उपनिवेशवाद का प्रतिवादी

फोटोः रेयाज उल हक
फोटोः रेयाज उल हक
फेलिक्स पैडल: मूल देश इंग्लैंड. फोटोः रेयाज उल हक

उनके निजी जीवन के बारे में लिखना जितना मुश्किल है, उतना ही सहज है उनसे आदिवासियों और उनके संघर्षों के बारे में बात करना. पहली नजर में ही विनम्र और आत्मीय लग जाने वाले फेलिक्स जॉन पैडल को आप विकासवाद के सिद्धांत के जनक चार्ल्स डार्विन के वंशज के रूप में जान सकते हैं लेकिन वे इसपर बात करने में संकोच करते हैं. यह संकोच अपनी निजी जिंदगी के तथ्यों को बात करते हुए और बढ़ जाता है. हालांकि खनन व हथियार उद्योग के बीच रिश्ते, विश्व की सत्ता संरचना पर विश्व बैंक की हुकूमत, दुनिया की राजनीतिक नब्ज में दौड़ते कर्जे और भ्रष्टाचार को पहचानने की कोशिश करते हुए वे बहुत आसानी से आपको उस दुनिया में ले जाते हैं जो इंसानों के शोषण के लिए विकसित की जा रही है.

फेलिक्स उसी लंदन जन्मे और पलेबढ़े हैं जहां मौजूद लंदन मेटल एक्सचेंज दुनिया के खनिज व्यापार और इसके साथ ही हथियारों के निर्माण की एक अहम कड़ी है. और इसीलिए फेलिक्स की दिलचस्पी भारत में जगी जहां दुनिया के सबसे पुराने समुदाय बसते हैं. जहां की खनिज संपदा पर पूरी दुनिया के कॉरपोरेट जगत की निगाह शुरू से रही है. वे याद दिलाते हैं कि किस तरह हिटलर या उसके एक धातुविज्ञानी ने कहा था, ‘जिसका ओडिसा के लोहे पर कब्जा होगा वह दुनिया पर कब्जा कर सकता है.’

फेलिक्स उस भारत के बारे में सुनते आए थे जहां की संपदा और संसाधनों पर ब्रिटेन का साम्राज्य खड़ा था. एक ब्रिटिश मनोविश्लेषक जॉन हंटर पैडल और हिल्डा बर्लो, हिल्डा चार्ल्स डार्विन की परपोती थीं, के बेटे फेलिक्स को भारत के संसाधन और ब्रिटिश समाज की संपन्नता के बीच के संबंध हमेशा से अपनी ओर खींचते थे. उनके चिंतन का केंद्र यह भी रहा कि आखिर समाज कैसे बनते हैं. उनके बीच फर्क कैसे आते हैं.

इन सवालों के जवाब की तलाश करते हुए फेलिक्स खनन की दुनिया तक पहुंचे जहां उनकी नजर एंथ्रोपोलॉजिस्ट यानी मानवशास्त्री की थी. उन दिनों वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के छात्र थे और गंभीरता से खनन उद्योग और मानव समाजों पर इसके प्रभावों का अध्ययन करना चाहते थे. उनकी क्लास में पढ़ने वाले उनके एक दोस्त अमिताभ घोष (जिन्होंने सी ऑफ पॉपीज और द हंगरी टाइड जैसे उपन्यास लिखे हैं) ने सलाह दी कि ऑक्सफोर्ड के समाजशास्त्र के अध्यापक बस दिमागी खेल खेलते रहते हैं अगर गंभीरता से पढ़ाई और अध्ययन करना है तो दिल्ली विश्वविद्यालय जाना चाहिए.

भारत में आने के फैसले ने उनके जीवन की दिशा बदल दी. या कहें कि एक तरह से तय कर दी. 1979 में एक छात्र के रूप में भारत आने वाले फेलिक्स हमेशा के लिए भारत में बस जाने वाले थे. हालांकि तब वे यह बात नहीं जानते थे. तब तो उन्हें मानवशास्त्र के एक उत्सुक और उत्साही छात्र के रूप में शोध करना था. उन आदिवासी समुदायों के बीच रहना था जो पिछली अनेक शताब्दियों से उस जमीन पर रहते आ रहे थे जिसके नीचे अथाह खनिज भंडार था. ये वे समुदाय हैं जिनकी जिंदगी की बुनियादी गतिविधियां जिन प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं, वे आधुनिक उद्योगों और युद्धों के लिए महत्वपूर्ण बनते जा रहे थे.

