
सामाजिक सरोकारों की प्रहरी- शालिनी माथुर जी!
मुझे मालूम नहीं कि आप वयोवृद्धा हैं या प्रौढ़ा या युवती, इसलिए वयोचित संबोधन नहीं कर पाने के लिए क्षमा चाहती हूं. तहलका में प्रकाशित आपका लेख ‘मर्दों के खेला में औरत का नाच’ पढ़ा, जिसमें आपने समकालीन स्त्री लेखन की समीक्षा करते हुए अपने सामाजिक सरोकारों की दुहाई दी है. लेखकों को आलोचनाओं से विचलित होकर उत्तर-प्रत्युत्तर के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए, लेकिन आलोचना जब सामान्य शिष्टाचार और शालीनता की सारी हदों को एक नियोजित और बेशर्म ढिठाई के साथ पार कर लेखकों की मानहानि पर उतर जाए तो प्रतिरोध जरूरी हो जाता है. मैं औरों की कहानियों के बारे में तो नहीं कह सकती, पर अपनी कहानियों के हवाले से यह जरूर कहना चाहती हूं कि इस क्रम में आपने न सिर्फ संदर्भों से काटकर अपने मतलब भर की पंक्तियों को उद्धृत किया है बल्कि जो कहानी में नहीं है उसे भी कहानी पर आरोपित करके उसका कुपाठ रचने की कोशिश की है.
मेरा मानना है कि दुनिया की सारी स्त्रियों के दुख एक से होते हैं और एक स्त्री दूसरी स्त्री का प्रतिरूप या विस्तार होती है. ऐसे में इस लेख में वर्णित चीर हरण का-सा दृश्य, यदि आपके ही शब्द उधार लूं तो, ‘अपने ही शरीर का अवयवीकरण’ है. बहनापे की यह बात भी आपको खल रही होगी, कारण कि स्त्री हितों के हक में आवाज उठाने वाली एक महान स्त्री का देह-व्यापार करने वाली किसी तवायफ से कैसा बहनापा हो सकता है? शालीन शालिनी माथुर जी! माफ कीजिएगा ये शब्द मेरे नहीं आपके ही हैं और इन्हें दुहराते हुए भी मैं घोर यंत्रणा से गुजर रही हूं. आप हमारे लेखन को हारे-चुके, वृद्धवृंद संपादकों-समीक्षकों को रिझाने के लिए किया गया नाच कहती हैं, लेकिन मेरा विवेक और मेरी प्रवृत्ति उसी तर्ज पर आपके लिखे को, किन्हीं ‘न हारे’, ‘न चुके’, समर्थ और युवा संपादकों-पाठकों के लिए लिखा हुआ कहने की इजाजत नहीं देते. हम वही देखते हैं जो देखना चाहते हैं. वरना मेरी उन्हीं कहानियों में, स्त्रियों के संदर्भ में कही गई घरेलू हिंसा, असमानता, यौन शोषण, अवसर का अभाव, उपेक्षा, संपत्ति का अधिकार, विवाह संस्था में अपमानजनक स्थिति, शिक्षा आदि जैसी बातों पर आपकी नजर क्यों नहीं गई? और जहां आपकी नजर गई भी वहां पितृसत्ता से पोषित पूर्वाग्रहों के साथ गलबहियां करके! स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक मानने की पुरुषवादी मानसिकता से संचालित होने का ही नतीजा है कि किसी स्त्री का अपनी मर्जी के पुरुष के साथ संबंध बनाना, वह भी प्रेम में, आपको स्वीकार नहीं होता और उसकी सजा देने के लिए आप उन्हीं मर्दवादी नख-दांतों से निजी होने की हद तक लेखिकाओं पर आक्रमण करने लगती हैं. पितृसत्ता से उपहार में प्राप्त शुचिताबोध आप पर इस कदर हावी है कि आप भावना, संवेदना और प्रेम से सिक्त स्त्री-मन की न सिर्फ अनदेखी करती हैं बल्कि बिना पात्रों की पृष्ठभूमि और मनोदशा को समझे ही पूर्वनिर्धारित निष्कर्षों को कहानी पर थोप देती हैं.
