बक्सर लोकसभा सीट. ब्रह्मपुर ब्लॉक. एक मास्टर साहब मिलते हैं. चुनावी चर्चा चलने पर नंदपुर गांव के रहने वाले ये शिक्षक इत्मीनान से गणित बताने लगते हैं. कहते हैं, ‘देखिए हमारे क्षेत्र से इस बार बाबाजी यानी पंडित के नाम पर भाजपा ने अश्विनी चौबे को टिकट दे दिया है. अब वे भागलपुर इलाके के छी-छा वाले पंडितजी हैं तो कहां से हम लोग अपना तालमेल बिठा पाएंगे?’ मास्टर साहब आगे कहते हैं, ‘ठीक है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर हवा-आंधी और ना जाने का-का है, लेकिन सांसद तो हमंे अपना ही चाहिए न. अपना माने हर तरह से अपना…!’ यह सब बताने के बाद मास्टर साहब चवन्निया हंसी दिखाते हैं और विदा ले लेतेे हैं.
औरंगाबाद जिले के ओबरा बाजार में अजय महतो से बात होती है. वे कहते हैं, ‘देखिए, बिहार में भाजपा लव-कुश यानि कुरमी-कोईरी गठजोड़ तोड़ने की तैयारी में है और उसके लिए राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी से उसका गठजोड़ भी हुआ है. हम कोईरी लोग यह गठजोड़ तोड़ भी देते, लेकिन काराकाट सीट यानी हमारे इलाके से चुनाव लड़ने राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के सर्वेसर्वा उपेंद्र कुशवाहा जी खुद आ गए हैं. अब उ गंगा पार के कुशवाहा हैं, अपना कोई कुशवाहा देते तो….! ’
बिहार में कई जगहों पर ऐसी ही बातें होती हैं. हर जगह अपने-अपने तरीके से लोग जाति की राजनीति का मुहावरा और गणित समझाते हैं. संकेत मिलता है कि बिहार इस बार के लोकसभा चुनाव में जाति के खोल में समाने की अकुलाहट में है. शायद यही वजह रही कि लोकसभा चुनाव में टिकट बंटवारे के पहले अलग तरह के अनुमान लगाए जा रहे थे, लेकिन टिकट तय होने के बाद से अनुमानों की दिशा दूसरी हो गई है. जो लोग कल तक यह आकलन कर रहे थे कि नरेंद्र मोदी के जरिये भाजपा राज्य में उफानी जीत की तरफ बढ़ रही है, वे अब ऐसा नहीं कह पा रहे हैं और जो कल तक नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू के कुछ सीटों पर सिमट जाने का आकलन कर रहे थे, उनके सुर अब बदलते जा रहे हैं. वजह साफ है. बिहार में इस बार लोकसभा चुनाव में उसने ही संभावनाओं को अपने पक्ष में किया है, जिसने जाति के साथ ही कुछ दूसरे समीकरण भी ध्यान में रखे हैं.
इस नजरिये से बिहार में सभी दलों ने अपने तरीके से पुरजोर मंथन किया. लेकिन कई दल उस मंथन की प्रक्रिया में ही ऐसे भटके कि टिकट बंटवारे का वक्त आते-आते दूसरी दिशा में चले गए. देखा गया कि पार्टियों को अपने नेताओं पर भरोसा नहीं रहा. पाला बदलकर दूसरे दलों में गए ऐसे नेताओं को तरजीह मिली जो सिर्फ जाति के आधार पर वोट जुगाड़ने की क्षमता रखते थे. ऐसे नेता रातों-रात टिकट पाने में भी सफल हुए.
बिहार में सभी दलों ने जिस तरह से टिकटों का बंटवारा किया है उसे एक बार सरसरी तौर पर देखने पर सियासी गणित साफ-साफ दिखने लगता है.
बंटवारे का गणित
बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीटें हैं. भाजपा 30 पर चुनाव लड़ रही है. शेष 10 सीटों में से सात उसकी सहयोगी पार्टी लोजपा के पास हैं और तीन राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के खाते में. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई में जदयू 38 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. उसने दो सीट सीपीआई के लिए छोड़ी हैं. लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) 26 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. 13 सीटें उसने गठबंधन सहयोगी कांग्रेस को दी हैं और एक सीट राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के खाते में है.
अब इन पार्टियों के टिकट बंटवारे में जाति के समीकरण देखते हैं. भाजपा ने राजपूत जाति के सात, ब्राह्मण जाति के तीन, यादव जाति के चार, भूमिहार जाति के तीन, कायस्थ जाति के एक, अनुसूचित जाति के तीन, कुशवाहा जाति के एक, वैश्य समुदाय के तीन, अतिपिछड़ा समूह के तीन और मुस्लिम समुदाय के एक उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं. भाजपा के नये-नवेले सहयोगी बने रामविलास पासवान ने अपनी पार्टी लोजपा के लिए सात सीटें रखी हैं, लेकिन उनमें से तीन सीटें अपने परिवार के खाते में ही डाल दी हैं. एक और पासवान को भी रामविलास ने तरजीह दी है. शेष तीन सीटों पर उन्होंने एक राजपूत, एक भूमिहार और एक मुस्लिम समुदाय के उम्मीदवार को मैदान में उतारा है. जदयू की बात करें तो उसने छह टिकट यादव समुदाय से ताल्लुक रखने वाले उम्मीदवारों को दिए हैं तो छह कुशवाहा समुदाय को. इसके अलावा पार्टी ने पांच मुस्लिम , पांच महादलित, एक दलित, चार भूमिहार, दो ब्राहमण, दो राजपूत, एक कायस्थ, दो वैश्य, एक कुरमी और तीन अतिपिछड़ा समुदायों के प्रतिनिधियों को मैदान में उतारा है.