‘जंगल हम-आपका, नहीं किसी के बाप का ’

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मनीषा यादव

अवधेश की उम्र का हिसाब रखने के लिए न तो उसके पास मां है और न बाप. शायद इसलिए हमने उससे उसकी उम्र जाननी चाही तो उसने तपाक जवाब दिया, ‘चौथी कक्षा में पढ़ता हूं.’ चौथी कक्षा ही उसकी उम्र को बयां करती है. झट हम भी हिसाब लगाते हैं- दस साल.

अवधेश सिंह पनिका दस साल का बच्चा है. आदिवासी परिवार में पैदा हुआ. मध्य भारत के घने जंगलों से घिरे अपने गांव अमिलिया में जब उसने होश संभालना शुरू किया तो उसको संभालने वाले मां-बाप इस दुनिया से विदा हो चुके थे. पहले पिता और एकाध-दो साल बाद मां भी.

अवधेश की कहानी इसलिए जरूरी नहीं है कि उसके मां-बाप नहीं हैं या फिर उसकी उम्र का हिसाब रखने वाला कोई नहीं है. उसकी कहानी इससे आगे की है. एक तरफ गांववालों की नजर में पला-बढ़ा, आधा पेट खाया, बिना नहाया, लंबे बेतरतीब बाल और थोड़ा-थोड़ा कुपोषण की आशंका को लादे लटका पेट- अवधेश. दूसरी तरफ कंपनीवालों से संघर्ष कर रहे गांववालों की लड़ाई का सबसे छोटा सिपाही- अवधेश सिंह पनिका.

जब अवधेश अपने गांव के दूसरे बच्चों के साथ खेलने और जंगल घूमने जाना सीख रहा था तभी दिल्ली और भोपाल में बैठे हुक्मरान उसके जंगल को खत्म करने के लिए निजी कंपनियों के साथ साजिश बुनने में लगे थे. उसके गांव का निस्तार महान जंगल में है. 54 गांवों के करीब एक लाख लोगों की जीविका के स्रोत महान जंगल को महान कोल लिमिटेड (एस्सार व हिंडाल्को की संयुक्त उपक्रम) को कोयला खदान के लिए दिया गया है. इस प्रस्तावित कोयला खदान के खुलने से अवधेश जैसे हजारों बच्चों की जिंदगी खतरे में है. अपनी जीविका को बचाने के लिए अवधेश के गांववालों ने दूसरे गांववालों के साथ मिलकर महान संघर्ष समिति बनाई है. भले ही महान कोल ब्लॉक को पर्यावरण क्लीयरेंस देते वक्त मंत्री-अधिकारियों ने महान जंगल की अहमियत ना समझी हो लेकिन अवधेश बहुत ही मासूम ढंग से ही सही जंगल की अहमियत और आदिवासी होने के नाते उसके  मायने समझा जाता है. उसके ही शब्दों में, ‘जंगल से हम महुआ बीनते (चुनते) हैं. तेंदुपत्ता, लकड़ी, चिरौंची भी. फिर इसको बेचकर कपड़ा खरीदते हैं, मिठाई खरीदते हैं और पैसा बच गया तो गेंद भी.’ अवधेश कंपनी द्वारा उछाले गए विकास के दावों को भी समझता है. वह बड़े आराम से कहता है, ‘कंपनी वाला बोला- इंजीनियर बनाएंगे. प्रदूषण से मर जाएंगे तो कैसे इंजीनियर बनाएगा.’

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