तहलका के संपादक रहे तरुण तेजपाल पर जिस तरह के आरोप लग रहे हैं उनके बारे में सोचते हुए बार-बार अफसोस और शर्म में डूब जाता हूं. उनके दो उपन्यासों ‘द स्टोरी ऑफ माई असासिन्स’ और ‘द वैली ऑफ मास्क्स’ का मुरीद रहा. ‘द स्टोरी ऑफ माई असासिन्स’ पर लिखा भी. तहलका की निर्भीक पत्रकारिता का कायल रहा और जब स्तंभकार के तौर पर इस पत्रिका से जुड़ने का मौका मिला तो लगा कि एक मजबूत परंपरा का हिस्सा हूं.
लेकिन आज वह गर्व जैसे चूर-चूर है. खुद से पूछता हूं कि अगर ये आरोप सही हैं तो हमारे लिखते रहने का क्या मतलब है. यह सारा साहित्य-विचार-दर्शन क्या सिर्फ बुद्धिविलास है? जीवनपर्यंत हम जिन विश्वासों को जीते हैं, जिन शब्दों से जीने का संबल और सार्थकता पाते हैं, उन्हीं को एक दिन इतनी बुरी तरह क्यों कुचल डालते हैं कि सारे शब्द निरर्थक लगने लगें, सारी आस्था पाखंड जान पड़े?
ये सवाल सिर्फ तरुण तेजपाल से नहीं, अपने-आप से भी पूछे जाने के लिए हैं. बेशक, तरुण तेजपाल ने अगर यह किया है तो उसकी सजा तहलका को नहीं मिलनी चाहिए. लेकिन क्या यह संभव है? अगर तरुण तेजपाल के कृतित्व से हम गौरवान्वित और लाभान्वित होते रहे तो उन पर लगी कालिख से पीड़ित और लांछित क्यों नहीं होंगे? कई बार व्यक्ति और संस्थान एक-दूसरे के पर्याय हो जाते हैं. तरुण तेजपाल और तहलका भी हैं. एक की करनी से दूसरा बेअसर नहीं रह सकता.
सवाल है, अब क्या हो? इस मामले के दो पक्ष हैं- एक कानूनी और दूसरा नैतिक. कानून को अपना काम करना चाहिए और तेजपाल पर लगे आरोप अगर साबित हो जाते हैं तो उनके अपराध के हिसाब से उन्हें सजा मिलनी चाहिए. मगर पहले दौर की बिना शर्त माफी के बाद अब तरुण का दावा है कि घटनाएं उस तरह नहीं घटीं जिस तरह बताई जा रही हैं. अब यह अदालत पर है कि वह तेजपाल पर लगे आरोप का क्या करती है. अभी तो अदालत और अदालत से बाहर तथ्य जिस तरह दलीलों में बदले जा रहे हैं, वह भी तेजपाल के प्रशंसकों को धक्का पहुंचाने वाला है. पीड़ित लड़की के आरोप में राजनीतिक साजिश खोजना शायद ऐसी ही तकलीफदेह दलील है. फिलहाल तेजपाल कठघरे में हैं. अगर कोई कनिष्ठ सहयोगी अपने बॉस पर इतने गंभीर इल्जाम लगा रही है तो मेरी तरह कई लोग मान सकते हैं कि कुछ तो ऐसा है जो तरुण तेजपाल द्वारा स्थापित पेशेवर मानदंडों के विरुद्ध गया है. यह बहुत सारे लोगों की निगाह में एक छल है, विश्वासघात है. देखें तो इस छल की सजा शुरू भी हो गई है. संस्थाएं, सम्मान, समारोह, सब उनसे मुंह मोड़ रहे हैं. लेकिन तरुण तेजपाल की यह सजा तहलका की सजा भी बन रही है. कई सहयोगी उनका साथ छोड़ गए. जो नहीं छोड़ पाए, उन्हें कहीं ज्यादा मुश्किल सवालों का सामना करना पड़ रहा है- अपने से भी और दूसरों से भी. जाहिर है, यह चोट जितनी तेजपाल पर है, उससे कम तहलका पर नहीं. यह सवाल पूछा जा रहा है कि तहलका बचा रहेगा या नहीं.
मगर तरुण तेजपाल पर लगे आरोप अगर सही हैं तो क्या यह सिर्फ उनकी निजी विफलता है? यह इत्तिफाक नहीं कि मीडिया से ठीक पहले यौन उत्पीड़न का यह शर्मनाक आरोप सुप्रीम कोर्ट के एक जज पर लगा और उसके भी पहले एक धर्मगुरु पर. इससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि यौन उत्पीड़न की ऐसी शिकायतें आम तौर पर अनदेखी रह जाती हैं या फिर की नहीं जातीं- बल्कि इस उत्पीड़न के कई स्तर इतने सूक्ष्म और सांकेतिक होते हैं, इतने सयाने कि उनकी शिकायत भी मुमकिन नहीं लगती. फिर इन शिकायतों की जांच का जो तंत्र है- दफ्तरी कमेटियों से लेकर पुलिस-कचहरी तक- वह पुरुष वर्चस्व और मानसिकता का इस कदर मारा है कि वह सबसे पहले शिकायतकर्ता को दंडित करता है.