आपको ‘औरत जो नदी है’ की नायिका से शिकायत है कि वह एक शादीशुदा पुरुष से संबंध बनाती है. आप उसकी इस मान्यता से भी असहमत हैं कि वह विवाह संस्था को वेश्यावृत्ति मानती है. इस क्रम में आप यह भी आरोप मढ़ती हैं कि मैंने ‘पत्नी घर में, प्रेयसी मन में’ की मर्दवादी अवधारणा के अनुरूप खुद को ढाल लिया है इसी कारण कहानी के पुरुष पात्र अशेष के जीवन में तीन स्त्रियां हैं- पत्नी उमा तथा प्रेयसियां दामिनी और रेचल. आपने जिस चालाकी से यहां बिना दामिनी के मन में झांके अपना फतवा मेरी कहानी और मेरे व्यक्तित्व पर चस्पा किया है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए. दामिनी अपनी मां के जीवन में विवाह संस्था का असली रूप देख चुकी है, उसके पिता की उपेक्षा ने उसकी मां की हत्या कर दी थी. विवाह संस्था में उसका अविश्वास अकारण नहीं है. जहां तक अशेष के साथ उसके संबंध की बात है तो वह उसके प्रेम में है और अशेष बार-बार उससे अपने असफल दांपत्य की बात भी कहता है. दामिनी को जिस दिन यह पता चलता है कि अशेष प्रेम के नाम पर उसे छल रहा है, वह उसे उसी क्षण अपने प्रेम और अपनी जिंदगी से बेदखल कर देती है. मुझे आश्चर्य है कि अपनी मां के दांपत्य की त्रासदी को देख चुकी और खुद प्रेम में छली गई दामिनी का आत्मसम्मान से दमकता चेहरा आपको बिल्कुल भी नहीं दिखता. बिना स्त्री-मन में झांके उस पुरुष के व्यवहार के आधार पर, जिसने एक स्त्री को छला तथा उसके प्रेम और भरोसे की हत्या की, आप कहानी के सिर पर अपने निष्कर्षों का बोझ लाद देती हैं. पुरुषवादी नैतिकता यही तो करती रही है हमेशा से! शालिनी माथुर जी! एक स्त्री ने शादीशुदा पुरुष से प्रेम क्यों किया, उसने विवाह संस्था में अविश्वास क्यों जताया, जैसे तर्कों का यह संजाल उसी पुरुषवादी व्यवस्था की देन है. क्या यह सच नहीं कि दो वक्त का खाना-कपड़ा देकर पुरुष स्त्री की देह, उसका मन, विचार, अस्मिता, पहचान सब खरीद लेता है? रोटी-कपड़े और एक मर्द के नाम के बदले खरीद ली गई कोई स्त्री क्या आजीवन किसी पुरुष का अपमान इसलिए झेलती है कि वह अपने पति से प्रेम करती है, या इसलिए कि वह शारीरिक, आर्थिक, मानसिक और सामाजिक रूप से निर्भर और विपन्न है?
क्या किसी कहानी को सिर्फ इसलिए नकार देना चाहिए कि वह हमारे संस्कारों और नैतिक मूल्यबोध से मेल नहीं खाती? ‘समंदर, बारिश और एक रात’ के जिन पात्रों को आपने कोसा है वे विदेशी हैं. जो आपसे अलग है उसे स्वीकार नहीं करने का यह रवैया तालिबानी नहीं तो और क्या है? आपका यह तर्क भी समझ से परे है कि जिस परिवेश में लोग अपनी पसंद के साथी के साथ संबंध बना रहे हों वहां बलात्कार कैसे संभव है. ऐसे ही तर्क अपने उत्कर्ष पर जाकर हर स्वतंत्रचेता स्त्री को ‘छिनाल’ तक कहने से भी नहीं चूकते. अपनी मर्जी से अपने चुने हुए साथी के साथ संबंध बनाने वाली स्त्री को इतनी गिरी हुई मानना कि उसका बलात्कार अविश्वसनीय और असहज लगने लगे का तर्क आपको उन्हीं नरपिशाचों की जमात में ला खड़ा करता है जो किसी ‘निर्भया’ का बलात्कार इसलिए करते हैं कि उसने अपने प्रेमी के साथ रात के अंधेरे में घर से बाहर निकलने का दुस्साहस किया था.
