सिक्के खनकते हैं, लेकिन जब उनकी कीमत बढ़कर उन्हें नोटों में बदल देती है तब वे आवाज नहीं करते. करते भी हों, उन्हें आवाज करनी तो नहीं चाहिए.
अमिताभ बेशकीमती हैं. वे अपनी लोकप्रिय विनम्र शैली में इसे कहेंगे कि वे कुछ नहीं हैं और उन्हें बेशकीमती बना दिया गया है. मगर किसी खामखयाली में मत रहिए. वे हमेशा इतने विनम्र नहीं रहते. वे भूलते नहीं और न ही माफ करते हैं. चटपटी खबरों की तलाश में रहने वाले मुंबई मिरर के एक पत्रकार ने एक हड़बड़ी वाली दोपहर में जब ऐश्वर्या को टीबी होने की खबर लिखी तो उसे इसका अंदाजा नहीं था. किसी गलतफहमी में वह अमिताभ के गुस्से को भूल गया होगा या उन्हें बूढ़ा मानकर बेफिक्र रहा होगा.
मगर यह 1996 नहीं है, जब उदास और हारे हुए से एक इंटरव्यू के बीच में एक पत्रकार ने अमिताभ से अचानक पूछा कि वे कितना काम और करेंगे. उनका उत्तर था, ‘दो साल और. मैं बूढ़ा हो रहा हूं और हमेशा इस गति से काम नहीं कर सकता.’
तब वे 54 साल के थे और उन्हें लग रहा था कि अपनी निरंतर कम होती क्षमताओं के साथ वे ज्यादा दिन तक लोगों की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाएंगे.
इस बात को चौदह साल बीत चुके हैं और आज भी उन्हें बूढ़ा कहना, बुढ़ापे को असीम ऊर्जा, रफ्तार और अटूट इच्छा-शक्ति का पर्याय बनाने जैसा है. यह अदम्य उत्साह शायद इलाहाबाद में बीते बचपन की उन गर्मियों से निकला है, जब वे दोपहर की लू में साइकिल पर घर लौटते थे और सुराही का ठंडा पानी, एक टेबल फैन या खस की चटाई ही सबसे आरामदेह चीजें हुआ करती थीं. आज ‘प्रतीक्षा’ में अपनी उपलब्धियों पर गर्व करते हुए जब वे अपने मैक पर टाइप कर रहे होते हैं तब उन्हें जुबान पर डाक टिकट फिराकर उसे चिट्ठी पर चिपकाने वाले दिन भी उसी शिद्दत से याद आते हैं.
‘आप परिवार के पुरुषों के बारे में कुछ कहेंगे तो मैं सहन भी कर लूंगा, लेकिन अपने परिवार की औरतों के बारे में एक शब्द भी नहीं ‘
यही बात है जो उन्हें उस विशालता से अलग करती है जो हमारे महानायकों को हमसे कई हाथ ऊंचे सिंहासन पर बिठा देती है और हम उन्हें बिलकुुल सामने से कभी नहीं देख पाते. वे हमारे पिताओं और बच्चों दोनों को अपने दोस्त-से लगते हैं. हम जादुई सचिन या प्रतिभावान शाहरुख से चाहकर भी वह स्नेहिल पारिवारिक रिश्ता नहीं जोड़ पाते, जो अमिताभ से अपने आप जुड़ जाता है. लेकिन क्या इस रिश्ते का भ्रम जान-बूझकर रचा गया है और हम एक बड़े खेल का बेवकूफ-सा हिस्सा भर हैं?
कुछ लोगों का मानना है कि वे हमेशा से इतने अपने नहीं लगते थे और अपनी सबसे नई पारी में उन्होंने यह नया व्यक्तित्व जान-बूझकर रचा है. मतलब यह कि बहुत सारी असफलताओं के बाद दिखा उनका यह सार्वजनिक चेहरा भी शहंशाह या ऑरो की तरह एक किरदार है, जिसे वे पूरी लगन के साथ निभा रहे हैं.
