1977 में संजय गांधी के अमेठी से पर्चा भरते ही देश के राजनीतिक नक्शे पर लगभग गुमनाम रही यह सीट अचानक खास हो गई थी. तबसे लेकर आज तक इसका वह रुतबा कायम है. 77 से पहले अमेठी में कांग्रेस उम्मीदवार विद्याधर बाजपेयी ही जीतते आ रहे थे. संजय गांधी इस कारण भी आश्वस्त थे और इसलिए भी क्योंकि उनकी मां और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बगल की ही रायबरेली सीट से चुनाव लड़ रही थीं.
लेकिन नतीजा उनकी उम्मीद के उलट रहा. आपातकाल के खिलाफ जनता का गुस्सा फूटा और जनता पार्टी के उम्मीदवारों ने मां-बेटे की जोड़ी को पटखनी दे दी. इंदिरा को राजनारायण ने हराया तो संजय को रवींद्र प्रताप सिंह ने. हालांकि तीन साल बाद ही इस जोड़ी ने इन दोनों सीटों पर वापसी की. तब से लेकर अब तक 98-99 के एक अपवाद को छोड़ दें तो अमेठी गांधी परिवार के पीछे खड़ा रहा है. संजय, राजीव, सोनिया और राहुल गांधी और गांधी परिवार के वफादार कैप्टन सतीश शर्मा यहां से संसद पहुंच चुके हैं. बीते दो लोकसभा चुनाव में अमेठी ने राहुल गांधी को चुनकर भेजा है.
शायद यही वजह है कि कांग्रेस अमेठी को लेकर बेफिक्र दिखती है. इस कदर कि चुनाव अधिसूचना के बाद खबर लिखे जाने तक यहां राहुल गांधी का एक भी दौरा नहीं हुआ था. न ही प्रियंका गांधी की यहां कोई खास हलचल दिख रही है. सपा ने पहले की तरह एक बार फिर प्रत्याशी न उतारकर अमेठी में राहुल गांधी को वॉकओवर दे दिया है. बसपा से धर्मेंद्र प्रताप सिंह जरूर मैदान में हैं, लेकिन खबरों के मुताबिक क्षेत्र में उनकी सक्रियता कम ही नजर आती है. फिलहाल चुनाव प्रचार के नाम पर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार कुमार विश्वास अमेठी में सबसे ज्यादा सक्रिय दिखते हैं. 12 जनवरी को अमेठी में हुई विशाल जनसभा के बाद से वे क्षेत्र में जमे हैं और दावा कर रहे हैं कि जनता उनके पक्ष में फैसला कर चुकी है. उधर, भाजपा ने यहां से स्मृति ईरानी को उतारकर मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया है.
हालांकि कोण कितने और कैसे भी रहे हों, अमेठी में गांधी परिवार के आगे कोई नहीं ठहर सका. शरद यादव से लेकर कांशीराम तक यहां से रण में उतरे, लेकिन खेत रहे. मेनका गांधी और महात्मा गांधी के पोते राजमोहन गांधी ने भी किस्मत आजमाई पर एक जैसा कुलनाम भी उनके काम न आया.