यह कितना सुखद है कि आपकी दुनिया इतनी पवित्र और निर्दोष है जहां प्रेम हमेशा अपने प्लेटोनिक और उदात्त स्वरूप में ही होता है. प्रेमी युगल आपस में देह-संबंध नहीं बनाते, जहां कोई विवाहेतर संबंध नहीं होता और प्रेम के दीवाने अपने खून से लिखी चिट्ठियों में उस पवित्र संबंध की दुहाई देते हुए एक-दूसरे का हाथ थामे एक दिन किसी नदी में छलांग लगा देते हैं. मैं आपकी उस महान दुनिया को देखना चाहती हूं. क्या सचमुच वैसा कोई समाज है इस धरती पर? कभी गोवा आइएगा, आपको न सिर्फ यहां की उन पार्टियों की बानगी दिखाऊंगी बल्कि उन पात्रों से भी मिलवाऊंगी जिनके जीवन और उनके साथ घटने वाली त्रासदियों को अस्वाभाविक कहते हुए आप सिर्फ इसलिए नकार देती हैं कि आपकी आंखों ने उस दुनिया का संस्पर्श नहीं किया है. अब मैं इस कहानी में घटित बलात्कार के उस दृश्य की कुछ पंक्तियां उद्धृत करना चाहती हूं जिसमें आपको न तो बलात्कृत स्त्री की यातना का लेशमात्र वर्णन दिखता है न पुरुष की दरिंदगी के प्रति क्षोभ – ‘जेनी जोर से चीखना चाहती थी, मगर उसकी आवाज उसके गले में ही घुटकर रह गई थी. उसने भय और आतंक की गहरी, काली घाटी में डूबते हुए देखा था, चारों लड़के उसे गिद्ध की तरह घेरकर खड़े हैं और मैल्कम एक-एक कर उसके जिस्म से कपड़े उतार रहा है. सबकी गंदी फब्तियां, हंसी, छिपकली जैसी देह पर रेंगती घिनौनी छुअन… वह सबकुछ अनुभव कर पा रही है, मगर पत्थर के बुत की तरह अपनी जगह से एक इंच भी हिल नहीं पा रही है. एक गूंगे की तरह वह अपने अंदर पूरे समंदर का हाहाकार छिपाए बेबस पड़ी थी और वे चारों उसके चारों तरफ अशरीरी छायाओं की तरह नाच रहे थे. उसने देखा था, वे बारी-बारी से उसके जिस्म को नोच रहे हैं, खसोट रहे हैं और वह एक शव की तरह उनके बीच लावारिस पड़ी हुई है.’ मुझे आश्चर्य से ज्यादा दुख हो रहा है कि सामाजिक सरोकारों की पैरोकार एक अतिसंवेदनशील स्त्री को इन शब्दों में ‘बलात्कार कैसे करें’ का दिशानिर्देशक हैंडबुक दिख रहा है. काश! आपकी संवेदनशीलता ने उस लड़की की पीड़ा और बेबसी को महसूस किया होता जो भले आपकी भाषा नहीं बोलती, आपके महान मूल्यबोधों से संचालित नहीं होती पर उसके सीने में भी ठीक वैसी ही स्त्री का दिल धड़कता है जैसा कि आपके सीने में!
कहानियों के कुपाठ का यह खेल मेरी कहानी ‘देह के पार’ तक आते-आते तो अपनी सारी मर्यादाएं लांघ जाता है जब आप यह कहती हैं कि ‘देह के पार’ कहानी में प्रौढ़ स्त्री नव्या एक पुरुष वेश्या को खरीद लाती है. कल्पना और यथार्थ की महान अन्वेषी शालिनी माथुर जी! यह किस कहानी की बात कर रही हैं आप? मेरी कहानी में तो ऐसा कुछ नहीं होता. आपका खोजी आलोचक इस झूठ के पक्ष में कोई नया तर्क गढ़े इससे पहले आइए सीधे अपनी कहानी से कुछ पंक्तियां उद्धृत करती हूं-
‘तुम्हारी दोस्त हूं… तुम्हें खरीदकर, तुम्हारी कीमत लगाकर तुम्हारा अपमान नहीं करना चाहती… फिर तो उन्हीं की जमात में खड़ी हो जाऊंगी जिन्होंने तुम्हें आज यहां ला खड़ा किया है- पतन की कगार पर…’
शालिनी माथुर के अशालीन और गैरजरूरी लेख का बहुत ही शालीन,तर्कसम्मत और जरूरी प्रतिवाद।
संतुलित, संयमित और तर्कपूर्ण। जयश्री जी ने शालिनी माथुर के हर कुतर्क और पूर्वाग्रह का उचित जवाब दिया है। उन्हें साधुवाद! कितना सच है यह कि –