जो भी हो, हम सब उस अपनेपन को नहीं खोना चाहते. इसलिए हमें वह रास्ता खोजना था जिससे हम उनके मन की कुछ और तहों तक पहुंच सकें. अमिताभ ने कहीं लिखा है कि उनका लिखना, उनके अस्तित्व को अर्थ देता है. सो हमने भी उनके ब्लॉग पर लिखे हुए की उंगली थामी और उसमें छिपे अर्थों के जरिए उन्हें एक व्यक्ति के रूप में जानने की कोशिश की.
अमिताभ को जानना सिर्फ उन्हें जानना नहीं है. वे हमारे पूरे दौर की परिभाषा से कहीं न कहीं जुड़े हुए हैं. उन्हें जानना चूर-चूर होकर बिखर जाने के बाद फिर से पहाड़ पर चढ़ने के ख्वाब को देखने जैसा है. उन्हें जानना एक चोटिल अभिनेता के लिए एक धार्मिक देश की असंख्य दुआओं को महसूस करना है और इस तरह घोर मसाला फिल्मों के प्रति एक रूढ़िवादी समाज की रोचक आस्थाओं को जानना है. उन्हें जानना भारत की राजनीति के उलझे काले रहस्यों को जानना भी है. उन्हें जानना भारत की संकल्पना के उस जिद्दी स्वप्न को देखने जैसा भी है जो तमाम विषमताओं के बावज़ूद अपनी राह पर बढ़ते रहने का हौसला देता है. उन्हें जानना उस मध्यवर्गीय भारत को जानने जैसा है जो एक लॉटरी के टिकट या एक घंटे के टीवी शो के माध्यम से अपनी तकदीर बदल देना चाहता है.
उनके काम को छोड़ दिया जाए तो वे किसी रिटायर्ड कस्बाई अध्यापक की तरह ही लगते हैं. ब्लॉग पर आम बातों के बीच में वे अचानक दार्शनिक हो जाते हैं, गुस्से में बहुत डांटते हैं और कभी-कभी बहुत दुलारते भी हैं. इस उम्र में उन्हें अपने पिता बहुत याद आने लगे हैं और अपनी सीमाओं में वे हम सबके लिए बहुत फिक्रमंद हैं. कम से कम ऐसा कहते तो हैं ही.

घर-परिवार
पारिवारिक सदस्य के रूप में यदि अमिताभ की तुलना किसी फिल्मी चरित्र से करनी हो तो नब्बे के दशक की सुपरहिट फिल्मों में आलोकनाथ और अनुपम खेर द्वारा निभाए गए किरदार याद आते हैं. वे एक समृद्ध परिवार के मुखिया हैं. ऐसा परिवार जिसके पास पांच पद्म सम्मान हैं. वे किसी सामान्य भारतीय से ज्यादा आस्तिक हैं. ‘मोहब्बतें’ के सख्त पिता के उलट वे प्यार के बीच में नहीं खड़े होते. उनका सबसे पहले नजर में आने वाला गुण विनम्रता है (कभी-कभी गुस्सा भी), विनम्रता इतनी ज्यादा कि कभी-कभी बनावटी भी लगती है. वे उत्सवप्रिय हैं. वे अपनी समधिन का जन्मदिन मनाने पूरे परिवार के साथ डिनर पर जाते हैं. वे अपने बच्चों के दोस्त और आदर्श हैं. वे अपनी बहू को बेटी जैसा मानते हैं और इस तरह बेटे जैसा भी, क्योंकि भारत में बेटियों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ का यह राजदूत बार-बार स्त्री-पुरुष समानता के पक्ष में खड़ा होता है (मुंबई मिरर और दूसरे अखबारों की उन खबरों के बावजूद जिनमें बार-बार कहा जाता है कि अमिताभ पोता पाने के लिए बेताब हैं). बहुत-से पुरुषों की तरह वे मानते हैं कि अपनी पत्नी में वे मां का अक्स भी तलाशते और पाते रहते हैं.
