मानवाधिकारों की अनदेखी

भारत में जी20 शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने वियतनाम पहुँचते ही मानवाधिकारों का मुद्दा छेड़ दिया। उन्होंने कहा कि जैसा कि मैं हमेशा कहता हूँ, मैंने मोदी के साथ मानवाधिकारों के सम्मान और एक मज़बूत व समृद्ध देश के निर्माण में नागरिक संस्थाओं और स्वतंत्र प्रेस की महत्त्वपूर्ण भूमिका के महत्त्व को उठाया।

दरअसल यह मुद्दा जी20 शिखर सम्मेलन में मीडिया से प्रधानमंत्री मोदी की दूरी को लेकर उठा। प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह से पत्रकारों से जी20 के पूरे शिखर सम्मेलन में दूरी बनायी, उससे अंतरराष्ट्रीय नेताओं के बीच मोदी की प्रेस की स्वतंत्रता के हनन और देश के मुद्दों से कतराने वाले प्रधानमंत्री की छवि बनी है। जी20 में निमंत्रण न मिलने को लेकर हमलावर कांग्रेस को मानवाधिकारों का एक नया मुद्दा मिल गया। कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री मोदी से मानवाधिकारों और स्वतंत्र प्रेस के बारे में बात की थी। लेकिन मिस्टर मोदी ने बाइडन से कहा कि न प्रेस कॉन्फ्रेंस करूँगा, न करने दूँगा। हालाँकि इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। बाइडन ने जो बातें भारत में मोदी के सामने कही थीं, वही वह वियतनाम में कर रहे हैं। जयराम रमेश ने इससे पहले आरोप लगाया था कि अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की द्विपक्षीय बैठक के बाद विदेशी मीडिया को दोनों नेताओं से सवाल नहीं पूछने दिया गया। उन्होंने यह दावा किया था कि वियतनाम में मीडिया के सवालों का जवाब देंगे। कांग्रेस महासचिव ने यह आरोप जो बाइडेन के दल के सूत्रों के हवाले से लगाया था। जयराम रमेश ने यह भी कहा था कि इसमें कोई चौंकने वाली बात नहीं है; क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी के राज में इसी तरह लोकतंत्र चलता है।

ग़ौरतलब है कि 10 दिसंबर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानव अधिकारों के विश्वव्यापी ऐलान किया था, जिससे दुनिया में मानव जीवन का मान-सम्मान बरक़रार रह सके। आज मानवाधिकारों के हनन की वजह से दुनिया की एक-तिहाई आबादी को उसके हक़ नहीं मिल रहे हैं। भारत सहित सभी विकासशील देशों में कुल जनसंख्या का पाँचवाँ भाग हर रात भूखा सोता है और लगभग एक-चौथाई लोगों के पास पीने के पानी से लेकर वे मूलभूत सुविधाएँ तक उपलब्ध नहीं हैं, जिन्हें पाना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। इसके अलावा दुनिया के तक़रीबन एक-तिहाई लोग ग़रीबी में जी रहे हैं। यह सोचना आज बहुत ज़रूरी है कि नयी क़ानून व्यवस्था और धार्मिक सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में लगी केंद्र की सत्ता हिन्दुस्तान की बहुसंख्यक जनता के लिए मौलिक अधिकारों को किस रूप में देना चाहती है? केंद्र की मोदी सरकार ने पिछले सवा नौ वर्षों की अपनी सत्ता में जिस तरह से लोगों के सवाल पूछने, ख़ामियाँ गिनाने, टिप्पणी करने और आलोचना करने पर पाबंदी लगाने की कोशिश की है, उससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि सरकार को सिर्फ़ अपनी तारीफ़ ही पसंद है। आम लोगों पर ही नहीं, सरकार ने अपने ख़िलाफ़ बोलने वाले नेताओं, पूँजीपतियों और बुद्धिजीवियों पर शिकंजा कसने की कोशिश की है।