“स्त्रियों की सफलता के मूल्यांकन का यही मर्दवादी नजरिया स्त्रियों के लेखन को किसी और का लिखा हुआ बताने से भी बाज नहीं आता. अब तो ऐसे आरोपों पर न आश्चर्य होता है न दुख. लेकिन आपको इस भाषा में बात करते देखना इसलिए तकलीफदेह है कि आपका नाम स्त्रियों जैसा है. इस तकलीफ का कारण यह है कि कैसे पितृसत्ता स्त्रियों को ही स्त्रियों के खिलाफ खड़ी करके उनके मर्द होते जाने का उत्सव मना रही है. पितृसत्ता का यह उत्तरआधुनिक चेहरा किसी रचना को उसकी समग्रता में न देखकर ‘कट-पेस्ट’ के फौरी और पूर्वाग्रही पाठ के सुनियोजित प्रशिक्षण का नतीजा है. तभी तो आप मेरी कहानियों की स्त्री पात्रों की संवेदनाओं, चाहतों, भावनाओं, प्रेम की तलाश और उसमें छले जाने के बाद उनकी यंत्रणाओं की अनदेखी करके उनकी अभिलाषाओं को विशुद्ध देह के स्तर पर देखती और कोसती हैं. एकनिष्ठ या प्रतिबद्ध होने का मतलब अशरीरी या ब्रह्मचारिणी हो जाना नहीं होता है. प्रेम-पगी स्त्री के यौन संबंधों को हिकारत की दृष्टि से देखना क्या वही मध्यकालीन सामंती नजरिया नहीं है जो यह सोच तक नहीं पाता कि देह सुख पर स्त्रियों का भी हक है?”
जयश्री राय का जवाब आश्वस्त करता है. फिजूल की बातोँ मेँ ना जा कर उन्होँने दो टूक और सटीक बात की है.कहीँ मुद्दे से नहीँ हटतीँ. उनकी भाषा की शालिनता और मर्यादाबोध भी प्रभावित करता है. उनके लेखन मेँ उनके संस्कार दिखते हैँ. शालिनी माथुर के लेख ने जयश्री राय के प्रशंसकोँ को आहत किया था. आज उनके इस करारा जवाब ने उन्हेँ सँतुश्ट किया है. हम जयश्रीजी की हर बात और तर्क से सहमत हैँ. जब कोई सफल होता है उसके दुश्मन भी पैदा हो ही जाते हैँ. जिस त्वरा से जयश्रीजी ने आहित्य की दुनिया मेँ अपना नाम किया है, आश्चर्य नहीँ उनके भी कई शत्रु पैदा हो गये होंगे. इन बातोँ से विचलित नहीँ होना है उन्हेँ. आप इसी तरह लिखती रहेँ जयश्रीजी. हम पाठकोँ की शुभकामनायेँ आपके साथ है!
ज्यश्रीजी! बहुत बधाई और अभिनन्दन मैम! बहुत सुन्दर और तर्कपूर्ण लेख। हर इलज़ाम का मुंह तोड जवाब! अब तक आपकी ख़ूबसूरत भाषा का मुरीद था, अब आपके तर्क और विवेक का भी कायल हो गया। पॉइंट टु पॉइंट आपने हर बात का जवाब दिया है- लाजवाब! हमें आप लोगों के जवाब का इंतज़ार था। जवाब देना ज़रूरी था क्योंकि शालिनी माथुर की समीक्षा समीक्षा ना हो कर व्यक्तिगत आलोचना ज़्यादा थी। इस प्रवृति को रोकना आवश्यक है वरना ये एक बहुत ही गलत परम्परा को जन्म दे देगी जो हिन्दी साहित्य के हित में नहीं। एक बार पुनः आपको बधाई।
Wah! Wah! Wah! Kya shandar jawab diya aapne Joyshree Royji..kamal hai kamal hai Shalini Mathur ki jitni vi ninda ki jaye kam hai..ek jahil aur jungli kutil sankirn vichar ki hai..unhe mafi mangni chahiye..aisi kukriti ke liye..unka jhut ka vanda fut gaya.. ham savi ki najon se gir gayi… hamari duayen sada aap ke saath hai…aisi behtareen lekh ke liye badhai aur shubkamnaye
Bahut hi sharmnak hai itna jhut kaise koi likh sakta hai ..lanat hai Mathur par..behdad ghatiya bartap ki hai usne ..aurat jaisa naam hone se hi kya koi aurat ban jati hai kya madam Royji..mujhe to lagta hai wo na mard hai na janana… bahut chijo ki kami hain unme..sabse bari kami hai tamij ki… Ishwer aapko aur vi bahut saflata de..aur jalne walo ki najoron se bachaye..
