सुनने में थोड़ा अजीब लगेगा, भला कहीं अध्यापक का थप्पड़ खाने या साथी विद्यार्थी को थप्पड़ मारने से भी किसी का आत्मविश्वास लौटता है क्या? वह भी ऐसे वक्त में तो यह बात सोचनी भी मुश्किल है जब शिक्षक और छात्र के बीच का रिश्ता एक तनी रस्सी जैसा हो गया है. जराे-सा झटका और डोर टूटी.
बात थोड़ी पुरानी है, गांव के सरकारी स्कूल से प्राथमिक शिक्षा लेकर मैं एक महीने पहले ही नए स्कूल में छठी कक्षा में आया था. वहां मेरी कोशिश यह होती कि मैं सबसे आगे वाली पंक्ति में बैठूं क्योंकि मां कहती थी कि आगे की पंक्ति में बैठने से चीजें ज्यादा समझ में आती हैं. पीछे की लाइन में बैठे दो लड़के इंग्लिश मीडियम स्कूल से आए थे. वो एलकेजी-यूकेजी भी पढ़े थे, इसलिए वे उम्र में और दिखने में हम सरकारी स्कूल वालों से बड़े थे. मजबूत कदकाठी के होने के कारण वे ज्यादातर हमको छेड़ते रहते थे. उनमें से एक का नाम अमित था और वह मेरे पीछे की लाइन में बैठा मेरे बाल खींच-खींचकर परेशान करता रहता था. दोनों मुझसे ताकतवर थे, इसलिए लड़ भी नहीं सकता था. वैसे भी मैं उससे पहले घर पर बहनों के अलावा किसी से नहीं लड़ा था.
एक दिन की बात है. भोजनावकाश खत्म हुए 15 मिनट से अधिक वक्त बीत चुका था. गुरु जी अभी तक कक्षा में नहीं आए थे. वह पीरियड हमारे शारीरिक शिक्षा वाले गुरु जी का था जो हमें कृषि भी पढ़ाया करते थे. गुरु जी भरे-पूरे और सुगठित शरीर के मालिक थे. यही वजह थी कि सभी बच्चे उनसे बहुत घबराते थे. वे प्रार्थना के समय उन बच्चों के नाम पुकारते जो पिछले दिन छुट्टी होने के पहले ही स्कूल से भाग गए थे. इसके बाद वे अपने मूड के मुताबिक कभी डंडे तो कभी किसी और चीज से उनकी पिटाई करते. बजाज चेतक स्कूटर और काला चश्मा ही उनकी पहचान थे जो ज्यादातर समय उनकी आंखों पर ही टिका रहता था. यूं तो बच्चों ने मजाक उड़ाने के लिए हर शिक्षक का कोई न कोई नाम रखा था लेकिन यह उनका रोब या कहें खौफ ही था जो उन्हें इससे बचाए हुए था.