केंद्र सरकार की पहल पर देश भर में 22वें विधि आयोग द्वारा समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को लागू करने की बात हो रही है। यूसीसी लागू करने का देश भर के आदिवासी समुदायों और मुस्लिम लॉ बोर्ड ने कड़ा विरोध दर्ज कराया है। आदिवासियों का कहना है कि यूसीसी से उनकी संस्कृति, उनके रीति-रिवाज़ और उनके अधिकारों का हनन होगा। एक अनुमान के मुताबिक, अभी तक पूरे देश से 15 लाख से ज़्यादा आपत्तियाँ यूसीसी के विरोध में आदिवासियों द्वारा ऑनलाइन जमा की गयी हैं। देश भर के कई राज्यों, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, असम, अरुणाचल प्रदेश एवं अन्य राज्यों में यूसीसी का विरोध जनसभाएँ करके, रैलियाँ करके, ज्ञापन देकर एवं लॉ कमीशन के वेबसाइट व ईमेल [email protected] पर आपत्तियाँ भेजकर आदिवासी समुदाय कर रहे हैं।
आदिवासियों के मुताबिक, यूसीसी उनके रीति-रिवाज़ों, उनकी परंपराओं, पद्धतियों, उनके प्रथागत क़ानूनों, स्वशासी क़ानूनों, पहचान एवं अधिकारों के ख़िलाफ़ है। संविधान में उनके सभी मूल्यों को विशेष संरक्षण मिला हुआ है, जो कि यूसीसी के आने पर समाप्त हो सकता है; इसकी आशंका है। आदिवासी समाज का कहना है कि यूसीसी देश की विविधता में एकता पर गंभीर चोट करेगा और देश के समक्ष एक बड़ी संवैधानिक संकट पैदा करेगा।
इस बारे में मनावर विधायक डॉ. हिरालाल अलावा ने भारतीय विधि आयोग (22वीं) के सदस्य सचिव को ज्ञापन सौंपा है। इस ज्ञापन में विधायक हिरालाल अलावा ने लिखा है कि आदिवासी समाज के अपने रीति-रिवाज़ और परंपराएँ हैं और उन्होंने अपनी सामाजिक और राजनीतिक प्रणालियाँ विकसित की हैं। वे अपने स्वयं के प्रथागत क़ानून से अपने सामाजिक जीवन को नियंत्रित करते हैं। उनकी सांस्कृतिक विशिष्टता विविध भाषा, लिपि, पोशाक, नृत्य, संगीत, सामाजिक व्यवस्था, भोजन, रीति-रिवाज़ों और परंपराओं आदि में प्रकट होती हैं। ऐसी विविधताओं के बावजूद वे व्यापक भारतीय संस्कृति में विविधता में एकता के परिचायक हैं। ज्ञापन में उन्होंने आगे लिखा है कि विवाह के सम्बन्ध में आदिवासियों के विभिन्न प्रथागत क़ानून हैं। डॉ. अलावा ने सभी आदिवासी समुदायों की विवाह पद्धतियों का भी ज्ञापन में ज़िक्र किया है। उन्होंने कहा है कि आदिवासी समाज में विधवा और विधुर दोनों के लिए पुनर्विवाह के विकल्प मौज़ूद हैं। तलाक़, पुनर्विवाह के लिए विभिन्न जनजातियों में अलग-अलग रिवाज़ हैं।
इसके अतिरिक्त विधायक हिरालाल अलावा ने कहा है कि भारत के सभी आदिवासी समुदायों में उत्तराधिकार/विरासत की पद्धति भी का$फी विविधतापूर्ण है। अधिकांश पैतृक वंशानुक्रम का तो कुछ मातृवंशीय पद्धति का पालन करते हैं। जबकि कुछ पितृवंशीय-मातृवंशीय के अपवाद भी हैं, जिसे द्विपक्षीय पद्धति कहते हैं। आदिवासियों में संपत्ति की अवधारणा बहुत कठोर है। चल संपत्ति में मवेशी, धान, धन, कपड़े, आभूषण, कृषि उपकरण, आदि शामिल हैं। जबकि अचल संपत्ति में मुख्य रूप से भूमि, खड़े पेड़, कुएँ, टैंक, तालाब आदि शामिल हैं। इस मामले में भी उन्होंने अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग रीति-रिवाज़ों का ज़िक्र किया है और क़ानूनी पेच फँसने की वजह भी बतायी है।
उन्होंने टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य मामलों में सुप्रीम कोर्ट के बयान को कोट किया है, जिसमें कहा गया है कि ‘भारत में धर्मनिरपेक्षता का सार विभिन्न भाषाओं और विभिन्न मान्यताओं वाले विभिन्न प्रकार के लोगों की मान्यता और संरक्षण है, और उन्हें एक साथ रखना है, ताकि सम्पूर्ण अखण्ड भारत का निर्माण करना है। इस प्रकार एक एकजुट राष्ट्र में आवश्यक रूप से एकरूपता की आवश्यकता नहीं है, यह मानवाधिकारों पर कुछ सार्वभौमिक और निर्विवाद तर्कों के साथ विविधता का सामंजस्य बना रहा है।’
