सनातन-विरोध ही क्यों?

शिवेंद्र राणा तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के सिनेमाई हीरो बेटे एवं राज्य सरकार में खेल विकास मंत्री उदयनिधि स्टालिन के सनातन धर्म को लेकर दिये गये विवादित बयान पर विवाद शुरू हो गया है। भाजपा नेताओं समेत कई लोग विरोध दर्ज करा रहे हैं। उन्होंने कहा कि सनातन धर्म सामाजिक न्याय और समानता के ख़िलाफ़ है। कुछ चीज़ें का विरोध नहीं किया जा सकता, उन्हें ही ख़त्म किया जाना चाहिए। हम डेंगू, मच्छर, मलेरिया या कोरोना का विरोध नहीं कर सकते। हमें इसे ख़त्म करना होगा। यह सामाजिक न्याय और समानता के ख़िलाफ़ है। यह बयान उन्होंने सनातन उन्मूलन सम्मेलन में दिया। सम्मेलन के नाम से उसके लक्ष्य को समझना कठिन नहीं है। अत: उदयनिधि की ऐसी भाषा सहज अभिव्यक्ति है। मूल प्रश्न तो ऐसे सम्मेलनों के आयोजन का औचित्य है। समझ नहीं आ रहा कि यह कैसा चुनावी रण है, जहाँ विपक्ष देश की मौज़ूदा सरकार द्वारा जनित अव्यवस्था-नीति निर्णयन की ख़ामियों के बजाय सनातन धर्म की समाप्ति की लड़ाई लड़ रहा है। हालाँकि कांग्रेस समेत दूसरे विपक्षी दलों की इस बयान के स्पष्ट विरोध न करने का औचित्य नहीं समझ आता। डीएमके के युवराज और एम.के. स्टालिन के सुपुत्र के इस वक्तव्य और उसे पर को विपक्षी दलों के मौज़ूद नेताओं की मौन सहमति का क्या अर्थ निकाला जाए? यह तो स्पष्ट रूप से धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए दूसरे पक्ष को उकसाने का प्रयास है। अब विपक्ष किस प्रकार भाजपा पर आरोप लगा सकता है कि वह धार्मिक ध्रुवीकरण में लिप्त है, जबकि बहुसंख्यक समाज की संस्कृति को अपमानित करके आप उसे उत्तेजित कर रहे हैं कि वह राजनीतिक गोलबंदी में शामिल हो जाए। यथार्थ में निकृष्ट लोगों की जमात इस देश को अपने राजनीतिक लाभ के लिए विखंडित करने पर तुली है। अन्यथा अनावश्यक सनातन उन्मूलन सम्मेलन एवं सनातन धर्म और संस्कृति को समाप्त करने के आह्वान का क्या अर्थ लगाया जाए? सही मायने में इस देश का राजनीतिक वर्ग देश का कर्क रोग हो चुका है, जो सामाजिक-धार्मिक विघटन पर आमादा है। इन टिप्पणियों का अर्थ एक प्रकार की गोलबंदी का प्रयास है। इस विष-बोध के दो पहलू हैं। पहला सनातन धर्म संस्कृति के विरुद्ध विष-वमन और दूसरा राजनीतिक रूप से धार्मिक ध्रुवीकरण का प्रयास। असल में करुणानिधि का परिवार ईसाई मान्यताओं में य$कीन करता है। च्यूँकि उदयनिधि की परवरिश सेमेटिक परम्परा वाले परिवेश में हुई है, इसलिए उन्हें सहिष्णुता की भावना का ज्ञान नहीं है। अत: उनका यह बयान बहुत विस्मयकारी नहीं है। सेमेटिक मान्यताओं में ग़ैर-धर्म-पंथों के लिए अधिक स्थान नहीं है। लेकिन उन्हें आईना दिखाना भी ज़रूरी है। ख़ैर, जिस ईसाइयत के बूते वह समानता की बात कर रहे हैं। उसे एक उदाहरण से समझिए- ईसाइयत के अनुसार, स्त्री का जन्म ही इसलिए हुआ है कि आदम अकेला था। उसके द्वारा साथी की माँग करने पर ईश्वर ने आदम को सुला दिया और उसकी एक पसली खींचकर उसमें फूँक मार दी, तो हौव्वा यानी औरत पैदा हो गयी। हौव्वा (स्त्री) आदम (पुरुष) की सेवा, उपभोग एवं मनोरंजन के लिए पैदा हुई। उससे चाहे जैसी भी सेवा ली जा सकती है। उसमें आत्मा या चेतना नहीं होती। अब जो सेमिटिक परम्परा अपनी महिलाओं को सम्मान नहीं देता, उनकी बराबरी की बात नहीं स्वीकारता उसे ग़ैर-धर्मों में सुधार की बात करना शोभा नहीं देता। अत: स्टालिन परिवार को इसकी शुरुआत स्वयं की पंथीय मान्यताओं को सुधारने से करनी चाहिए। सनातनधर्मी ऐसी भाषा नहीं बोल सकते। क्योंकि सनातन धर्म एकात्मता में विश्वास करता है और सेमिटिक परम्परा एकरूपता में। सनातन वही है, जो आदि और अन्त रहित है। सनातन धर्म अनादि-काल से व्यवहार में है और अनंत काल तक चलता रहेगा। क्योंकि भारतवर्ष का आधार ही सनातन धर्म पर है। अत: यह संस्कृति भी सनातन संस्कृति है। समझना होगा कि सनातन धर्म और संस्कृति इस राष्ट्र की आती-जाती श्वास है। इसके बिना यह राष्ट्र निस्तेज और मृतप्राय हो सकता है, तो मूल संस्कृति को समाप्त करने की घोषणा राष्ट्र विरोधी मानी जानी चाहिए। हालाँकि यहाँ विषय सनातन धर्म की व्याख्या और श्रेष्ठता साबित करना नहीं है। यहाँ विषय उन परिस्थितियों एवं परिणामों का मूल्यांकन करना है। यहाँ मुख्य मुद्दा उदयनिधि के बयान से उपजे विवाद के परिणाम का मूल्यांकन है। आलोचना और समालोचना में कोई दोष नहीं। वह प्रखर या कटु भी हो सकती है; लेकिन उसे तार्किक होना चाहिए। इन सबसे बढक़र है कि आलोचना कभी भाषायी मर्यादा के स्तर को श्रीहीन न कर रही हो। किसी राष्ट्र की श्वास घोंटने की उद्घोषणा विशुद्ध गुण्डई और अराजकता वाली भाषा है। प्रतीत होता है कि इस देश का राजनीतिक तबक़ा इस देश का विखंडन करने पर तुला हुआ है। उदयनिधि स्टालिन का बयान देश के बहुसंख्यक समाज को स्पष्ट चुनौती है। असल में भारतीय राजनीति में विमर्श और मर्यादाओं का मूल्य इतना नीचे गिर चुका है कि ऐसे वक्तव्यों पर बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ऐसी घटनाएँ और बयानबाज़ी से विपक्ष के राजनीतिक समझ पर शक पैदा होता है। यदि विपक्ष को चुनाव जीतना है, तो उसकी प्राथमिकता सत्ताधारियों के धार्मिक गोलबंदी के मज़बूत क़िले का ध्वस्तीकरण होना चाहिए; किन्तु विपक्ष तो सत्ता पक्ष को धार्मिक ध्रुवीकरण का मैदान उपलब्ध करा रही है।