संजय तिवारी इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ में 2003-04 में अध्यक्ष चुने गए थे. इसके पहले वे महामंत्री भी रह चुके थे. वे छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय थे. उन्हें भाषण कला अच्छी आती थी. वे समय-समय पर छात्रों का मुद्दा उठाते रहते थे. छात्रों के बीच अक्सर चर्चा हुआ करती थी कि वे राजनीति में अच्छे नेता साबित होंगे. जाहिर है संजय को भी खुद से ऐसी ही उम्मीद रही होगी. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों में इस बात को लेकर बहुत गौरवबोध रहता है कि जिस तरह उत्तर प्रदेश ने देश को सात प्रधानमंत्री दिए, उसी तरह इस विश्वविद्यालय ने चंद्रशेखर, वीपी सिंह, शंकरदयाल शर्मा, मदनलाल खुराना, विजय बहुगुणा, जनेश्वर मिश्र, अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी जैसे नेता दिए.
संजय के मन भी इस कतार में शामिल होने की तमन्ना रही ही होगी. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. वे अब तक इस इंतजार में हैं कि उत्तर प्रदेश में प्रभावशाली पार्टियों कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा में से कोई पार्टी उन्हें टिकट दे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. संजय कांग्रेस के एनएसयूआई पैनल से अध्यक्ष बने थे लेकिन कांग्रेस ने ही उन्हें आगे बढ़ने का कोई अवसर नहीं दिया. संजय ने पिछला विधानसभा चुनाव तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर लड़ा और हार गए क्योंकि यूपी में तृणमूल का कोई जनाधार नहीं है, न ही पार्टी मजबूत स्थिति में है. संजय कहते हैं, ‘जिसके पास धनबल और बाहुबल है, जिसके पास पीआर और एफआईआर है, पार्टियां उसी को टिकट देती हैं. मैं जनता के मुद्दों को लेकर संघर्ष करते हुए 60-70 बार जेल गया, लेकिन कांग्रेस ने मुझे ही टिकट नहीं दिया. राहुल गांधी से मैं बार-बार मिला लेकिन मुझे कांग्रेस से टिकट नहीं मिला. राहुल गांधी कहते हैं कि बस जमीन पर बस काम करो. बसपा ने टिकट देने के लिए डेढ़ से दो करोड़ रुपये मांगे. सपा से भी टिकट नहीं मिला. सभी दल बाहुबलियों को ही तवज्जो देते हैं. छात्रसंघ से निकले उसी नेता को टिकट मिल पाता है जो या तो किसी राजनीतिक परिवार से हो या जिसके पास अकूत पैसा हो.’ संजय ने अभी राजनीति छोड़ी नहीं है. वे अब भी किसी पार्टी से टिकट मिलने का इंतजार कर रहे हैं.
संजय तिवारी अकेले नहीं हैं जो छात्रसंघ से निकलकर डेढ़ दशक से अपना राजनीतिक करिअर तलाश रहे हैं. पूरे देश में जितने कॉलेज या विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ बचे हैं, वहां से निकलने वाले छात्रों के लिए राजनीति में कोई खास जगह नहीं है. गोरखपुर विश्वविद्यालय छात्रसंघ में सक्रिय रहे अशोक कुमार पांडेय 1991 से 97 तक विश्वविद्यालय में रहे. इसके बाद वे कृषि मंत्रालय में अधिकारी हो गए. वे अपने संगठन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता तो थे लेकिन उनके सामने कोई राजनीतिक विकल्प नहीं था. वे बताते हैं, ‘मेरे विश्वविद्यालय में पहुंचने के बाद से लेकर आज तक मुझे एक भी नाम याद नहीं है जो छात्रसंघ से होते हुए मुख्यधारा की राजनीति में आया हो.’ 1990 के बाद मंडलीकरण, भूमंडलीकरण और मंदिर-मस्जिद की राजनीति ने छात्र आंदोलनों की स्थितियां बदल दीं. अब छात्रसंघों के नेता मुख्यधारा की राजनीति में तभी आ रहे हैं जब उन पर बड़े राजनीतिक दलों का हाथ हो, या वे किसी राजनीतिक घराने से ताल्लुक रखते हों, या इतने प्रभावशाली हों कि पार्टियों के लिए फायदेमंद लगें. इलाहाबाद में पिछले एक-डेढ़ दशक में जितने भी युवा छात्रसंघ में सक्रिय रहे थे, उनमें से सिर्फ एक नेता राजनति में सक्रिय हुआ, वे हैं संग्राम यादव. संग्राम यादव 2003-04 में महामंत्री चुने गए थे. वे बलराम यादव के बेटे हैं. बलराम यादव उत्तर प्रदेश की राजनीति में हैसियत वाले नेता रहे हैं जो इंदिरा और राजीव की कैबिनेट में मंत्री रहे थे. संग्राम यादव को सपा से टिकट मिला, फिलहाल वे आजमगढ़ की अतरौलिया सीट से विधायक हैं.
