अभिव्यक्ति के बारे में सोचना एक गुदगुदाने वाला ख्याल है. हर कोई अभिव्यक्ति के खतरे जानता है, लेकिन खतरे उठाकर भी लोग खुद को अभिव्यक्त करते हैं, करना चाहते हैं. पर जैसे स्त्री और पुरुष की अभिव्यक्ति की भाषा, कथ्य, अनुभव और शैली में फर्क है वैसे ही उनके अभिव्यक्ति के खतरों में भी फर्क है. स्त्रियों के लिए अभिव्यक्ति के खतरे ज्यादा बड़े, व्यापक और तीव्र हैं. खुद को अभिव्यक्त करना उनके लिए एक चुनौती है. लेखन की ही बात करें तो हिंदी साहित्य का इतिहास ‘अज्ञात हिंदू औरत’, ‘बंग महिला’ आदि कईं गुमनाम लेखिकाओं की बेहद महत्वपूर्ण रचनाओं का गवाह है. आखिर ‘सीमन्तनी उपदेश’ जैसी आधुनिक, प्रगतिशील, और विस्फोटक विचारों वाली पुस्तक की लेखिका को गुमनाम क्यों रहना पड़ा? क्यों उन्हें ‘अज्ञात हिंदू औरत’ के नाम से किताब लिखनी पड़ी? इसी गुमनामी का नतीजा है कि दुनिया 19वीं सदी के अंत में आने वाली स्त्री विमर्श की बेहद महत्वपूर्ण किताब ‘सीमन्तनी उपदेश’ को नहीं जानती. 20वीं सदी की ‘सेकेंड सेक्स’ (हिंदी में स्त्री उपेक्षिता) को जानती है लेकिन ‘सीमन्तनी उपदेश’ या उसकी लेखिका ‘एक अज्ञात हिंदू औरत’ को कोई नहीं जानता. क्यों? सवाल उठता है कि यदि यह पुस्तक किसी पुरुष ने लिखी होती तो क्या वह भी ‘अज्ञात पुरुष’ के नाम से लिखता और हम उसे नहीं पहचानते. निश्चित तौर पर नहीं. यह है स्त्री लेखन और लेखिकाओं का कड़वा सच.
हमारी पूरी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक संरचना स्त्री लेखन के लिए बड़ी चुनौती है. महिलाओं की साक्षरता दर (65.46 प्रतिशत) आज भी पुरुषों की साक्षरता दर (82.14 प्रतिशत) से कम है. आज भी देश की ज्यादातर लड़कियां आठवीं, दसवीं, या ज्यादा से ज्यादा बारहवीं तक ही पढ़ पाती हैं. नि:संदेह सिर्फ किताबी ज्ञान ही लेखन की बुनियाद नहीं है, लेकिन किताबें हमारे वैचारिक मानस को तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाती हैं. लेकिन कोर्स से अलग किताब पढ़ना न तो हमारी शैक्षिक व्यवस्था हमें सिखाती है, न ही हमारी सामाजिक-पारिवारिक संरचना लड़कियों से यह अपेक्षा करती है कि वे हर तरह की मनचाही किताबें पढ़ें क्योंकि यह उनके लिए ‘समय की बर्बादी’ माना जाता है.
संवैधानिक समानता के बावजूद आज भी लड़कियों को परिवार में लड़के के समान प्यार, सम्मान और स्वतंत्रता नहीं मिलती. लड़कियों की जिंदगी घर, स्कूल-कॉलेज, ससुराल और फिर बच्चों के स्कूल तक ही सिमट कर रह जाती है. गांव, कस्बे या शहरों में ऐसी लड़कियों की तादाद आज भी बड़ी है जो सिर्फ शादी के वक्त ही अपने गांव से पहली बार दूसरे गांव, कस्बे या शहर जा रही होती हैं. घर की परिधि ही लड़कियों के लिए पार्क, सिनेमाहॉल, मेला, पर्यटन स्थल आदि है. आखिर घर और पड़ोस किसी लड़की या स्त्री के अनुभवों में कितने अध्याय दर्ज कर सकते हैं और कब तक? जबकि लड़कों के लिए न घर के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटने की बाध्यता है न ही समय पर घर में घुसने की. जो लड़कियां कॉलेज जाने की आजादी पा गई हैं उनमें भी ये डर हमेशा रहता है कि निश्चित समय तक उन्हें घर में होना है नहीं तो सवालों की बौछार के लिए तैयार रहें. जब दिमाग सवालों की लंबी फेहरिस्त के झूठे जवाब बनाने में लगा रहेगा तो आप घर से दूर रहकर भी कितना किसी घटना, स्थान या बात में डूब सकते हैं?
संवैधानिक समानता के बावजूद लड़कियों को परिवार में लड़के के समान स्वतंत्रता नहीं मिलती. लड़कियों की जिंदगी घर, स्कूल-कॉलेज, ससुराल और फिर बच्चों के स्कूल तक ही सिमट कर रह जाती है
फिर शादी के बाद भी यदि ऑफिस जाने की आजादी है तो सिर्फ घर से ऑफिस और ऑफिस से घर की ही तो आजादी है. वह भी स्त्री की आर्थिक आजादी या व्यक्तित्व निर्माण के लिए नहीं बल्कि मंहगाई दर का सारा बोझ सिर्फ बेटे पर ना पड़े इसलिए मिलती है. रूटीन से हटकर घर से बाहर समय बिताने के लिए स्वीकृति पत्र लेना पड़ता है वह भी ढेर सारे सवालों के ‘संतोषजनक’ जवाब देने के बाद ही मिलता है. घर से स्कूल, स्कूल से घर, घर से ऑफिस, ऑफिस से घर ये सब न लिखने की बुनियादी शर्तें हो सकती हैं लिखने की नहीं. ये लिखने में सिर्फ ‘अनुभवहीनता’ बढ़ाने में सहयोग करती हैं अनुभव बढ़ाने में नहीं यानी हमारी पूरी सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक बुनावट हमें न सिर्फ अनुभव संपन्न होने से रोकती है बल्कि हमें स्वतंत्र रूप से अपनी कोई वैचारिक दृष्टि रखने में भी बाधक बनती है. शिक्षा, विचार और अनुभव से वंचित हम जब तक किसी अनुभव को डूबकर महसूस नहीं करेंगे या फिर बार-बार नए-पुराने अनुभवों से नहीं गुजरेंगे तक तक ‘स्मृति’ कैसे बनेगी दिमाग में? लेकिन हमारी साक्षरता, शिक्षा, विचार, अनुभव, स्मृति और व्यक्तित्व निर्माण पर तो परिवार, समाज, संस्कृति और पितृसत्ता के पहरे लगे हैं. ये तमाम पहरे स्त्रियों के लेखन की बुनियादी समस्या है.