पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार राजग के सहयोगी के बतौर उतरे थे, जबकि इस बार वे लालू प्रसाद के साथ मिलकर भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के सामने उतर रहे हैं. आपका इस बार के विधानसभा चुनावों के बारे में क्या कहना है?
इस बार का चुनाव कुछ हद तक अनोखा है. नीतीश कुमार के खिलाफ सत्ता विरोधी कोई लहर नहीं है. वो ऐसे व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं, जो अपने वादों पर खरा उतरा है. वहीं भाजपा को भी सांप्रदायिक दल नहीं माना जाता क्योंकि राजग के रूप में ही नीतीश सात साल शासन कर पाए हैं और इन सालों में भाजपा के राजनीतिक और सांस्कृतिक एजेंडे ने कहीं भी उनके शासन को प्रभावित नहीं किया. तो भाजपा के खिलाफ भी कोई सत्ता विरोधी लहर नहीं दिखती है.
पिछले डेढ़ साल में राष्ट्रीय स्तर पर मोदी की चमक फीकी पड़ी है. हालांकि मैं हैरान हूं कि इससे बिहार में उनकी लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ा है. वे काफी संख्या में लोगों को आकृष्ट कर रहे हैं. फिर भी, अन्य राज्यों में उनके सामने इतने कद्दावर नेता नहीं थे. बिहार में उनके सामने एक ऐसा सफल नेता (नीतीश) है, जो 2019 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री पद का दावेदार हो सकता है. ऐसे में मोदी के लिए बिहार में जीत का सफर थोड़ा मुश्किल भरा होगा.
आम तौर पर माना जाता है कि बिहार की राजनीति में जाति एक प्रमुख भूमिका निभाती है. क्या इस बार भी ये निर्णायक कारक साबित होगी?
बिहार की राजनीति में जाति हमेशा से ही महत्वपूर्ण रही है. अब सवाल ये है कि इसका विन्यास क्या होगा? नीतीश कुमार पहले ही उस गठबंधन से अलग हो चुके हैं जहां अन्य पिछड़ा वर्ग और दलितों के साथ सवर्ण निर्णायक भूमिका में थे. यहां गौर करने वाली बात ये है कि जब भी राज्य में ऊंची जातियां एक साथ आकर गठबंधन करती हैं तो इसे जातिगत गठजोड़ नहीं कहा जाता पर जब हाशिये पर पड़ी, गरीब जातियां साथ आती हैं तो इसे फौरन जातिवादी गठबंधन होने का नाम दे दिया जाता है.
जातिगत समीकरण के बारे में क्या आप थोड़ा विस्तार से बता सकते हैं?
भाजपा का राष्ट्रीय आधार ऊंची जातियां हैं, जो कभी कांग्रेस का आधार हुआ करती थीं. इतिहास देखें तो भाजपा का आधार बनिया हुआ करते थे. हालांकि बिहार में भाजपा अब पिछड़ी जातियों से समर्थन मांगते हुए नजर आ रही है. उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो भाजपा ने सम्राट अशोक को कोईरी जाति का घोषित करते हुए उनके नाम पर डाक टिकट जारी किया है. भाजपा इससे पहले जातिगत रैलियों का आयोजन भी करती रही है पर फिर भी वे यही कहते हैं कि वे जातिवादी नहीं हैं. इसलिए चुनाव में जाति एक महत्वपूर्ण घटक है.
महादलित समुदाय के बारे में आपका क्या कहना है? जीतनराम मांझी खुद को एकमात्र महादलित नेता कहते हैं, इसे आप क्या कहेंगे?
भाजपा यहां हाशिये पर पड़ी जातियों से समर्थन पाने के लिए काम कर रही है. मांझी को साथ लेने का उद्देश्य महादलित वोटरों को अपनी तरफ करना है. वैसे मांझी भाजपा के साथ इसलिए हुए क्योंकि नीतीश परिस्थितियों को सही तरह से संभाल नहीं पाए. व्यावहारिक तौर पर नीतीश ने ही मांझी को भाजपा के खेमे तक पहुंचाया.
भाजपा के उन आरोपों पर आपका क्या कहना है, जिसमें वह कह रही है कि अगर लालू-नीतीश सत्ता में वापसी करते हैं तो बिहार में जंगलराज वापस आ जाएगा?
1991 में जब लालू सत्ता में थे, पिछड़ी जाति और सामाजिक न्याय व्यवस्था पर आधारित यह तब का सबसे बड़ा गठबंधन था. तब बिहार अविभाजित था, उन्हें 54 सीटों में से 53 मिल सकती थीं, लेकिन चारा घोटाले में लालू के खिलाफ कोर्ट केस हुआ जिसके बाद उनका आधार सिर्फ यादव जाति तक ही सीमित रह गया. हालांकि राज्य में लालू के शासन के समय ही लोकतांत्रिकरण की शुरुआत हुई, उसके बावजूद बिहार पतन की ओर ही बढ़ता चला गया. राज्य में कई स्तरों पर भारी अव्यवस्थाओं और कानून व्यवस्था की कमी के चलते ऊंची जातियों ने ‘बड़े’ अपराध करने शुरू किए, वहीं यादव ‘छोटे’ अपराधों में लिप्त हो गए. उस दौर में जनता के एक बड़े वर्ग की सामान्य सोच यही थी. इसलिए अब इस बात का डर है कि अगर लालू यादव सत्ता में वापस आते हैं तो यादव फिर से शक्तिशाली हो जाएंगे.