इसी साल जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने समाजवादी पार्टी के नेता आज़म ख़ान के एक विवादित बयान के मामले में साफ़ किया था कि मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की बोलने की आज़ादी पर ज़्यादा पाबंदी नहीं लगायी जा सकती। दरअसल आज़म ख़ान को हेट स्पीच मामले में जेल जाना पड़ा था। इस मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि बोलने की आज़ादी हर नागरिक को मिली है। उस पर संविधान के परे जाकर रोक नहीं लगायी जा सकती।

फिर इसी साल अप्रैल में भी सुप्रीम कोर्ट ने बोलने की आज़ादी को लेकर दूसरी बार सख़्ती दिखायी और केरल के एक न्यूज चैनल पर केंद्र सरकार द्वारा लगाये गये प्रतिबंध को लेकर कहा कि अगर किसी मीडिया संस्थान की कवरेज या राय में सरकार की आलोचना की जाती है। तो इसे देश विरोधी नहीं माना जाएगा। इससे पहले एक मामले में तो सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को नपुंसक तक कह दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने चैनल पर लगे प्रतिबंध हटाते हुए कहा कि मीडिया अपने विचार रखने के लिए स्वतंत्र है। ओपिनियन रखने की स्वतंत्रता को देश की सुरक्षा के नाम पर रोकने से अभिव्यक्ति की आज़ादी और प्रेस की स्वतंत्रता पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। इसी प्रकार से सन् 1950 में मद्रास सरकार ने, जो कि अब तमिलनाडु सरकार है; एक साप्ताहिक पत्रिका को प्रतिबंधित कर दिया था। इस पत्रिका में कथित रूप से तत्कालीन नेहरू सरकार की नीतियों की आलोचना की जाती थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने तब भी पत्रिका पर लगाये गये प्रतिबंध को हटा दिया था। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्य की सुरक्षा की आड़ में क़ानून व्यवस्था को सही नहीं ठहराया जा सकता। ये प्रतिबंध न सिर्फ़ असंवैधानिक है, बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी कुछ हद तक प्रतिबंध करता है।

बहरहाल, सन् 1947 में देश की आज़ादी के बाद बने संविधान में भारतीय नागरिकों को अनुच्छेद-19 से अनुच्छेद-22 तक कई सारे अधिकार दिये गये हैं। अनुच्छेद-19(1)(ए) के तहत देश के सभी नागरिकों को वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। हालाँकि ये अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को हैं, किसी बाहरी व्यक्ति यानी विदेशी नागरिक को नहीं। हालाँकि अनुच्छेद-19(2) में बोलने की आज़ादी को प्रतिबंधित की जा सकने वाले नियमों का उल्लेख भी है। इस अनुच्छेद के तहत कहा गया है कि किसी नागरिक द्वारा कुछ ऐसा नहीं बोला जाना चाहिए, जिससे भारत की संप्रभुता और अखण्डता को ख़तरा हो, किसी राज्य की सुरक्षा को ख़तरा हो, पड़ोसी देश या विदेशी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बिगडऩे का ख़तरा हो, सार्वजनिक व्यवस्था बिगडऩे का ख़तरा हो, शिष्टाचार या सदाचार ख़त्म होने या ख़राब होने का ख़तरा हो, कोर्ट की अवमानना हो, किसी की मानहानि हो या अपराध को बढ़ावा मिलता हो।

ज़ाहिर है कि कुछ दिनों पहले भडक़ाऊ भाषण और हेट स्पीच को इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) के तहत शामिल करने केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पहल की थी। लेकिन केंद्र की मोदी सरकार अपनी आलोचना को भी भडक़ाऊ भाषण और हेट स्पीच बता अपने ख़िलाफ़ टिप्पणियाँ करने वालों को देशद्रोह जैसे मुक़दमों में फँसाकर उन्हें जेल भेजने की मंशा से इस क़ानून को लाना चाहती है। यही वजह है कि लोगों के सत्ता, ख़ासतौर पर मोदी सरकार और भाजपा शासित राज्यों की सरकारों के ख़िलाफ़ बोलने पर अंकुश लगाने और बोलने वालों को सज़ा दिलाने का प्रावधान करने की पहल को किसी तरह का समर्थन नहीं मिला और केंद्र की मोदी सरकार इसमें अभी तक विफल रही है। राजनीति के जानकारों की मानें, तो केंद्र की मोदी सरकार ने अब तक अपने ख़िलाफ़ बोलने वाले दर्ज़नों लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की है और वो हमेशा के लिए अपने ख़िलाफ़ बोलने वालों का मुँह बन्द करना चाहती है; लेकिन उसके आगे सबसे बड़ी चुनौती यह है कि आख़िर हेट स्पीच को वह परिभाषित कैसे करेगी? सन् 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की मोदी सरकार से सवाल किया था कि जब अधिकांश ऐसे औपनिवेशिक क़ानूनों को निरस्त करने की प्रक्रिया चलायी जा रही है, तब राजद्रोह क़ानून को अब तक निरस्त क्यों नहीं किया गया है? ग़ौरतलब है कि राजद्रोह क़ानून औपनिवेशिक काल में बना एक ऐसा क़ानून है, जिसके तहत सरकार जिसे राजद्रोही मान ले, उसे सज़ा हो सकती है।