‘जो लोग पार्टियों को फंडिंग करते हैं वे नहीं चाहते कि आम छात्रों और जनता के बीच से नए लोग राजनीति में आएं. नए लोगों के आने से राजनीतिक परिवारों के बच्चे आगे नहीं आ पाते’
जेपी आंदोलन के बाद के वर्षों में छात्रसंघ के अपराधीकरण ने उन पर प्रतिबंध लगाने का रास्ता साफ किया. छात्रसंघों में धनबल, बाहुबल और रुतबे की राजनीति का हासिल लिंगदोह कमेटी के रूप में सामने आया. लिंगदोह कमेटी को छात्र राजनीति को हतोत्साहित करने के प्रयास के रूप में देखा
गया, लेकिन कमेटी ने छात्रसंघों पर जिन चीजों पर प्रतिबंध लगाया, उनके पीछे पुख्ता तर्क थे. कमेटी ने चुनाव लड़ने की उम्रसीमा तय करते हुए इलाहाबाद विश्वविद्यालय के नेता रघुनाथ द्विवेदी का उदाहरण दिया था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक ऐसे भी छात्रनेता हैं जिनकी उम्र 48 साल है. उनकी एक बेटी और एक बेटा भी विश्वविद्यालय में छात्र हैं. रघुनाथ द्विवेदी 1995 में उपाध्यक्ष चुने गए थे. वे एक दशक से ज्यादा तक विश्वविद्यालय में सक्रिय रहे और अब किसी पार्टी से चुनाव लड़ने की जुगत में हैं.
रमेश यादव 2003 से इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में सक्रिय रहे. वे चुनाव तो नहीं जीते लेकिन छात्रों के बीच उन्होंने काफी काम किया. तब से आज तक लगातार राजनीति में सक्रिय हैं. पीएचडी कर चुके हैं और विश्वविद्यालय की नियुक्तियों में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चला रहे हैं. वे छात्रों से लेकर जनता तक के मुद्दे उठाते रहते हैं. विश्वविद्यालय में वे एनएसयूआई पैनल से चुनाव लड़ते थे, बाद में बहुत बार कोशिश की लेकिन कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया. रमेश कहते हैं, ‘जो लोग दलों को फंडिंग करते हैं वे नहीं चाहते कि जनता के बीच से या छात्रों के बीच से निकले नए लोग राजनीति में आएं. नए लोगों के आने से राजनीतिक परिवारों के बच्चे आगे नहीं आ पाते. आम छात्र आगे आते थे, वे जन नेता होते थे, उस पूरी व्यवस्था को ही खत्म कर दिया गया. केरल का वह उदाहरण ध्यान में रखिए कि बड़ी कंपनियां कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के तहत सभासद जैसे पदों पर अपने प्रत्याशियों को चुनाव लड़ा रही हैं. विचारों और आंदोलनों को खत्म कर दिया गया है. आम छात्र विश्वविद्यालय में जीत भी जाए तो मुख्यधारा की राजनीति में आकर धनबल और बाहुबल से हार जाता है. इसका मुकाबला करने के लिए छात्रों ने अपराध का रास्ता पकड़ लिया है.’ रमेश यादव अब तक राजनीति में इस उम्मीद के साथ सक्रिय हैं कि उन्हें किसी न किसी पार्टी से टिकट जरूर मिलेगा.
