राज्यों में नये गठबंधन तलाशती भाजपा
संगठन और सरकार में फेरबदल की क़वायद से भी चुस्ती लाने की हो रही कोशिश
दक्षिण में कांग्रेस से मिल रही कड़ी चुनौती को देखते हुए भाजपा ने 2024 के लिए गठबंधनों पर ध्यान देने, संगठन की मज़बूती और हिन्दी पट्टी पर फोकस करने की रणनीति बनायी है। कई प्रदेशों में नये अध्यक्ष बनाने के अलावा केंद्र में मंत्रियों को हटाकर संगठन में ज़िम्मा देने के अलावा राज्यों में विरोधी दलों में महाराष्ट्र जैसी टूट-फूट कराना भी इस रणनीति का हिस्सा है। बहुत-से लोग मानते हैं कि विरोधी दलों को तोडक़र अपने साथ मिलाने की उसकी कोशिश भाजपा को महँगी भी पड़ सकती है। हालाँकि विरोधी दलों को आशंका है कि भाजपा आने वाले समय बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में चुनाव से पहले दूसरे दलों में सेंध लगाने का षड्यंत्र कर रही है।
भाजपा ने हाल में चार प्रदेशों पंजाब, तेलंगाना, में नये अध्यक्ष बनाये हैं, जिनमें पंजाब के सुनील जाखड़ सहित दो कांग्रेस की पृष्ठभूमि से हैं। भाजपा के भीतर संगठन में मुख्य पदों पर धीरे-धीरे ऐसे नेताओं की भरमार हो रही है, जो कांग्रेस की पृष्ठभूमि से हैं। ऐसे में भाजपा के लिए वर्षों से ज़मीन पर मेहनत कर रहे नेताओं में निराशा भर रही है।
पार्टी में ऐसे कई नेता हैं, जो यह मानते हैं कि यदि यही चलता रहा, तो भाजपा में आयातित नेताओं का बहुमत हो जाएगा और पार्टी विचारधारा का नाम-ओ-निशान नहीं बचेगा। दिल्ली में विधायक रहे पार्टी के वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा- ‘देखिए, कुछ लोग पार्टी विचारधारा या देश की तरक़्क़ी के कारण पार्टी में आना चाहते हैं, वो तो ठीक है। लेकिन जिस तरह बड़े स्तर पर दूसरे दलों के लोगों को हम ले रहे हैं, उससे भाजपा का वास्तविक स्वरूप ख़त्म हो जाएगा।’
केंद्र में सत्ता में होने के बावजूद भाजपा में अजीब-सा भय है। हाल के विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद भाजपा कई मोर्चों पर ख़ुद को असुरक्षित महसूस करने लगी है। इनमें सबसे बड़ा उसके ब्रांड प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताबड़तोड़ चुनावी सभाओं के बावजूद पार्टी को सफलता न मिलना है। पार्टी के पास आज भी ऐसा कोई नेता नहीं है, जो मोदी सरीखी लोकप्रियता रखता हो। लिहाज़ा भाजपा की यह चिन्ता अपनी जगह सही भी है।
भाजपा की दूसरी दिक्क़त मुद्दों को लेकर है। पार्टी ने कमोबेश हर चुनाव में हिन्दुत्व के मुद्दे को उभरने की ऐसी आदत डाल ली है कि उसे और कुछ सूझता ही नहीं। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री मोदी भी इस मोह से बच नहीं पाते। कर्नाटक इसका उदाहरण है, जहाँ मोदी अपने चुनाव भाषणों की शुरुआत ‘बजरंग बली की जय’ से करते दिखे थे। इसका कोई लाभ पार्टी को नहीं मिला। हिन्दी पट्टी में हो सकता है कि इस तरह के नारे जनता को किसी हद तक अपील करें। लेकिन महँगाई, बेरोज़गारी जैसे मुद्दों के बीच यह चीज़े वहाँ भी ज़्यादा लम्बी नहीं चल सकतीं।
किसके बदलने की उम्मीद?
भाजपा आजकल संगठन में फेरबदल की नीति भी अपना रही है। केंद्र के बड़े मंत्रियों निर्मला सीतारमण, पीयूष गोयल, भूपेंद्र यादव, किरेन रिजिजू, गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुन मेघवाल, एस.पी. सिंह बघेल जैसे केंद्रीय मंत्रियों, जिन्होंने हाल में पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा से मुलाकात की थी; को मंत्री पद से हटाकर संगठन में भेजे जाने की तैयारी की चर्चा पार्टी में उच्च स्तर पर है। केंद्रीय मंत्री मनसुख मांडविया या पुरुषोत्तम रुपाला को गुजरात, प्रह्लाद पटेल या नरेंद्र सिंह तोमर को मध्य प्रदेश में पार्टी की कमान देने की चर्चा है।
हाल में उसने कुछ राज्यों में प्रदेश अध्यक्ष पद पर नियुक्तियाँ की हैं। इन नियुक्तियों में भाजपा ने राज्यों की आबादी, जाति और समुदायों को ध्यान में रखा है। जैसे पंजाब में उसने हिन्दू वोट को ध्यान में रखते हुए एक साल पहले ही कांग्रेस से भाजपा में आये सुनील जाखड़ को अध्यक्ष बनाया है। पार्टी के लिए पंजाब में का$फी विकट स्थिति है; जबकि उसके पास कांग्रेस से आये पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी हैं, जो भाजपा के टिकट पर विधानसभा का चुनाव तक हार गये थे।