वह अन्ना आंदोलन का दौर था. ‘मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना, अब तो सारा देश है अन्ना’ का बोलबाला था. दिल्ली पूरी तरह अन्नामय हो चुकी थी. जंतर मंतर देश का सबसे नया पिकनिक स्पॉट था जहां वीकेंड पर मध्यवर्गी युवा सपरिवार क्रांति करने जाते थे और पिकनिक के साथ अपने व्यक्तिवादी जीवन के तमाम अपराधबोध भी कम कर आते थे. यह कुछ-कुछ वैसा ही था जैसे हमारे गांव का साहूकार हर साल बिना नागा गंगा नहाने जाता है और इस तरह साल-भर डंडी मारने के पाप का भी प्रायश्चित कर आता है.
मैं भी उन दिनों क्रांति मोड में था और तमाम दोस्तों को अन्ना आंदोलन के संचालकों की ओर से मिलने वाले एसएमएस फॉरवर्ड करता रहता था जिनमें लिखा होता था कि एक बूढ़ा आदमी चिलचिलाती धूप में देश के लिए लड़ रहा है और आप अपने घर में आराम से बैठे हैं, आप अब नहीं तो कब निकलेंगे, आदि-आदि. उस दिन मैं आंदोलन स्थल पर पहुंचा तो धूप बहुत तेज थी और मुझे थोड़ी भूख भी लगी थी. मैं थोड़ा टहलता हुआ आगे डोसे की एक दुकान तक पहुंचा. वहां 15 साल का चे ग्वेरा (एक बच्चा जिसने चे ग्वेरा की तस्वीर छपी टी-शर्ट पहन रखी थी) अपने मालिक की मार खा रहा था. पता चला कि मेज साफ करते समय उसका पोंछा झक्क सफेद कपड़े वाले कुछ क्रांतिकारियों से जा टकराया था.
फिर भी, मैंने उसके मालिक से पूछा, ‘क्यों मार रहे हो इसे’
‘**मी है जी साला! एक नंबर का कामचोर.’ वह बोला.
‘पता है न बाल श्रम कानूनन अपराध है. नाप दिए जाओगे.’ मुझे थोड़ा गुस्सा आया.
‘नहीं जी लेबर कहां है. ये तो घर का लड़का है. भतीजा है मेरा.’ दुकान वाला सकपकाया.
‘कहां घर है बेटा?’ मैंने उस लड़के को पुचकार पूछा
‘कठपुतली कॉलोनी.’ वह बोला.
दुकानवाला अब नजरें चुराने लगा था.
लेकिन इस बीच वहां डोसा खाने आए युवा क्रांतिकारियों की सहनशक्ति समाप्त हो चली थी. वे दुकानवाले पर चिल्ला रहे थे. दुकानवाला लड़के का हाथ पकड़कर दुकान के अंदर चला गया था.
अब मैं युवाओं के उस समूह की ओर मुखातिब हुआ. शायद मेरे हावभाव देखकर उनको लगा होगा कि अब मैं कुछ ज्ञान बांटने की कोशिश करूंगा. मुझे दिखाते हुए उनमें से एक-दो जानबूझकर उबासियां लेने लगे. तीसरे ने अपना मोबाइल निकालकर इयर फोन कान में लगा लिया. चौथी जो एक लड़की थी वह अपने बाजू वाले को बताने लगी कि स्नैपडील पर जींस और कुरतों में भारी डिस्काउंट है.
उनके लिए मैं वहां अनुपस्थित था. मेरी भूख मर चुकी थी और मैं तेजी से अप्रासांगिक महसूस कर रहा था, लेकिन मुझे बार-बार उस बच्चे का निरीह चेहरा याद आ रहा था. मुझे लगा कि मुझे पुलिस को फोन करके बता देना चाहिए कि जंतर मंतर पर यानी देश के प्रमुख आंदोलन स्थल पर प्रशासन की नाक के नीचे बाल श्रम और मारपीट के रूप में दो-दो अपराध हो रहे हैं. लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सका.
मुझे अचानक याद आया कि मुझे तो अभी आधे घंटे में ऑफिस के लिए निकलना है वरना लेट हो जाऊंगा. मुझे यह भी लगा कि पुलिस कंप्लेंट के बाद अगर किसी तरह का मुकदमा दर्ज हो गया तो मुझे शायद मुफ्त में अदालती चक्कर भी लगाने होंगे. मैं आंदोलन स्थल की ओर जा रहा था और लगातार यह सोच रहा था कि यह एक फोन कॉल मेरी व्यवस्थित
‘मेरी भूख मर चुकी थी और मैं तेजी से अप्रासांगिक महसूस कर रहा था, लेकिन मुझे बार-बार उस बच्चे का निरीह चेहरा याद आ रहा था’
जिंदगी में कितनी अव्यवस्था पैदा कर सकती थी? मैंने राहत की सांस ली और वहां से चल दिया.
उस दिन वहां से निकलते-निकलते मैंने यह भी सोचा कि अब ऐसी जगहों पर बगैर ऑफिशियल असाइनमेंट के नहीं जाऊंगा. रही बात ‘क्रांति’ में योगदान की तो मैं अपने एसएमएस पैक का पूरा लाभ उठाऊंगा. मैंने आखिरी बार चे ग्वेरा को उस दुकान के पीछे सिसकते हुए बरतन मांजते देखा था. बैकग्राउंड में पुरानी वाली शहीद फिल्म का गाना बज रहा था, ‘वतन की राह पर वतन के नौजवां शहीद हों’.
मैं भी उसी अन्ना आन्दोलन से जुड़ा था अन्ना आन्दोलन से पहले मैं भी आप के जैसे कमजोर था , लेकिन अब नहीं उस आन्दोलन से गलत बातो पर लड़ने की प्रेरणा मिलती है मैं अगर आप के जगह होता तो उस बच्चे को वहा नहीं छोड़ता
Ji AGR phn krone ki jehmat ki hoti to shayad SMS pack ki kranti she bahar aakar sachhe ikrantikari ki bhumika nibha pate