दिल्ली विश्वविद्यालय में उन्हें जेपीएस ओबरॉय और वीणा दास जैसे अध्यापक मिले जिन्होंने आदिवासी समाजों और उनमें प्रचलित रीति-रिवाजों को समझने में मदद की. फेलिक्स ने अपने अध्ययन की शुरुआत आदिवासी समाज और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के बीच के एक अजीब-से अंतर्विरोध से की. ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने जिन आदिवासी इलाकों पर कब्जा किया उनमें धरती को संतुष्ट करने के लिए इंसानों की बलि दी जाती थी. पश्चिमी समाज के लिए यह अमानवीय, बर्बर जीवनशैली थी. लेकिन फेलिक्स ने इस पर गौर किया कि इसके बावजूद यह रिवाज कम से कम इंसानी जिंदगी की पवित्रता और इसके महान मूल्य की तरफ इशारा करता है. उन्होंने देखा कि आधुनिक कहे जाने वाले समाजों में हिंसा का स्तर कहीं ज्यादा है. उनके मुताबिक, ‘एक मुट्ठी भर अभिजात वर्ग के मुनाफे के लिए चलाए जा रहे युद्ध और हथियारों के उद्योग और कारोबार जिस तरह टकरावों को बढ़ावा देते हैं वे न सिर्फ समाज पर हिंसा को थोपते हैं बल्कि वे इंसानी जिंदगी की महत्ता को भी पूरी तरह नकारते हैं. इस तरह पश्चिमी समाजों से पैदा हुई ताकत और अधिकार दूसरी संस्कृतियों के लोगों को सभ्य बनाने के नाम पर उन पर थोपे जाते हैं. इस पूरी प्रक्रिया में जो क्रूरता और अमानवीयता शामिल होती है, वह इंसानी बलि से कई गुणा अधिक है.’

फेलिक्स ने अपने शोध को ओडिशा के कोंड आदिवासी समुदाय पर केंद्रित किया और इस समाज पर ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रभावों की कई पहलुओं से पड़ताल की. इस शोध के लिए वे आदिवासी समुदायों के बीच कई वर्षों तक रहे और इस दौरान वे एक छात्र या शोधकर्ता के बतौर नहीं बल्कि आदिवासियों से सीखने और उन्हें समझने की ललक के साथ गए. वे अपने उस देश की क्रूरताओं और अमानवीय शोषण से रूबरू थे जिसका साम्राज्य दुनिया को सभ्य बनाने के अभियान पर था और हर उस चीज का प्रतिनिधि और मालिक होने का दम भरता था जो दुनिया में अच्छी और महत्वपूर्ण थी. फेलिक्स 1830 से 1860 के दशकों के बीच औपनिवेशिक हमले में कोंड आदिवासी समुदाय के दर्जनों गांवों को तबाह किए जाने और अनगिनत हत्याओं की यादों को जी रहे समुदाय के साथ अपने दिन और रातें बिता रहे थे.

फेलिक्स ने आदिवासी समाज को ही क्यों चुना? वे हंसते हैं, ‘इसके लिए आदिवासी इलाकों को लेकर ब्रिटिश औपनिवेशिक आकर्षण जिम्मेदार है. मेरे मन में हमेशा यह सवाल उठता रहा कि ब्रिटिश लोग भारत में शासन करने क्यों आए? और भारत में भी हमेशा वे आदिवासी इलाकों को अपने कब्जे में लाने की कोशिश क्यों करते रहे? और क्यों वे कभी इन इलाकों पर पूरा कब्जा नहीं जमा पाए? आदिवासियों से मेरे लगाव की यह वजह थी, यह बात भी मुझे उनकी तरफ खींचती थी कि आखिर वह क्या था, जिसकी वजह से आदिवासियों ने कभी अपना संघर्ष नहीं छोड़ा और हमेशा लड़ाई जारी रखी.’

एक बार आदिवासी इलाके में लंबा समय गुजार लेने के बाद फेलिक्स को बार-बार वे गांव अपनी तरफ खींचते रहे. भारत में अपने निवास के बीसवें साल में वे स्थायी रूप से ओडिशा में बस गए- अपनी उड़िया आदिवासी पत्नी के साथ रायगढ़ा जिले के एक दूर-दराज के गांव में. अपने आलोचकों और कार्यकर्ताओं के प्रति मौजूदा सरकारों के दमनकारी तौर-तरीकों के कारण फेलिक्स इस गांव की पहचान को आम करने से बचते हैं.

लेकिन ओडिशा के इन गांवों में रहते हुए उन्होंने दुनिया में सत्ता के सारे तौर- तरीकों को पहचानने की कोशिश की है. वे बताते हैं, ‘दुनिया में सत्ता की संरचना जिस तरह काम करती है उसे आप आदिवासी इलाकों में बहुत आसानी से पहचान और समझ सकते हैं. यहां की पुलिस, एनजीओ, मिशनरियों और व्यवस्था के दूसरे अंगों का जो रवैया होता है वह दुनिया की सत्ता संरचना के वास्तविक चरित्र का प्रतिनिधित्व करता है.’ दुनिया पर शासन कर रहा सत्ता तंत्र तरक्की को अपने हरेक कदम के जायज तर्क के रूप में पेश करता है. लेकिन एक मानवशास्त्री के रूप में वे तरक्की के इस दावे पर शक करते हैं. इसके लिए इतिहास भी उन्हें काफी ताकत मुहैया कराता है जिसमें तरक्की के साथ जोड़ी जाने वाली सारी सभ्यताएं असल में युद्धों और हथियारों के कारोबारों के दम पर स्थापित हुई थीं- चाहे वह रोमन सभ्यता हो या यूनानी सभ्यता. तब से लेकर आज तक हर साल युद्धों और लड़ाइयों में अथाह पैसा खर्च किया जाता है और इसे तरक्की के तर्क के साथ जायज ठहराया जाता है.

