
2011 की एक पंजाबी फिल्म है ‘अन्हे घोड़े दा दान’. गुरदयाल सिंह के लिखे एक उपन्यास पर आधारित इस फिल्म का निर्देशन गुरविंदर सिंह ने किया था. इस फिल्म में पंजाब के दलित वर्ग की बेबसी को बड़ी ही संजीदगी और धीरज के साथ दिखाया गया है.
तीन साल पहले की इस फिल्म का ज़िक्र यहां इसलिए क्योंकि हरियाणा के भगाणा गांव के दलित परिवारों से बात करते वक्त उस फिल्म के कई सीन आंखों के सामने दौड़ जाते हैं. ऐसा लगता है कि जैसे वही फिल्म दोबारा देख रहे हैं.
हरियाणा के हिसार जिले से आधे घंटे की दूरी पर भगाणा गांव है. काफी लंबे समय से इस गांव के जाटों ने खाप पंचायत के साथ मिलकर दलितों का सामाजिक बहिष्कार कर रखा है. पिछले दिनों इस बहिष्कार ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए एक ऐसा भयानक रूप लिया जिसने गांव के दलित परिवारों की चार लड़कियों को मुंह ढंककर दिल्ली के जंतर-मंतर पर डेरा डालने को मजबूर कर दिया. 13 से 18 साल की उम्र की इन चार मासूम जिंदगियों का साथ गांव के करीब 100 से भी ज्यादा दलित दे रहे हैं. इनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं.
यहां ‘धरना’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए नहीं किया जा रहा है क्योंकि पिछले कुछ समय से इस अलफाज की गंभीरता कम होती जा रही है. शायद इसीलिए भगाणा के इन दलितों की भी कोई सुनवाई नहीं है. चंद अखबारों को छोड़कर ज्यादातर मीडिया ने इनकी तरफ ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा है. शायद उनकी नजर में यह भी जंतर मंतर पर दिया जाने वाला ‘बस-एक-और-धरना’ है. ऊपर से यह चुनाव का मौसम भी है. ‘हर हाथ शक्ति’ और ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ जैसे सुखद नारों के बीच ऐसी किसी बुरी खबर से क्यों जायका बिगाड़ा जाए?
खैर, पूरा मामला यह है कि 23 मार्च की शाम सात बजे, भगाणा गांव के अलग-अलग दलित परिवारों की चार लड़कियां, शौच के लिए घर से बाहर खेतों की तरफ निकली थीं. इन चारों की उम्र 13 से 18 साल के बीच है. जब काफी देर तक लड़कियां घर वापिस नहीं लौटीं तो परिवार वालों ने उन्हें ढूंढना शुरु किया. अगले दिन मदद के लिए सरपंच का दरवाजा खटखटाया गया लेकिन वहां से भी किसी तरह की सहायता न मिलने के बाद ये लोग हताश होकर वापस लौट गए. थोड़ी ही देर बाद सरपंच का संदेश आया कि इन परिवारों की बेटियां मिल गई हैं और वे सभी भंटिडा में हैं.
24 मार्च की शाम को भटिंडा में अपने परिवार से मिलने के बाद इन लड़कियों ने जो जानकारी दी उसने सबको हिला कर रख दिया. लड़कियों ने बताया कि उन्हें एक सफेद गाड़ी में उठा लिया गया था और फिर उनके साथ 12 लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया. इन लड़कियों पर सच न बोलने का काफी दबाव था लेकिन मामले को सामने आने में ज्यादा देर नहीं लगी. जानकारी के मुताबिक डॉक्टरी जांच में दो लड़कियों के साथ बलात्कार की पुष्टि हुई है लेकिन परिजनों का कहना है कि चारों में से किसी को भी नहीं छोड़ा गया. 25 मार्च को सुबह एफआईआर की गई लेकिन केवल पांच ही लोग गिरफ्तार हुए हैं. पीड़ित लड़कियों के परिजनों का आरोप है कि इस काम में सरपंच की मिलीभगत है और जो सात आरोपी फिलहाल बाहर हैं उनमें सरपंच राकेश और उसका चाचा भी शामिल है. लड़कियों के परिवार वालों का कहना है कि जहां सारी रात दौड़-भाग करने के बाद भी उन्हें अपनी बेटियों का पता नहीं चल पाया, वहीं सरपंच ने थोड़ी ही देर में कैसे लड़कियों के ठिकाने का पता लगा लिया.
