‘चांद उनका संग-ए-मील है’

lataजैसे पुरखों का बिरसा (विरासत) होता है, गायिकी का बिरसा भी इसी तरह ध्रुपद, ख्याल, भजन, ठुमरी के बहाने हमें मिला हुआ है. अगर हम पिछले सौ सालों के भारतीय फिल्मों के इतिहास में चले आए हुए आवाज के बिरसे की बात करें, तो उसमें मिली हुई लता जी की आवाज एक नेमत की तरह लगती है.

पिछली सदी में बहुत बड़े-बड़े फनकारों ने खूब कमाल का गाया है. उसमें बड़े गुलाम अली खां, अमीर खां साहेब और किशोरी अमोनकर जी ने बहुत उम्दा गाया है, मगर उन सबका गाना खुद के लिए है. यहीं से लता जी की आवाज की एक अलग विरासत बनती है. दूसरे की आवाज़ बनकर गाना कमाल की चीज है. यह वाहिद मिसाल लता जी से शुरू होती है. सहगल भी कभी दूसरे की आवाज नहीं बने. उनका गायन बहुत स्तरीय होकर भी खुद का गायन था. लता जी की आवाज चांद पर पहुंची हुई आवाज है. वे नील आर्मस्ट्रांग हैं, जो सबसे पहले चांद पर कदम रखने की सफलता हासिल करती हैं. हालांकि आशा जी भी उसी यान में खिड़की की दूसरी तरफ बैठी थीं.

लता जी की गायिकी के बारे में कुछ बातें हैरत में डालती हैं. मसलन यह कि कहानी, कैरेक्टर, सिचुएशन, फिल्म, संगीत और गीत किसी के भी हों, अगर उसे लता जी गा रही हैं, तो वह बरबस लता जी का गाना बन जाता है. बाद में और कोई जानकारी या तथ्य महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाते. यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है. उनकी आवाज, मेलोडी और तैयारी कमाल की है, डेडीकेशन जैसी चीज लता जी से सीखने वाली है. उनकी गायिकी में कुछ अलग है, अब यह अदा है, फन है या अलग तरह की आर्ट. या सब का मिला-जुला एक निहायत खुशनुमा पड़ाव. उन्होंने अरेबियन नाइट्स की कहानियों की तरह आवाज का ऐसा जादुई कालीन अपने गीतों के बहाने बिछाया हुआ है जिस पर पिछले पचास-साठ साल से न जाने कितने लोग चहलकदमी कर रहे हैं. आप उनका ‘रसिक बलमा’ सुनें तो उसी सम्मोहन में पड़ जाते हैं, जैसे बच्चे जादू और तिलिस्म की कहानियों के प्रभाव में फंस जाते हैं. सलिल दा जैसे जटिल धुनों को बनाने में माहिर संगीतकार की धुनों में भी कितनी भीड़ भरी बनारस जैसी गलियां क्यों न हों, लता जी बड़े आराम से वहां टहलते हुए निकल जाती हैं. ‘ओ सजना बरखा बहार आई’ ऐसी ही एक जटिल धुन पर सहजता से फिसलती हुई रचना है.

उनके लिए गाना लिखते हुए हमेशा यही लगता है कि कोई सिमली (रूपक) अगर जेहन में आती है, तो लता जी उस पर किस तरह रिएक्ट करेंगी. एक बार ‘देवदास’ के एक गाने की रिकॉर्डिंग के वक्त मेरे गीत में आई हुई इस पंक्ति ‘सरौली से मीठी लागे’ के बारे में वे बोलीं, ‘ये सरौली क्या है?’ ‘सरौली एक आम है, बहुत सुर्ख होता है, हम बचपन में उसे चूस-चूस कर खाते थे. क्या गाने से इसे निकाल दूं’ मैंने पूछा. ‘अरे नहीं! इसे ऐसे ही रहने दीजिए, मैं बस इसलिए पूछ रही हूं कि जानना चाहती थी कि इसकी मिठास कितनी होती है’ इसी तरह जब हम ‘घर’ के एक गाने की रिहर्सल पंचम के साथ कर रहे थे, तब वह उसके गाने ‘आपकी आंखों में कुछ महके हुए से राज हैं’ में आगे आने वाली लाइन ‘आपकी बदमाशियों के ये नये अंदाज हैं’ के बारे में बेहद परेशान था. उसने मुझसे कहा, ‘शायरी में बदमाशी कैसे चलेगी? फिर ये लता दीदी गाने वाली हैं.’ मैंने कहा ‘तुम रखो, लता जी को पसंद नहीं आया तो हटा देंगे.’ लता जी से रिकार्डिंग के बाद पूछा ‘गाना ठीक लगा आपको? ‘हां अच्छा था.’ ‘वह बदमाशियों वाली लाईन?’ ‘अरे, वही तो अच्छा था इस गाने में. उसी शब्द ने तो कुछ अलग बनाया इस गाने को.’ लता जी का यह गाना आपको ध्यान होगा, वहां गाते हुए वे खनकदार हंसी में बदमाशियों वाले शब्द का इस्तेमाल करती हैं और उसकी अभिव्यक्ति को और अधिक बढ़ा देती हैं.

हम खुशकिस्मत हैं कि पिछली सदी में उनकी आवाज को हमने करीब से सुना है और उनके लिए कुछ गीतों को लिखने का सौभाग्य अपने खाते में दर्ज करा पाए हैं. आप उनके गाने को सुनकर ऐसा नहीं कह सकते कि ‘अरे यार, क्या कमाल का गाती हैं.’ आप ऐसा कर ही नहीं सकते. उनके संगीत के लिए हमेशा एहतराम लगता है. इज्जत की भावना अपने आप मन में उठती है. कोई नाशाइस्ता शब्द उनकी गायिकी के लिए हम सोच भी नहीं सकते. उनकी आवाज और गायन में कोई मशक्कत नजर नहीं आती. वह सहज है और भीतर से निकली हुई इबादत की तरह है. वे संग-ए-मील हैं.

(यतीन्द्र मिश्र से बातचीत पर आधारित)

(सुर अविनाशी, 30 सितंबर 2011 में प्रलाशित)