वे अपने पुराने दोस्त राजीव गांधी का उतना ही कम जिक्र करते हैं जितना अपने भाई अजिताभ का
उन फिल्मी किरदारों से समानताएं यहीं खत्म नहीं होतीं. यदि आप परिवार के किसी भी सदस्य को कुछ गलत कहते हैं तो अमिताभ दुर्भेद्य सुरक्षा-कवच की तरह सामने आ खड़े होते हैं. उन्हें इतना गुस्सा आता है कि अकसर वे फिर से पारंपरिक भारतीय मर्द का चोला पहन लेते हैं और कहते हैं, ‘आप परिवार के पुरुषों के बारे में कुछ कहेंगे तो मैं सहन भी कर लूंगा, लेकिन अपने परिवार की औरतों के बारे में एक शब्द भी नहीं.’
परिवार की दो औरतों, जया और श्वेता के बारे में आम तौर पर कोई उल्टा-सीधा नहीं कहता, लेकिन उनकी विश्व-सुंदरी को (वे स्नेह और क्रोध, दोनों के अतिरेक में ये ही शब्द इस्तेमाल करते हैं- ‘मेरी विश्व सुंदरी’) अफवाहों से बचाकर रखना इतना आसान नहीं. कभी उन्हें मांगलिक बताया जाता है और यह भी कि उनकी ग्रह-दशा शांत करवाने के लिए पूरा बच्चन परिवार मंदिरों में घूम रहा है और कभी यह कहा जाता है कि उन्हें पेट की टीबी है और इस कारण वे गर्भवती नहीं हो पा रहीं.
वे बार-बार सफाई देते हैं, क्रोध में दहाड़ते हैं और कभी-कभी अंधविश्वास के पैरोकार बड़े अखबारों के दफ्तरों में जाकर उनके पचासों संपादकों को समझाते भी हैं कि उन्होंने ऐश्वर्या की शादी कभी किसी पेड़ से नहीं करवाई. लेकिन कोई फायदा नहीं होता. वह बहू, कान्स में उन्हें जिसके नाम से जाना जाता है, हिंदी फिल्मों की एक अभिनेत्री है और उसे मसाला खबरों की खुराक बनना ही पड़ता है.
परिवार के सदस्यों में अभिषेक और ऐश्वर्या के नाम उनके ब्लॉग पर सबसे ज्यादा दिखते हैं. हां, पिता हरिवंशराय बच्चन से थोड़ा कम. मां का जिक्र सबसे कम होता है. यह बात और है कि आजकल उनकी आस्थाएं मां के सिख धर्म की ओर मुड़ने लगी हैं. मां को कम याद करने की बात इस फिल्मी संदर्भ में मजेदार है कि अपनी जवानी में उन्होंने हिन्दी फिल्मों को ऐसे कई हीरो दिए हैं जो अपनी मां को बहुत प्यार करते थे और पिता के बारे में कम जानते थे. मगर यह याद इतनी कम भी नहीं क्योंकि उदयपुर के भीड़ भरे बाजारों से गुजरते हुए अचानक मां का आईसीयू में जिंदगी और मौत से चला संघर्ष आंखों के आगे घूम जाना इतना अनायास भी नहीं हो सकता.
सिख धर्म की ओर झुकाव होने, गले में गुरु नानक देव जी के लॉकेट पहनने और सच्चे बादशाह से ऊर्जा पाने की बात 1984 में सिख-विरोधी दंगे भड़काने के ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट्स फेडरेशन के आरोपों को धीमे जहर की तरह खत्म करती है. वैसे अमिताभ कहते हैं कि वे आम खूबियों वाले आम आदमी हैं और उनकी बातों के गहरे अर्थ न तलाशे जाएं.