First of all thanks a lot Joyshree madam for this deeply heart touching,very enlightening answer..what a huge difference between you and Shalini Mathur..all i can say heaven and hell difference…Shalini Mathur doesn’t deserve any respect, she is a evil and miserable one..with her nasty mind, histronic personality disorder she can only creat such disgust and shame. Hats off to you joyshree madam for beauty, truth and positive anergy you bring with your beautiful mind. May God bless you.
This is a work of genius! Absolutely mindblowing! A million thanks Joyshreejifor this marvelous read..really awesome you are a great person, a brilliant writer i always look forward reading your posts, each work is extraordinary, breathtaking Shalini Mathur has written a very dull ,unreadable, nasty article..as a writer she should be finished, over and out. This kind of abnormal behaviour pattern is a social,psychopathic, and sociopathic personality..she should seek help. Please dont let this evil ,ill mannered woman destroy your inner peace..our best wishes are alwaays with you..good luck and keep up the marvelous work
शालिनीजी का लेख ‘मर्दोँ…’ पढा था और आज जयश्रीजी का जवाब भी पढा. अगर शालिनीजी स्मीक्षा की आढ मेँ इसी मनगढँत बातेँ लिख रही हैँ तो यह हम हिंदी साहित्य प्रेमियोँ के लिये वाकई चिंता का विषय है. यह प्रवृत्ति खतरनाक है और इसके परिणाम दूरगामी हो सकते हैँ. आवश्यकता है ऐसे निंदनीय कवायतोँ का संग्यान लेना. हिंदी साहित्य के पुरोधाओँ से क्या हम उम्मीद कर सकते हैँ कि वे इस दिशा मेँ कोई कारगर कदम उठायेंगे? स्वस्थ साहित्य की देह मेँ पनप आई इन कैंसर की गाठोँ को जितनी जल्दी काट कर फेंक दिया जाय उतना ही अच्छा! आगे से जब भी शालिनीजी का लिखा कुछ पढूंगा, मन में उंसकी विश्वसनीयता पर संदेह बना रहेगा इस बात का अफसोस है!
बहुत दिनो से सारा माज़रा देख रही हूँ और दुखी हो रही हूँ.हिंदी साहित्य का रुख किस गटर की तरफ हो रहा है. साहित्य साधना के महत कर्म को छोड कर लोग गाली-गलौज और व्यक्तिगत आलोचना मेँ लगे हुये है. शालिनी जी ने तो सस्ती प्रसिदी पाने के लिये अनाप-सनाप लिख दिया मगर ये प्रतिष्ठित लेखिकायेँ क्या कर रही हैं! इन्हेँ अपने सम्मान की चिंता क्योँ नहीँ. जयश्रीजी ने तो लिखा,मगर अन्य साहित्यकार इस लेख का विरोध क्योँ नहीँ करतीँ? एक बार ऐसे झूठ लिख कर मान हानि करने वालोँ को अदालत मेँ घसीट लिया जाय तो इस सम्प्रदाय के दूसरे सदस्योँ को भी अक्ल आ जाय! अब देखना है कि इस दिशा मेँ कौन पहल करता है! सम्मान उनका है तो इसकी रक्षा करना भी वे सीखेँ!
Rimarkable! Take a bow! Joyshreeji,many thanks for sharing it, elegantly written grt work. We knew the truth shall be pravail..the gossip is answered rightly, very well..your every words provide great insight and ring absolutely true. We have been waiting for this, there are a lot of positive reaction ,we are not blind and stupid.Shalini Mathur needs to lern from you, she denies the truth though you have rock-solid iron clad evidence..she made an idiot of herself..bulies are driven by jealousy and envy..goes far beyond mean behavior. We wish you lots of success and wish you all the best.
