जहां धर्म घुले, मिले और खिले

imgनवंबर 1989 की बात है. एक नौजवान पत्रकार के रूप में मैं भारत बस पहुंचा ही था कि कश्मीर में हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए. इस घटना को कवर करने के लिए मुझे श्रीनगर भेजा गया. तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि ये प्रदर्शन भारतीय शासन के खिलाफ विरोध की उस आग में तब्दील होने वाले हैं जो हजारों जिंदगियां लील लेगी और घाटी पर कट्टरपंथ का रंग चढ़ा देगी. इस घटना को हुए 19 साल हो गए हैं. विरोध की यह आग आज भी धधक रही है और कुछ समय पहले तो इस मुद्दे पर दो परमाणु शक्तियों के बीच युद्ध की नौबत तक आ ही पहुंची थी.

अब इस विवाद को चलते हुए इतना लंबा अरसा हो चला है कि कश्मीर का नाम लेते ही लोगों के दिमाग में फौरन हिंसा, लड़ाई और आतंकवाद जैसे शब्द अपने-आप ही घुमड़ने लगते हैं. शायद ही किसी को भिन्न-भिन्न आस्थाओं के मेल से बनी कश्मीर की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और शानदार कला-शैली का ध्यान आता हो.

कुछ समय पहले मुझे कश्मीर पर आयोजित एक कला प्रदर्शनी में जाने का मौका मिला जिसका आयोजन न्यूयॉर्क स्थित एशिया सोसाइटी ने किया था. द आर्ट्स आॅफ कश्मीर  नामक इस प्रदर्शनी में कश्मीर की कला के वे नायाब नमूने रखे गए थे जो न सिर्फ यहां की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा को दर्शाते हैं बल्कि  जिन्होंने लंबे समय तक वादी-ए-कश्मीर को एक अलग पहचान भी दी है.

मेरे लिए सबसे अद्भुत अनुभव रहा कश्मीर के शुरुआती हिंदू और बौद्ध अतीत के दौरान यहां पर पनपी शानदार कला को देखना. गौरतलब है कि आज से करीब 2000 साल पहले पश्चिमी हिमालय का यह क्षेत्र कला और संस्कृति की दृष्टि से आज जैसा सुदूर नहीं था. दुर्गमता के बावजूद ये पहाड़ और घाटियां वह चौराहा थीं जहां यूनानी, फारसी, मध्य एशियाई, भारतीय और चीनी दुनियाएं आपस में मिलीं और खिलीं.

कश्मीर की शुरुआती मूर्तिकला गंधार (आज अफगानिस्तान का एक भाग) शैली से बहुत ज्यादा प्रभावित थी जिसमें शांत बैठे बुद्ध ध्यानमग्न दिखाई देते हैं. गंधार शैली की तरह कश्मीर में भी इन मूर्तियों को भूरी चट्टानों से तैयार किया जाता था. कुछ समय बाद कश्मीर ने इस कला में अपनी एक अलग ही शैली विकसित कर ली और यह अपने-आप में ही बौद्ध कला और साहित्य का केंद्र बन गया. पहली शताब्दी के दौरान यहां पर एक बौद्ध परिषद का आयोजन भी हुआ था. चौथी शताब्दी में चीनी भिक्षु भी कश्मीरी विद्वानों से परामर्श लेने घाटी में पहुंचने लगे. इन विद्वानों में से एक थे कुमारजीव जिन्होंने बाद में कमल सूत्र का चीनी में अनुवाद किया. यह कश्मीर ही था जहां सातवीं शताब्दी में तिब्बती शासकों ने बौद्ध धर्म के अध्ययन और इसके ज्ञान को अपनी भाषा में लिपिबद्ध करने के लिए अपने दूतों को भेजा.

प्रदर्शनी में रखी गई मूर्तियां प्राचीन काल की थीं. तांबे से निर्मित इन मूर्तियों को इस कुशलता से बनाया गया है कि ये बेहद सजीव लगती हैं. इनमें बोधिसत्व, मैत्रेय और अवलोकित्सेवर की शानदार मूर्तियां हैं जिनके हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठे हुए हैं.

कश्मीर सिर्फ बौद्ध ही नहीं बल्कि  हिंदू कला और दर्शन का भी केंद्र था. घाटी के शुरुआती शासक हिंदू थे और उन्होंने ही यहां पर हिंदू देवियों की मूर्तियां बनवार्इं. इनमें देवी इंद्राणी की सुंदर मूर्ति उल्लेखनीय है जिसे देखकर लगता है मानो वह संगीत की धुन में मदमस्त होकर नृत्य कर रही हैं.

कला के ये नमूने इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि कश्मीर एक ऐसी जगह थी जहां राजा, संगीत, नृत्य और कविता जैसी कलाओं को संरक्षण दिया करते थे. इस शैली में देवताओं को राजसी तरीके से चित्रित किया जाता था. मसलन भगवान शिव को मुकुटधारी राजा के रूप में दिखाया गया है और वे किसी कश्मीरी रानी की तरह लग रहीं पार्वती के साथ चौसर खेलते दिखाई देते हैं.

800 साल तक कश्मीर में हिंदू और बौद्ध धर्म साथ-साथ चलते और आपस में घुलते-मिलते रहे. दोनों धर्माें को राजाओं, मंत्रियों और व्यापारियों का संरक्षण मिला. इनमें से कई तंत्र विद्या के प्रति भी रुचि रखते थे. ऐसा लगता है कि कश्मीर में ही तंत्र-मंत्र हिंदू धर्म से बौद्ध धर्म में आया होगा. इससे महायान शाखा का निर्माण हुआ जो आगे चलकर तिब्बत और नेपाल में फली-फूली.

प्रदर्शनी में रखी गई कुछ सबसे बढ़िया मूर्तियां बौद्ध धर्म के तंत्र देवों की थीं. इनमें तांबे से निर्मित, चार सिरों और दस भुजाओं वाले चक्रसंवर की एक मूर्ति भी थी जो भूमि पर गिरे अपने दानवी शत्रुओं के ऊपर नाच रहे हैं. आठवीं शताब्दी की इस कलाकृति में चक्रसंवर क्रोधित मुद्रा में नजर आते हैं. उनके सिर पर नरमुंडों का मुकुट है और गले में नरमुंडों की माला. उनसे बिजलियां फूट रही हैं और उन्होंने अपने सिर के ऊपर एक मृत हाथी की खाल थाम रखी है.

यह लगभग वैसी ही आकृति है जो बाद में तिब्बती कला में काफी प्रचिलत हुई और जिसका इस्तेमाल भूत-प्रेतों को दूर रखने के लिए किया जाता है.

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