उन्हें आंगन बहुत प्यारा है और उसमें नीम का पेड़ भी हो तो उन्हें उसमें खो जाने से रोकना और भी मुश्किल हो जाता है. जया का जिक्र वे दिल्ली के अपने घर ‘सोपान’, आंगन और नीम से बस थोड़ा ही ज्यादा करते होंगे.
सच्चाई, स्वतंत्रता, पारदर्शिता और प्रतिभा के सम्मान की बातें वे बार-बार करते हैं, मगर बॉलीवुड में बढ़ते वंशवाद की कभी नहीं करते. शायद उन्हें इकतीसवें दिन की अपनी पोस्ट पर अभिषेक का वह कमेंट याद आ जाता होगाे जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘मैं आपसे प्यार करता हूं. वैसा होने के लिए जो आप हैं- दुनिया के सबसे अच्छे पिता..’
कभी-कभी अच्छा पिता होने के लिए बाकी बातों को भूल जाना पड़ता है. और आप हैं कि हर बात में नुक्स तलाशते हैं.
मीडिया
1997 के पहले अंक में आउटलुक की आवरण कथा थी. पिछले वर्ष के खलनायक. उसमें अमिताभ बच्चन छठे स्थान पर थे. ये वे साल थे जब उनकी कंपनी एबीसीएल उन्हें कर्ज में डुबाकर डूब गई थी. उस कर्ज में एक बड़ा हिस्सा दूरदर्शन का भी था और देश के हर चौराहे पर कहा जा रहा था कि अमिताभ का सुनहरा दौर अब खत्म हो गया है. मीडिया शत्रुघ्न सिन्हा के उन बयानों को गर्व से छाप रहा था जिनमें कहा गया था कि वे सिर्फ कट-आउट में ही अच्छे लगते हैं, असल में नहीं. हर दौर में उन्होंने गलत कहानियां और निर्देशक ज्यादा चुने हैं और यह वे तब भी कर रहे थे और असफल हो रहे थे. अपने करियर को उठाने के लिए उन्हें गोविंदा की फूहड़ कॉमेडी का सहारा लेना पड़ रहा था. नसीरुद्दीन शाह के मुताबिक वे दुनिया के इकलौते ऐसे एक्टर हैं जो हमेशा अपनी फिल्मों से ज्यादा स्तरीय थे. अमिताभ हताश दिखते थे और टीवी पर साजिद खान उन्हें राष्ट्रीय मजाक बनाकर मशहूर होने की कोशिश में लगे हुए थे. इस हाल से बाहर आने के लिए वे मिरिंडा का विज्ञापन करते थे तो देश भर को वे अपने गरिमामयी शिखर से गिरते हुए नजर आते थे. अखबार और पत्रिकाएं ईश्वर के अंदाज में यह घोषणा कर रहे थे कि अमिताभ नाम का सितारा मिस वर्ल्ड के तंबुओं की तरह टूटकर गिर गया है. मिस इंडिया करवाने वाला अखबार मिस वर्ल्ड के आयोजन के उनके इरादों को देखकर कुछ अधिक भारतीय हो गया था और उन्हें संस्कृति के पाठ पढ़ाने लगा था. उन्हीं दिनों में एक बार बहुत धीमे स्वर में उन्होंने कहा था, ‘मुझे उम्मीद है कि अगले दस साल में भारतीय कुछ अधिक उदार हो जाएंगे.’ लेकिन वे कभी उदार नहीं हुए बल्कि हमेशा या तो सनकी भक्त रहे या कटु आलोचक.
पिता ही हैं जिनके लिखे ‘सिलसिला’ और ‘बागबान’ के होली वाले गीत होली के दिन सड़कों पर सुनकर अमिताभ का सीना चौड़ा हो जाता है
क्या विडंबना थी कि हिंदी फिल्मों के इतिहास में सबसे लंबे समय तक परदे पर लोगों के सपनों को सच करता और उनकी लड़ाइयां लड़ता यह महानायक मुंबई के एक अखबार के सर्वे में तीसरे स्थान पर था, जिसका सवाल था कि आप किस मशहूर शख्सियत से सबसे ज्यादा नफरत करते हैं.
