
चुनाव का मौसम है और तमाम राजनीतिक दल जीत के लिए हर हथकंडा अपनाने को बेकरार नजर आ रहे हैं. यह बहस भी जोरों पर है कि कौन सांप्रदायिक है, कौन नहीं. बात दंगों तक भी पहुंच रही है. हालांकि व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए ये बातें बार-बार एक सांप्रदायिक तनाव की उस स्मृति को ताजा कर रही हैं जो शायद मेरे जीवन की सबसे डरावनी यादों में शामिल है.
अयोध्या में वर्ष 1992 में घटी घटनाएं ऐसी रही हैं जिन्होंने मेरी मानसिकता को बहुत गहरे तक प्रभावित किया. कुछ रिश्ते रातों रात बदल गए लेकिन इसके बावजूद मैंने वह सब एक बाहरी के तौर पर ही महसूस किया था. लेकिन जुलाई, 2008 में इंदौर में कर्फ्यू के बीच बिताए चंद दिनों ने तो मेरी जिंदगी को हमेशा के लिए बदल दिया. उस दिन के बाद मैं वह रश्मि नहीं रह गई नही. सांप्रदायिक तनाव और हिंसा तथा कर्फ्यू की खबरें मेरे लिए उतनी सहज नहीं रह गईं जितनी सहजता से उनको आम पाठक पढ़ते हैं.
जुलाई के पहले सप्ताह की बात है. मैं भोपाल में अपनी मां का जन्मदिन मनाकर इंदौर पहु्ंची थी. ठीक उसी दिन मेरे पति भी मुंबई से इंदौर आए. उन्हें वहां नौकरी के लिए एक साक्षात्कार देना था. हम तकरीबन एक साथ इंदौर पहुंचे. हम जहां उतरे वहां से हमारा घर कुछ दूर था और हमने तय किया कि घर चलने से पहले पास ही रहने वाले एक दोस्त के यहां एक-एक प्याला चाय पीते हैं. हम दोस्त के यहां पहुंचे, दुआ-सलाम के बाद चाय और चर्चा का दौर शुरू ही हुआ था कि एक फोन आया. फोन हमारी खैरियत जानने के लिए था क्योंकि इंदौर के जिस इलाके में हमारा घर था वहां सांप्रदायिक तनाव फैलने के बाद कर्फ्यू लगा दिया गया था. हम सकते में थे क्योंकि वह हमारा अपना शहर था. धीरे-धीरे कर्फ्यू ने शहर भर को अपनी चपेट में ले लिया. हम जहां अपने दोस्त के घर कुछ घंटे बिताने की सोच कर आए थे, वहीं हमें चार दिन तक वहां रुकना पड़ा.