डॉ. अलावा ने कहा है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसकी वैधता को स्वीकार किया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-15(4) के तहत आदिवासी समुदाय की परंपराओं, रूढिय़ों, रीति-रिवाज़ों एवं विवादों को निपटाने की पद्धतियों को मान्यता दी गयी है और उसका संहिताकरण कर रूढिज़न्य विधि संहिता का प्रावधान है। संविधान की 5वीं अनुसूची एवं 6वीं अनुसूची में दिये गये विशेष प्रावधानों के अनुसार महामहिम राष्ट्रपति या राज्यों के महामहिम राज्यपालों को रूढिज़न्य विधि संहिता को क़ानूनी स्वरूप दिये जाने का अधिकार है। आदिवासियों के परंपराओं, रूढिय़ों, रीति-रिवाज़ों, विवाह, जन्म-मृत्यु संस्कार, उत्तराधिकार एवं प्रथागत क़ानूनों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद-13(3)(क) में भी मान्यता दी गयी है। आदिवासी समुदाय संविधान के अनुच्छेद-244 की 5वीं और 6वीं अनुसूची के तहत संरक्षित है। यूसीसी इसके ख़िलाफ़ है। डॉ. हिरालाल अलावा ने अपने ज्ञापन पत्र में कहा है कि देश के 16 राज्यों में लगभग 75 से अधिक विशेष रूप से कमज़ोर जनजाति समूह आदिम जनजातियों के उत्थान एवं विकास के लिए भारतीय संविधान में संसद एवं विधानमंडलों के नियम-क़ानूनों में विशेष प्रावधान किये गये हैं। भारत की संसद द्वारा पारित पेसा क़ानून-1996 की धारा-4(क), (ख), (ग) और (घ) में जनजातीय समुदाय से सम्बन्धित प्रावधानों की ओर ध्यान खींचते हुए कहा है कि संविधान के भाग-9 के अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी किसी राज्य का विधान-मंडल उक्त भाग के अधीन ऐसे कोई विधि नहीं बनाएगा, जो निम्नलिखित विशिष्टियों में से किसी से असंगत हो, अर्थात् (क) पंचायतों पर कोई राज्य विधान जो बनाया जाए रूढिज़न्य विधि, सामाजिक और धार्मिक पद्धतियों और सामुदायिक संपदाओं की परंपरागत प्रबंध पद्धतियों के अनुरूप होगा। (ख) ग्राम साधारणतया आवास या आवासों के समूह अथवा छोटा गाँव या छोटे गाँवों के समूह से मिलकर बनेगा, जिसमें समुदाय समाविष्ट हो और जो परंपराओं तथा रूढिय़ों के अनुसार अपने कार्यकलापों का प्रबंध करता हो। (ग) प्रत्येक ग्राम में एक ग्राम सभा होगी, जो ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनेगी, जिनके नामों का समावेश ग्राम स्तर पर पंचायत के लिए निर्वाचक नामावलियों में किया गया है। (घ) प्रत्येक ग्राम सभा, जनसाधारण की परंपराओं और रूढिय़ों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संपदाओं और विवाद निपटान के रूढिक़ ढंग का संरक्षण और परिरक्षण करने में सक्षम होगी।
विधायक डॉ. हिरालाल अलावा ने कहा है कि यूसीसी लाने की योजना पेसा क़ानून 1996 के हित में भी नहीं है। आदिवासी राज्य नागालैंड को अनुच्छेद 371(ए), मिजोरम को अनुच्छेद 371(जी) समेत अन्य कई राज्यों को प्रथागत क़ानूनों पर विशेष सुरक्षा दी गयी है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति के रूप में अधिसूचित किया गया है। वर्तमान में देश में 10 राज्यों में अनुसूचित क्षेत्र चिह्नित हैं। चार राज्यों में ट्राइबल क्षेत्र चिह्नित हैं। इन राज्यों के अलावा अन्य राज्यों में भी आदिवासी बहुल क्षेत्रों को विशेष रूप से चिह्नित किया गया है। ज्ञापन में कहा गया है कि अनुच्छेद-275(1) जनजातीय उपयोजना के तहत आदिवासियों के लिए अलग बजट का प्रावधान है। अनुच्छेद-244(1) पाँचवी अनुसूची के तहत कोई भी क़ानून अनुसूचित क्षेत्र में आदिवासियों के परंपरा, प्रथागत क़ानून, रीति-रिवाज़, इत्यादि में हस्तक्षेप नहीं करेगा। ऐसे में इसकी उपेक्षा कर यूसीसी लागू करने से संवैधानिक संकट पैदा होगा। डॉ. हिरालाल अलावा के अतिरिक्त आदिवासी समन्वय समिति, झारखण्ड के पदाधिकारी देव कुमार धान ने भी एक ज्ञापन जारी कर यूसीसी पर आपत्ति दर्ज करायी है। आदिवासियों के पारंपरिक, सामाजिक, धार्मिक संगठन राजी पाड़हा ने देश के आदिवासियों से यूसीसी के विरोध का आह्वान किया है। वहीं राष्ट्रीय आदिवासी एकता परिषद ने आदिवासियों से 7 अगस्त को भारत बन्द करने का आह्वान किया है।