यही हमारा घर है
भगाणा के जाटों ने दलितों का हुक्का पानी पहले से ही बंद कर रखा है. इस गांव के 135 दलित और पिछड़े परिवार, पिछले दो सालों से अपने बच्चों, महिलाओं और जानवरों के साथ हिसार के मिनी सचिवालय में खुले आसमान के नीचे रह रहे हैं. गांव की जिन लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ है, वो धानक (अनुसूचित जाति ) जाति की हैं. पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स संस्था ने जो रिपोर्ट तैयार की है उसके अनुसार धानक जाति, दलितों में भी बेहद कमजोर मानी जाती है. दो साल पहले जब जाटों ने गांव में हुए एक विवाद के चलते दलितों का बहिष्कार किया था तब चमार, कुम्हार, खाती जैसी अपेक्षाकृत मजबूत जाति के लोग, हिसार में धरने पर बैठ गए थे. लेकिन धानक जाति के परिवारों ने बहिष्कार के बावूजद गांव में ही रहने का फैसला किया था. इस सामूहिक बलात्कार को धानक जाति के उसी निडर कदम की सजा के रूप में भी कुछ लोग देख रहे हैं.
अब एफआईआर दर्ज कराने की हिम्मत दिखाकर और पांच लोगों को सलाखों के पीछे भेजकर, इन लोगों के लिए गांव में ठहरना अपनी जान को खतरे में डालने से कम नहीं. इसलिए 15 दिनों तक हिसार में डेरा डालने के बाद और हरियाणा सरकार से नाउम्मीदी मिलने के बाद, इन लोगों ने 16 अप्रैल से दिल्ली के जंतर मंतर पर न्याय की गुहार लगानी शुरु कर दी. लेकिन क्या इंसाफ मिलना इतना आसान है? जब ये सवाल बलात्कार की शिकार कुसुम (नाम बदला हुआ) की मां से पूछा गया तो जवाब था – ‘अगर निर्भया को न्याय मिल सकता है, तो हमारी बच्चियों को क्यों नहीं? फर्क बस इतना है कि वो मर गई और हमारी बच्चियों को तो इन पैसे वालों ने जीते जी मार डाला.’ इस बीच वे चारों लड़कियां मुंह ढककर तंबू के एक तरफ सो रही हैं.
वहीं तंबू के दूसरी और कुछ लोग ताश खेलकर वक्त गुजार रहे हैं. वैसे भी एक-दो दिन की बात हो तो समझ में आता है. यहां तो इंतजार लंबा नहीं बहुत लंबा है. ऐसे में अपने घर से दूर किसी टैंट के नीचे समय बिताना आसान बात नहीं है. हिम्मत कभी भी ‘इंसाफ’ और ‘जंग’ जैसे भारी शब्दों का साथ छोड़कर भाग सकती है.
और हां, एक छोटी सी बच्ची किरण भी है जो हर नए आने वाले के साथ दोस्ती गांठ रही है. जब उससे घर लौटने के बारे में पूछते हैं तो वह कहती है – अब यही हमारा घर है.

फोटोः विजय पांडे
सोनिया गांधी कब आएंगी?
कड़ी धूप में जंतर मंतर पर बजने वाले लाउड स्पीकरों के शोर के बीच उन चार लड़कियों में से एक शशि (नाम बदला हुआ) के पिता विजेंद्र बड़ी मासूमियत से मुझसे एक सवाल पूछते हैं ‘ये सोनिया गांधी कब आने वाली हैं? मैं पूछती हूं, ‘कहां?’ ‘अरे वो बाहर गई हुई हैं ना…वो और राहुल गांधी दिल्ली कब वापिस आएंगे? एक बार बस उनसे मिलना हो जाए.’
उनसे मिलकर क्या कहेंगे पूछने पर विजेंद्र कहते हैं ‘हम बस न्याय चाहते हैं. हमारी बस दो ही मांग हैं. सरपंच और बाकी बचे लोगों को गिरफ्तार करो और हमारे लिए कोई और ठिकाने का इंतजाम कर दो. हम वापिस गांव नहीं लौटना चाहते. क्या मुंह लेकर जाएंगे. इज्जत तो चली ही गई है. वहां लौटेंगे तो जो बची-खुची जान है उसे भी वो लोग ले लेंगे.’
Tehelka ka dhanyavad ise cover karne ke liye..lekin dukh ki baat hai ki Media in sab se bekhabar waki ‘jaroori’ khabaron ko cover karne mein laga hua hai….
rape case alag baat h
agar isme 4 jaat saamil the to iske liye sbhi jaaton ko jimmedaar nhi thahraya jana chahiye
jisne galat kaam kiya h use sjaa milegi hi
mirchpur ke doshi bhi sjaa bhugat rhe h