उन्होंने यह दौर बार-बार देखा है और अपने ब्लॉग के माध्यम से मीडिया पर उनके बार-बार बरसने को यदि आप बिलकुल गैरजरूरी मानते हैं तो क्या आपको अस्सी के दशक का ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ का वह पहला पन्ना याद नहीं जो अमिताभ के बारे में था और जिसका शीर्षक था- देश का गद्दार.
एक समय में उन पर आरोप था कि वे इंदिरा गांधी के नजदीकी हैं और आपातकाल में प्रेस पर सेंसरशिप के लिए वे ही उत्तरदायी थे. पहले मीडिया ने उन पर घोषित प्रतिबंध लगाया और बाद में उन्होंने मीडिया पर. मीडिया से अमिताभ का रिश्ता इसी पंक्ति के इर्द-गिर्द घूमता रहा है. सब सेलिब्रिटियों की तरह मीडिया उनकी जिंदगी के भी बिलकुल अंदर तक बेरोकटोक घुसना चाहता है और जब वे अपने बेटे की शादी में बिना बुलाए घुस आए पत्रकारों पर थोड़े सख्त हो जाते हैं तो वह फिर से उनका पूरा बायकॉट कर देता है. इस रिश्ते में बीच का कोई रास्ता नहीं है, इसीलिए वे ब्लॉग लिखते हैं, जो कई मायनों में उनकी व्यक्तिगत न्यूज एजेंसी की तरह भी है.
उनकी और भी शिकायतें हैं. उन फोटोग्राफरों से जो उन्हें तब मुस्कुराकर फोटो खिंचवाने को कहते हैं जब वे किसी अस्पताल में मौत से जूझते बेसहारा बच्चों से मिल रहे होते हैं. उन पत्रकारों से जो हर इंटरव्यू में वही सवाल पूछते हैं और उनकी आधी शक्ति उनका अलग-अलग तरह से जवाब देने में खर्च हो जाती है.
मगर क्या उन एक जैसे सवालों के लिए अमिताभ ही कहीं न कहीं उत्तरदायी नहीं हैं? बहुत-से सवालों को वे व्यक्तिगत सवालों की लिस्ट में डाल देते हैं और कुछ पर उनकी प्रतिक्रिया इतनी ‘पोलिटिकली करेक्ट’ होती है कि इंटरव्यू को नीरस बनने से बचाने के लिए उसे काटना पड़ता है. अब सिर्फ एक जैसे कुछ सवाल ही सुरक्षित बचते हैं, मसलन इस फिल्म में आपका क्या रोल है और भविष्य की क्या योजनाएं हैं. आप कितने भी वाकपटु हों, उनसे ऐसे किसी सामाजिक या राजनीतिक मुद्दे पर राय नहीं ले सकते जिस पर किसी के नाराज हो जाने का खतरा हो.
अमिताभ जब देर रात में पोस्ट लिखते हैं तो उस पर आधी प्रतिक्रियाएं तो यही होती हैं कि उन्हें जल्दी सोना चाहिए
गलती चाहे किसी की भी रही हो, उनका ब्लॉग मीडिया को कोसने का एक मंच बन गया है. उनका साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार उनका कोई एक्सक्लूसिव इंटरव्यू आसानी से अपने अखबार में नहीं छाप सकते, क्योंकि उसे अकसर अमिताभ अपने ब्लॉग पर छाप चुके होते हैं (कभी-कभी अखबार से पहले ही) और वे नहीं चाहते कि उनकी एक भी पंक्ति से कोई छेड़छाड़ की जाए. नतीजा होता है, एक जैसे सपाट उत्तरों की एक लिस्ट, जिससे आप किसी भी मुद्दे पर उनका स्टैंड नहीं जान सकते.