छात्रसंघों से निकलने के बाद ज्यादातर छात्र या तो ठेकेदारी, खनन आदि धंधों में चले जाते हैं या कहीं गुम हो जाते हैं. पिछले वर्षों में कई छात्र नेताओं के मारे जाने या अन्य कारणों से उनकी मौत की खबरें भी आईं. मई, 2015 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष कुलदीप सिंह केडी की संदिग्ध हालत में मौत हो गई. वे विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के शोधछात्र थे और 2013-14 के लिए छात्रसंघ अध्यक्ष चुने गए थे. नवंबर, 2015 में काशीपुर उत्तराखंड में धर्मेंद्र भट्ट का महादेव नगर स्थित एक प्लाट में शव पाया गया था. धर्मेंद्र राधे हरि डिग्री कालेज का छात्रसंघ अध्यक्ष रह चुके थे. उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में मई, 2013 को पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष रमन सिंह समेत दो लोगों की खनन माफिया ने हत्या कर दी थी. दिसंबर, 2014 में उत्तराखंड के शक्तिफार्म में पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष प्रताप सिंह बिष्ट को तीन बदमाशों ने दिनदहाड़े गोली मार दी थी. नवंबर 2014 में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पिथौरागढ़ के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष भुवन सिंह सौन का शव कार में पाया गया था. वे 2011 में छात्रसंघ अध्यक्ष थे. राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के महाराणा प्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ दीपक शर्मा की अगस्त, 2013 में मध्य प्रदेश में एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी. वे सत्र 2010-11 में चुनाव जीते थे.
छात्र राजनीति में सक्रिय रहे कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने मकसद तय किए और उस पर लगातार काम कर रहे हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1993 में छात्रसंघ अध्यक्ष रहे लालबहादुर सिंह ऐसे ही छात्रनेता रहे जो अब नए राजनीतिक विकल्प पर काम कर रहे हैं. लालबहादुर विश्वविद्यालय में खासे लोकप्रिय थे. छात्र उनकी भाषण कला और नेतृत्व क्षमता के मुरीद थे. वे छात्रावासों और चौराहों पर जाकर कहीं भी खड़े होकर भाषण देने लगते थे और उन्हें सुनने वालों की भीड़ लग जाती थी. वे करीब दो दशक तक वाम राजनीति में सक्रिय रहे. लालबहादुर कहते हैं, ‘जेपी आंदोलन के समय मैं स्कूल में था. उसके प्रति मैं बहुत आकर्षित हुआ. लेकिन जब विश्वविद्यालय में आया तो कई सीनियर छात्रों की संगति में वाम विचारधारा की तरफ रुझान हुआ. जिनकी अपनी राजनीतिक समझ बन पाई है वह मुख्यधारा के अनुकूल नहीं है. मेरी समझ बनी कि यही वो विचारधारा है जो इस समाज और देश के लिए सबसे मुफीद है.’ बाद के वर्षों में लालबहादुर का अपनी पार्टी से मतभेद हुआ. उन्होंने बताया, ‘भाकपा माले में एक लंबी बहस चली थी कि वामपंथी पार्टी के अलावा एक जनपार्टी की जरूरत है, जो अपने मुद्दे जनता की फौरी जरूरतों और उसकी सोच समझ के मुताबिक काम करे. हम कुछ लोगों का एक ग्रुप भाकपा माले से अलग हुआ और ऑल इंडिया पीपुल फ्रंट बनाया. इस पार्टी से कई महत्वपूर्ण लोग जुड़े हैं.’ लालबहादुर को उम्मीद है कि वे देश को बेहतर राजनीतिक विकल्प दे सकेंगे.
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छात्र आंदोलन अब नए रूप में सामने है
यह कहना गलत है कि छात्र आंदोलन खत्म हो गए हैं. मंडल कमीशन के बाद परिसरों की संरचना बदल गई. महिला और पिछड़े वर्ग की भागीदारी बढ़ गई. अब ये तबके सामाजिक समस्याओं पर आंदोलन कर रहे हैं. वे पारंपरिक मुद्दों पर आंदोलन नहीं करते. इसीलिए पिछले दिनों यूजीसी की तरफ से हॉस्टल पर एडवाइजरी जारी हुई. यह सभी छात्रों को सर्विलांस में रखता है. छात्रसंघ अब पहले जैसे नहीं दिखते, लेकिन सामाजिक मुद्दों पर छात्रों की सक्रियता बढ़ी है. वे विभिन्न मुद्दों पर हस्तक्षेप कर रहे हैं. इसीलिए उन्हें लगातार दबाने की कोशिश हो रही है. ऐसा दिख रहा है कि छात्रों का एक विराट आंदोलन सामने आने वाला है. बुनियादी चीजें आम जनता के लिए दुर्लभ होंगी तो जनाक्रोश उभरेगा. इसलिए उच्च शिक्षा में गरीबों की आमद रोकने की कोशिश हो रही.
