लालू प्रसाद यादव के शासनकाल की जब भी बात आती है तो एक बात सभी कहते हैं कि उनकी राजनीतिक छवि को सबसे ज्यादा नुकसान उनके दोनों सालों यानी साधु-सुभाष ने पहुंचाया. हालांकि साधु और सुभाष उनके कार्यकाल में नक्षत्र की तरह अगर उग आए थे और चमकदार तारे की तरह वर्षों चमकते रहे थे तो उसमें लालू से ज्यादा राबड़ी देवी की भूमिका थी. वक्त का फेर देखिए. अब उन्हीं दोनों भाइयों में से एक अनिरूद्ध उर्फ साधु यादव अपनी दीदी राबड़ी देवी का ही खेल बिगाड़ने सारण पहुंचे हैं. वह भी उस समय में, जब लालू खुद चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य साबित हो चुके हैं और अपने पति की सीट को बचाने के लिए सबसे मुश्किल लड़ाई लड़ने राबड़ी वहां पहुंची है. एक समाचार वेबसाइट से बातचीत करते हुए इस पर उनका कहना था, ‘चुनाव लड़ने का फैसला लिए तो क्या हो गया. सारण की सीट पर लालू यादव और राबड़ी देवी ने रजिस्ट्री या बैनामा करवा लिया है क्या?’
सारण संसदीय सीट, जिसे प्रचलित तौर पर छपरा के नाम से जाना जाता है, की लालू के राजनीतिक जीवन में अहम भूमिका रही है. 1977 से ही छपरा ने उनका साथ दिया है. छपरा से उनका ऐसा नाता जुड़ा कि पास के गोपालगंज जिले के मूलवासी होने के बावजूद उन्होंने कभी भी उस सीट से चुनाव नहीं लड़ा. हां, साधु यादव को जरूर उन्होंने एक बार गोपालगंज से चुनाव लड़वाकर सांसद बन जाने का शौक पूरा करवा दिया था. बताते हैं कि साधु के लोकसभा पहुंचने के बाद लालू के दूसरे चर्चित साले सुभाष यादव ने अपनी बहन राबड़ी के पास पहुंचकर संसद पहुंचने की जिद मचा दी थी. कहा जाता है कि दोनों भाइयों को बराबर माननेवाली राबड़ी देवी ने लालू से जिद कर सुभाष को भी राज्यसभा भिजवा दिया था.
आज सुभाष अपने कारोबार की दुनिया में मगन हैं और साधु घाट-घाट का पानी पीकर परिवार के मुकाबले ही आ खड़े हुए हैं. इस बीच उन्होंने घाट-घाट का पानी पिया. बहनोई और बहन का साथ छूटने के बाद उन्होंने कांग्रेस का दामन थामा था. वहां सफलता नहीं मिली तो गुजरात पहुंचकर भाजपा का साथ पाने के लिए बेताब हुए. दोनों जगह बात नहीं बनी तो अब निर्दलीय होकर अपनी बहन राबड़ी के खिलाफ सारण पहुंचे हैं. हालांकि यह जीतने से ज्यादा जमानत बचाने की लड़ाई है. सारण का असली रण पुराने दिग्गजों के बीच ही है. जब लालू लड़ते थे, तब भी उनके सामने 1999 में एक बार छपरा से सांसद बने राजीव प्रताप रूडी ही रहे और इस बार राबड़ी के सामने भी रूडी ही हैं.