीं। कृष्णा सोबती के कालजयी उपन्यासों में सूरजमुखी अंधेरे के, दिलोदानिश, ज़िन्दगीनामा, ऐ लड़की, समय सरगम, मित्रो मरजानी का नाम लिया जाता है।

सोबती का जन्म १८ फरवरी, १९२५ को वर्तमान पाकिस्तान के एक कस्बे में हुआ था। अपनी रचनाओं में महिला सशक्तिकरण और स्त्री जीवन की जटिलताओं को उभारने वालीं लेखीखा के नाते जाने जाने वालीं सोबती को राजनीति-सामाजिक मुद्दों पर अपनी मुखर राय के लिए भी जाना जाता था।

उनके उपन्यास ”मित्रो मरजानी” को हिंदी साहित्य में महिला मन के अनुसार लिखी गई बोल्ड रचनाओं में गिना जाता है। साल २०१५ में में देश में असहिष्णुता के माहौल से नाराज होकर उन्होंने अपना साहित्य अकादमी अवॉर्ड वापस लौटा दिया था। उनके एक और उपन्यास जिंदगीनामा को हिंदी साहित्य की कालजयी रचनाओं में से माना जाता है। उन्हें पद्म भूषण की भी पेशकश की गई लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया।

पिछले कुछ महीनों से उनकी तबीयत खराब थी। उन्होंने पिछले महीने अस्पताल में अपनी नई किताब लॉन्च की थी। अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद वह हमेशा कला, रचनात्मक प्रक्रियाओं और जीवन पर चर्चा करती रहती थी। सोबती ने अपने उपन्यास ”जिंदगीनामा” के लिए १९८० में साहित्य अकादमी पुरस्कार जीता था। भारतीय साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें  २०१७ में ”ज्ञानपीठ” से भी सम्मानित किया गया था।

सोबती को उनके १९६६ के उपन्यास ”मित्रो मरजानी” से ज्यादा लोकप्रियता मिली, जिसमें एक विवाहित महिला की कामुकता के बारे में बात की गई थी।

सोबती अपने जीवन के आखिरी वर्षों तक साहित्यिक कार्यों से जुड़ी रहीं। अपने उपन्यास में उन्होंने स्त्री जीवन की परतों और दुश्वारियों को खोलने की कोशिश की।