फेलिक्स दलील देते हैं, ‘यह कैसी तरक्की है, जिसमें सीआरपीएफ आदिवासियों को मारती है उनकी जान ले लेती है और उनको यह तक भरोसा नहीं है कि वह पुलिस या अदालत के पास जाएगा तो उन्हें इंसाफ मिलेगा? विकास तो तब कहा जाएगा जब आदिवासी को ऐसा यकीन हो. अभी तो आदिवासी इस कथित विकास की कीमत चुका रहे हैं. रास्ते और कारखाने बनाने को तरक्की बताया जा रहा है, जबकि ये गरीबों को और गरीब बनाते हैं.’

अपने शुरुआती अध्ययन में आदिवासी समुदायों पर गौर करने के बाद अब फेलिक्स दुनिया की अर्थव्यवस्था, हथियार उद्योग और खनन उद्योग के आपसी रिश्ते और पर्यावरण आदि मुद्दों पर गहरे अध्ययन में लगे हैं. वे इसे साफ करते हैं कि कैसे विकास की मौजूदा राजनीति के पीछे बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां और विश्व बैंक की लुटेरी नीतियां हैं जो दुनिया भर के देशों को कर्जे में उलझा कर जनता और उसके संसाधनों को लूट रही हैं. उनका मानना है कि विश्व बैंक दुनिया की सत्ता संरचना को कर्जे के जरिए नियंत्रित करता है. वह इसके लिए निजीकरण को एक जरूरी औजार के रूप में इस्तेमाल करता है और भ्रष्टाचार का मुद्दा इसमें एक अहम भूमिका निभाता है. वे एक मिसाल देते हैं, ‘मान लीजिए विश्व बैंक के लोग अगर भुवनेश्वर आएंगे तो वे यहां के स्वास्थ्य मंत्रालय में भ्रष्टाचार को खोजेंगे. कहेंगे कि स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण कर दीजिए. लेकिन वे कभी नहीं देखेंगे कि खनन उद्योग में काम कर रही निजी कंपनियों में कितना भ्रष्टाचार है.’

यह फेलिक्स का शोध ही था जिसने कुछ साल पहले बॉक्साइट, जिसके अयस्क से अल्युमिनियम बनता है, के खनन के लिए वेदांता कंपनी द्वारा नियामगिरी पहाड़ की खुदाई का विरोध कर रहे कार्यकर्ताओं के पक्ष में मजबूत दलीलें मुहैया करवाई थीं. इस शोध में फेलिक्स ने दिखाया है कि किस तरह बमबार हवाई जहाजों, एटम बमों और दूसरी युद्ध सामग्री के निर्माण में अल्युमिनियम सबसे महत्वपूर्ण धातु है और आज के युद्ध बिना अल्युमिनियम के मुमकिन नहीं हैं.

फेलिक्स के अध्ययन को पेश करने वाली तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं- पहली किताब सैक्रिफाइसिंग पीपुल है, जो उनके डॉक्टरल शोध का संशोधित रूप है. दूसरी किताब आउट ऑफ दिस अर्थ है, जिसमें अपने सह लेखक समरेंद्र दास के साथ मिलकर फेलिक्स ने अल्युमिनियम की बढ़ती मांग, हथियार उद्योग और बॉक्साइट के खनन के कारण उत्तरी भारत के आदिवासियों की जिंदगी की तबाही के बारे में बताया है. तीसरी किताब इकोलॉजी इकोनॉमी है, जो उन्होंने अजय दांडेकर और जीमोल उन्नी के साथ मिलकर लिखी है. इसमें पर्यावरण के लिहाज से बेहतर अर्थव्यवस्था की तलाश की गई है.

फेलिक्स एक स्वतंत्र मानवशास्त्री के रूप में व्याख्यान देते हैं, निबंध लिखते हैं और एक कार्यकर्ता के रूप में आदिवासियों के बीच भी रहते हैं. साथ ही, उनको संगीत का बेहद शौक है और वे बहुत अच्छी सांगीतिक प्रस्तुतियां भी देते हैं. उन्हें वायलिन पर बॉब डेलान के उन गीतों को गाते हुए सुना जा सकता है जिनमें गैरबराबरी और नाइंसाफी के खिलाफ गुस्से की गूंज है. और लगभग हर बार उनका यह गुस्सा भारत में युद्धों, बड़े बांधों, खनन, विस्थापन और जनसंहारों के खिलाफ आवाजों के साथ जुड़ जाता है.

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