दरअसल यह क़ानून ब्रिटिश हुकूमत ने अपने ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों को जेल भेजने, उन्हें फाँसी की सज़ा देने और उन्हें दंडित करने के लिए बनाया था। आज भी देश में ब्रिटिश हुकूमत की तरह इस क़ानून का व्यापक स्तर पर दुरुपयोग हो रहा है। राजद्रोह क़ानून के दुरुपयोग को लेकर देश की संविधान सभा, संविधान विशेषज्ञों और विधि विशेषज्ञों के बीच चलता विवाद रहा है। आज भी यह विवाद का विषय बना हुआ है। ख़ास बात यह है कि राजद्रोह क़ानून की संकल्पना भारतीय दण्ड संहिता-1860 के मूल दस्तावेज़ में नहीं रखी गयी थी। इसे एक संशोधन के ज़रिये सन् 1870 में धारा-124(ए) में शामिल किया गया। धारा-124(ए) कहती है कि जो कोई बोले गये या लिखे गये शब्दों द्वारा या संकेतों के द्वारा या दृश्यरूपण द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, असन्तोष उत्पन्न करेगा या करने का प्रयत्न करेगा, उसे आजीवन कारावास या तीन वर्ष तक की क़ैद और ज़ुर्माना अथवा सभी से दण्डित किया जाएगा।

इस प्रकार इस क़ानून में साफ़तौर पर यह कहा गया है कि राजद्रोह एक जघन्य अपराध है। लेकिन राजद्रोह को राष्ट्र यानी देशद्रोह नहीं माना जा सकता, जैसा कि आजकल इसमें लोगों को गुमराह किया जा रहा है। क्योंकि राजद्रोह क़ानून सरकार की आलोचना को ध्यान में रखकर बनाया गया एक ऐसा क़ानून है, जिसमें सरकार अपनी आलोचना को लेकर कार्रवाई करती है। लेकिन राष्ट्रद्रोह का मतलब देश के ख़िलाफ़ की गयी किसी गतिविधि से है। इसलिए इन दोनों में काफ़ी अन्तर है, जिसे आम लोगों को समझना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य-1950 और रमेश थापर बनाम मद्रास राज्य-1950 मामलों में कहा था कि दंड संहिता की धारा-124(ए) संविधान के प्रावधानों से संगत नहीं है; लेकिन बाद में न्यायालय ने केदारनाथ यादव बनाम बिहार राज्य-1962 मामले में धारा-124(ए) की संवैधानिक वैधता को स्वीकार कर लिया था।

बहरहाल अगर सवाल पूछने, टिप्पणी करने और आलोचना करने के अधिकार को अगर ख़त्म कर दिया जाएगा, तो कोई भी सरकार निरंकुश हो जाएगी। इसलिए लोकतंत्र के चौथे स्तंभ यानी मीडिया को ही नहीं, बल्कि देश के हर नागरिक को सरकारों से सवाल पूछने, उनके कार्यों पर टिप्पणी करने और उनके ग़लत कार्यों की निंदा करने का अधिकार है और यह अधिकार बरक़रार रहना चाहिए, ताकि लोगों में सरकारों की निरंकुशता और नाकारापन के ख़िलाफ़ साहस बना रहे और सरकारों में आम लोगों का डर सदैव बना रह सके।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)