Pl. read prevail instead of pravail
——
शालिनी जी के विस्तृत आलेख में सच का एकपक्षीय बयान ज्यादा है। और वह भी जैसे जान बूझकर प्रगतिशीलता और जनवाद को बदनाम करने के उद्देश्य से। जनवाद में अनेक तरह के लोग शामिल हैं केवल ये ही नहीं , जिनकी गिनती यहाँ कराई गयी है। जनवादी वह है जो जनतंत्र को सही मायने में लाने की भूमिका में रहता है। जो जनवादी नहीं होता वह निरंकुशता के लिए किसी न किसी बहाने से जमीन तैयार करता रहता है।
पवित्रता का बोध कराना सही है किन्तु उसकी आड़ में किसी तरह के शोषण-उत्पीड़न के लिए रास्ता बनाना पवित्रता का क्षद्म होगा। और यदि वह जिंदगी के सच पर आवरण डालता है तो वह पवित्रता नहीं, कलुषता है। ताली दोनों हाथों से बजा करती है। यह सच है कि पितृसत्ता वाले समाजों में हमेशा स्त्री-शरीर का शोषण -उत्पीड़न सबसे ज्यादा हुआ है और आज भी हो रहा है। किन्तु आज स्थितियों में परिवर्तन तेजी से हुआ है। उच्च और उच्चमध्य वर्ग की स्त्रियां आज पहले समयों की तुलना में ज्यादा मुक्त हैं , वे सोचती-विचारती और अपनी आकांक्षाओं को व्यक्त भी कर रही हैं। वे अपने मन के भीतर के यथार्थ को व्यक्त करने का साहस भी जुटा रही हैं। यह उस पितृ-सत्ता का प्रतिरोध भी है ,जिसकी जकड़बंदी में वे रहती आई हैं। जैसे स्त्री शरीर बेचने की परिस्थितियां ,व्यवस्था ने बनाई हैं वैसे ही आज के घनघोर बाज़ारवाद के युग में पुरुष भी अपने शरीर को बेचने लगा है और वर्ग-विशेष की स्त्रियां अपनी कामना-पूर्ति के लिए उसे खरीद रही हैं । इसमें बहुत सी विकृतियां भी आती हैं। लेकिन जब कोई समाज बंधनों को तोड़ता हुआ मुक्ति-पथ पर चलेगा तो कई तरह के विचलन भी होंगे। जब नदी में बाढ़ आती है तो वह कगारों को तोड़ती चली जाती है।
आज सरप्लस पूंजी का जो अकूत खजाना एक वर्ग-विशेष के पास इकट्ठा होता जा रहा है वह भी अपने लिए यौन-क्रिया को बाज़ार की तरह बनाता जाता है। वह बिकने और खरीदने की वस्तु बनती चली जाती है।इस प्रक्रिया में स्त्री ही नहीं , पुरुष भी वस्तु बनता जाता है। यह मानव स्वभाव की गति-दुर्गति दोनों है। यह मार्क्सवाद नहीं , फ्रायडवाद है। मार्क्सवाद में स्त्री भोग की वस्तु नहीं होती , वह आज जैसे पूंजी के बाज़ार में होती है। मार्क्सवाद में स्त्री का दर्ज़ा पुरुष की बराबरी का है। वहाँ किसी तरह की उंच-नीच नहीं। यौन वहाँ एक यथार्थ और प्राकृतिक क्रिया है, जिसकी जितनी जरूरत पुरुष को है ,उतनी ही स्त्री को भी। प्रकृति ने संतुलन पैदा किया है और इसके स्वरुप को द्वंद्वात्मक बनाया है। बहरहाल , संदर्भित कहानियों की व्याख्या-विश्लेषण एक पक्ष को बहुत उभारकर किया गया है , जिससे संतुलन गड़बड़ा गया है।
Shalini Mathur bari hi besharam, beadab aur irshalu jhuti kism ki inshan hai..jhut ka shahara lekar famous hona chahati hai..khud ko hi tamasha bana rahi hai wo..jo tasveer lagai hai usi se uski mansik bimari ka pata lagai ja sakti hai.. Ms Mathur khud ke naked jism ko, nithamb ko mardo ki nazroo se dekh rahi hai aur enjoy kar rahi hai. Bahuto ne likha hai unpar manhani ka case kar dena chahiye..aisi gandi harkat ki saja milna jaruri hai..unse kahna hai ki..unke lekh ka naam hona chahiye tha..”Mardon ke khela me Shalini Mathur ka naach”…ye nnach bara hi behuda, bedhang aur ghatiya laga…