परिसरों में विद्यार्थियों का जो कंपोजीशन बदला है, उससे उनकी सक्रियता भी नए स्वरूप में है. छात्र आंदोलन तो नहीं दिख रहा, लेकिन एक अंतर्धारा मौजूद है. दूसरे, मुख्यधारा की राजनीति में भी विमर्श बदल गया है. पूरी राजनीति में अब बेहद छुद्र सवालों पर बहस होती है. आम जनता राजनीति के केंद्र में नहीं है. इसलिए छात्र आंदोलन राजनीतिक नहीं दिख रहे, क्योंकि उनके मुद्दे अलग हैं, जिन्हें राजनीतिक पार्टियां उठा नहीं रहीं. राजनीति हमेशा सामाजिक परिवर्तन से ही नियंत्रित होती है, इसलिए तत्काल सतह पर परिवर्तन नहीं दिखेगा. लेकिन अगर राजनीति ने इस अंतर्धारा का संज्ञान नहीं लिया तो यह राजनीति को बदल देगी. यह हमेशा सतह पर दिखाई नहीं देती. छात्रसंघ विशेष प्रक्रिया में ही सामने आए थे. जहां छात्रसंघ नहीं था, छात्रों ने लड़कर हासिल किया. स्वाधीनता आंदोलन में छात्रों की विशेष भूमिका तो रही लेकिन आंदोलन के नेता इसके पक्ष में नहीं थे कि छात्रसंघ हों. छात्रसंघ आजादी के बाद सामने आए. लोहियावादी आंदोलन ने इसे एक स्वरूप प्रदान किया. जेपी आंदोलन छात्रों का आंदोलन था लेकिन उसमें भी छात्रसंघों की खास भूमिका नहीं थी. बाद के वर्षों में राजनीति बदली तो छात्रसंघ भी बदल गए. जैसे-जैसे समय बदल रहा है, छात्र नई भूमिका में सामने आ रहे हैं. नए आंदोलन पैदा हो रहे हैं. नया आंदोलन पैदा होता है तो वह छात्रसंघ को भी अपने हिसाब से परिभाषित करता है.
गोपाल प्रधान, पूर्व छात्रनेता, जेएनयू [/box]
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद कुछ सबसे पुराने संगठनों में से एक है, इसकी स्थापना 1949 में हुई थी. दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान समेत ज्यादातर राज्यों में इसकी मजबूत स्थिति रही है. लेकिन इस पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नियंत्रण है. जेएनयू में एबीवीपी के अध्यक्ष रह चुके डॉ. मनीष कुमार कहते हैं, ‘संघ में भाजपा के लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता है. जो लोग भाजपा में जाते हैं, संघ की निगाह में वे भ्रष्ट हो जाते हैं. संघ की नीति है कि एबीवीपी के लोग पढ़ाई करने के बाद या तो उनके अन्य संगठनों में जाते हैं या फिर अपना करिअर बनाते हैं. जैसे अरुण जेटली का उदाहरण लीजिए. वे एबीवीपी में थे, फिर पढ़ लिखकर वकील हो गए. बोफोर्स घोटाले में वीपी सिंह ने उन्हें वकील रखा. इसके बाद वे राजनीति में आ गए. उन्हें संघ या भाजपा राजनीति में नहीं लाई. संघ राजनीति में जिन्हें भेजता भी है वे उसके स्वयंसेवक होते हैं.’ संघ की यह नीति अब भी जारी है. एबीवीपी से जुड़े जो भी नेता छात्रसंघ में चुने गए, उनमें छिटपुट चेहरे ही राजनीति में आए. मनीष कुमार खुद एबीवीपी को जेएनयू में स्थापित करने वालों में से एक हैं, लेकिन वे राजनीति में न जाकर पत्रकार बने. अब छात्रसंघों से नेता बनने की संभावनाएं लगभग न के बराबर हैं. जिस छात्रसंघ को राजनीति की नर्सरी कहा जाता था, वह अब बंजर हो चुकी है.