Akatya tarkikta!Hardik abhinandan! Maine aapka Sampurna sahitya padha hai.aapki sarjanshilta lakh badhai ki patra hai.aagami lekhan ke liye anant Shubhechyae vishva sahitya ko aapse badi apekshaye hai…Thanks to shalini.isi bahane aapke samagra sahitya ki sarthak charcha hogi…bahulta mein behtareen denevali ye gati aapke lekhan mein bani rahe
काफी सटीक और सारगर्भित प्रत्युत्तर। निःसंदेहपूर्व लेख कई मायनों में पूर्वाग्रह से ग्रसित लग रहा था जिसमें नए लेखकों को भी लक्ष्य बनाने की कोशिश लग रही थी। आपके प्रत्युत्तर से दूसरे पक्ष को भी काफी दृढ़ता से अभिव्यक्ति मिली है…
Dono hi lekh utkrisht aur adbhut hain. Utkrisht isalie ki dono hi lekh apane utkrishtatam tark aur bhasha ke karan ati prabhwotpadak hai. Adbhut isalie ki dono hi rachanakar ek sarjak ke bajay courtmen khade wakil kee tarah najar aate hain. ek kah raha hai ki sambandhit lekhan men ek shatir aparadhi ki sajish ya aparadh ke alawa kuchh bhee nahin hai. dusara yah batane men laga hai ki ” Kya hai jo mere mahaboob mein nahin. ….
शालिनी माथुर का बहुचर्चित लेख और उसपर जयश्री रॉय का प्रतिवाद पढ़ा.स्वयम अधिक कहे बिना मैं वृद्ध परमानंद कि समीक्षा पेश कर रहा हूँ. इस से पुष्ट होता है कि यह देह के पार की कहानी है या देह वाद की. रस्मसाते नितंबों और जाँघों को एक मात्र गन्तव्य बताने वालों को आनंद देने वाली कहानी के प्रशंसक कम नहीं हैं.
´ युवा कवि-कथाकार जयश्री राय की दुनिया प्रेम की, देह-राग की, नींद की, रात की, रतजगे की दुनिया है। उनकी कथा भाषा निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती, गीतांजलि श्री के आसपास है। ‘औरत जो एक नदी है’ जैसे एक लम्बी कविता है। जयश्री कहती हैं : ‘ये असहाय सी औरतें दर असल कितनी सक्षम होती हैं-मर्दों को आंकठ लेती हैं, स्वयं में उतरने देती है। …पुरुष उसकी देह की कई इंचें नापकर विजय उत्सव मना लेता है। प्रेम और किसे कहते हैं-मैं उसके गुदाज सीने में चेहरा धंसा देता-‘इन वादियों में मेरा द्घर है-नर्म मुलायम कबूतरों-सी हरारत भरी और ये तुम्हारी जांद्घें-मेरे एक मात्रा गंतव्य की ओर जाने वाली उजली चिकनी सड़कें।’ मैं तुम पर पूरी तरह से खत्म हो जाना चाहती हूं, तुम मुझे लेते क्यों नहीं।’
जयश्री ‘औरत जो नदी है’-में कहती हैं-‘हर मर्द मानो मछली था, और वह पानी थी! नील तिलिस्म-भरा जाल थी-खुद में सुलझी, दूसरों को बेतरह उलझाती’। वर्जनाओं को पीछे छोड़कर वे ‘उत्तर समय’ तक जा पहुंची हैं। ये कहानियां आत्म और देह के तिलिस्म में प्रवेश करती हैं और वर्जनामुक्त स्त्राी-पुरुष संबंधों को उजागर करती हैं। जयश्री राय का जीवट सराहनीय है, जिससे ‘औरत जो नदी है’ सरीखी कहानियां संभव हुईं। भाषा ऐसी ऐन्द्रिक-‘देहलता में उत्तेजना के सुर्ख गुलाब उगाए, रसमसाते नितंबों में इंगितों का माताल ज्वार उठाये वह अपनी राह चलती रही।’
परमानंद श्रीवास्तव बी-१०, आवास विकास कॉलोनी, सूरजकुंड, गोरखपुर
अनकही> जयश्री राय शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली मूल्य : १५० रुपये
ज्यश्रीजी! बहुत बधाई और अभिनन्दन मैम! बहुत सुन्दर और तर्कपूर्ण लेख।
agreed with you 50-50
kushalchandra raigar advocate
pali rajasthan india